स्टैच्यू ऑफ यूनिटी के आसपास के गांवों की ज़मीन का सरकार को सहमालिक बनाने का विरोध

अभयारण्य के लिए 121 गांवों को ईको सेंसेटिव ज़ोन में शामिल करने की योजना

वडोदराः गुजरात में नर्मदा नदी के तट पर स्थित स्टैच्यू ऑफ यूनिटी के एक किनारे पर बसे लगभग 122 गांव जोखिम में हैं. स्थानीय जिला प्रशासन ने भूमि रिकॉर्ड में राज्य सरकार को बतौर दूसरे भूस्वामी के तौर पर शामिल करने की प्रक्रिया शुरू कर दी है.

इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक, सात नवंबर को जारी अधिसूचना में गरुड़ेश्वर मामलातदार (मामलातदार राजस्व प्रशासन का प्रमुख होता है, जिसके तहत औसतन 50 या उससे अधिक गांवों के समूह आते हैं.) ने स्टैच्यू ऑफ यूनिटी के पास स्थित पूरे गोरा गांव और शूलपनेश्वर अभयारण्य को ईको सेंसेटिव जोन में शामिल किया और राज्य सरकार को सहधारक (सहमालिक) के तौर पर जोड़ा है.

मामलातदार द्वारा जारी किए गए पत्र में कहा गया है, ‘नर्मदा के उप वन संरक्षक के 28 जनवरी 2020 के पत्र के अनुसार, पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने एक अंतिम अधिसूचना प्रकाशित की है, जिसमें पांच मई 2016 को नर्मदा में शूलपनेश्वर वन्यजीव अभयारण्य के आसपास के क्षेत्र को ईको सेंसेटिव जोन घोषित किया था.’

गोरा गांव के लगभग 120 भूमालिक 10 नवंबर तक मामलातदार के समक्ष अपनी आपत्ति दर्ज करा चुके हैं. गांववाले सरकार को उनकी जमीनों का सहमालिक बनाए जाने का विरोध कर रहे हैं. उनका कहना है कि उनकी सहमति के बिना ही प्रशासन की ओर से यह कदम उठाया गया है.

इस अधिसूचना के जारी होने के बाद ग्रामीणों का कहना है कि गोरा पंचायत कार्यालय पर सात नवंबर यानी शनिवार की शाम को यह अधिसूचना चिपकाई गई थी, इसलिए अगले दिन (रविवार होने के कारण) भूमालिकों को तुरंत इस पर आपत्ति नहीं उठाने दी गई.

गोरा गांव की सरपंच शांति तड़वी ने कहा, ‘हमने अपना आपत्ति-पत्र राज्य सरकार, जो कि हमारी जमीनों की सहमालिक भी है, उसे सौंप दिया है. हम लगभग 120 लोग हैं, जो जमीनों के मालिक हैं और प्रशासन ने यह फैसला हमारी सहमति के बिना लिया है.’

तड़वी के मुताबिक, ‘मामलातदार का यह फैसला बिना किसी पूर्व चेतावनी के एक आश्चर्य के तौर पर सामने आया.’ तड़वी ने कहा, ‘इस अभयारण्य के आसपास के 121 गांवों को ईको सेंसेटिव जोन के हिस्से के रूप में शामिल करने की योजना है. उन्होंने गोरा के साथ शुरुआत की है. हमें नहीं पता कि उनकी मंशा क्या है लेकिन क्षेत्र में पर्यटन के लिए भूमि अधिग्रहण के इतिहास को देखते हुए हम इसे लेकर सशंकित हैं.’

ग्रामीणों ने अपने आपत्ति-पत्रों में अपनी जमीनों पर संपूर्ण कब्जे का हवाला दिया है. सरपंच ने पूछा, ‘हमें अब अपनी ही जमीनों पर कुछ करने के लिए सरकार से अनुमति लेनी होगी. वे कहते हैं कि वे इसे हमसे बचाना चाहते हैं, लेकिन हम मूल मालिक हैं. हमसे बेहतर इसकी रक्षा कौन कर सकता है.’

क्षेत्र में पर्यटन परियोजनाओं की अफवाहों की वजह से अधिकांश ग्रामीण अपनी भूमि से बेदखल किए जाने को लेकर चिंतित हैं, जबकि जिला प्रशासनिक अधिकारियों ने इस तरह की किसी भी परियोजना से इनकार किया है.

वहीं वन अधिकारियों का कहना है कि इसका एकमात्र कारण अभयारण्य को संरक्षित करना है. इंडियन एक्सप्रेस से बातचीत में एक वन अधिकारी ने पहचान उजागर नहीं करने की शर्त पर कहा, ‘अधिकतर ग्रामीणों को अनुसूचित जाति एवं अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकार मान्यता) अधिनियम 2006 (एफआरए) के तहत संरक्षित किया गया है, जिसके अंतर्गत आदिवासियों के तीन अधिकारों को मान्यता दी गई है. व्यवसाय और खेती के लिए उनके व्यक्तिगत अधिकार, चराई के लिए सामुदायिक अधिकार, जलाऊ लकड़ी का संग्रह और वन उपज की बिक्री.’

उन्होंने कहा, ‘यहां पर एकमात्र मुद्दा यह है कि वे वनभूमि पर अतिक्रमण करते हैं. हमारे पास जिले के डेडियापाड़ा तालुका क्षेत्र में ऐसे मुद्दे हैं, जहां अतिक्रमण एक मुद्दा बना गया है. एक कानून होने से हमें पारिस्थितिकी को सुरक्षित रखने में मदद मिलेगी.’ अधिकारी ने इस बात से इनकार किया कि क्षेत्र में किसी भी पर्यटन परियोजना की योजना बनाई गई है.

वहीं, सरपंच शांति तड़वी का कहना है, ‘हम पुख्ता तौर पर नहीं कह सकते हैं कि किसी प्राचीन वन को किसी और चीज में तब्दील करने का यह पहला कदम है. उन्होंने हमें विश्वास में नहीं लिया है. हम जानते हैं कि पर्यटन के लिए केवड़िया का विकास स्थानीय लोगों की इच्छा के विरुद्ध हुआ.’

उनका कहना है, ‘हमारे गांव में एकता नर्सरी और अन्य सरकारी जमीनें हमारे पूर्वजों की हैं और उन प्रक्रियाओं द्वारा हासिल की गई हैं, जो उन दिनों के अशिक्षित ग्रामीणों को समझ में नहीं आती थी. हम पेसा अधिनियम का हवाला देते हुए अदालतों को स्थानांतरित करने की योजना बना रहे हैं, लेकिन हम गरीब आदिवासी हैं, जिन्हें लगता है कि हम हार जाएंगे.’

रिपोर्ट के अनुसार, गोरा गांव में सरदार सरोवर नर्मदा निगम लिमिटेड (एसएसएनएनएल) ने छह गांवों- लिंबड़ी, केवड़िया, वागड़िया, नवगाम, कोठी और गोरा के लोगों के ‘आदर्श वासहट’ के लिए उनका पुनर्वास करने का फैसला किया है. ये लोग नर्मदा बांध के लिए 1961 में अपनी 16 हेक्टेयर जमीनों के अधिग्रहण का विरोध कर रहे हैं.

एसएसएनएनएल ने नर्मदा नदी के दोनों किनारों को जोड़ने के लिए रोपवे के लिए टेंडर आमंत्रित किए हैं, जो नर्मदा बांध की 1.2 किलोमीटर लंबाई में हैं ताकि केवड़िया जाने वाले पर्यटक मिनटों में नदी के दूसरी तरफ संबद्ध परियोजनाओं तक पहुंच सकें. गोरा गांव से होते हुए नदी के किनारे की यात्रा में तकरीबन 30 मिनट लगते हैं.

राजपीपला के रेजिडेंट अपर कलेक्टर एचके व्यास ने इंडियन एक्सप्रेस से बातचीत में कहा, ‘पूरी प्रक्रिया को वन विभाग की ओर से लागू किया गया है. जमीन के स्वामित्व या मालिकाना हक में जिला प्रशासन की कोई भूमिका नहीं है.’

बीते सितंबर महीने में स्टैच्यू ऑफ यूनिटी के आसपास के 14 गांवों के सैकड़ों आदिवासियों ने क्षेत्र के विकास के नाम पर गुजरात सरकार द्वारा किए जाने वाले उनकी भूमि के अधिग्रहण के खिलाफ प्रदर्शन किया था. इनका आरोप था कि विकास परियोजनाओं के नाम पर राज्य सरकार आदिवासियों के स्वामित्व वाली कृषि भूमि को जबरन छीन रही है, जो उनकी आजीविका का आधार है.

बता दें कि गुजरात में वडोदरा से सौ किलोमीटर दक्षिण पूर्व में नर्मदा ज़िले स्थित केवड़िया के पास नर्मदा नदी में साधु बेट नामक छोटे द्वीप पर सरदार पटेल की 182 मीटर ऊंची विशाल प्रतिमा स्थापित की गई है.

इसे बनाने में लगभग 3000 करोड़ रुपये का खर्च आया था. यह प्रतिमा अमेरिका में स्थित ‘स्टैच्यू ऑफ लिबर्टी’ से करीब दो गुनी ऊंची है. इस प्रतिमा के निर्माण में 70,000 टन से ज़्यादा सीमेंट, 18,500 टन री-एंफोंर्समेंट स्टील, 6,000 टन स्टील और 1,700 मीट्रिक टन कांसा का इस्तेमाल हुआ है.

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