प्रशांत भूषण का ट्वीट : चीफ जस्टिस का एमपी सरकार से हेलीकॉप्टर लेना अनुचित

MP के बाग़ी विधायकों का महत्वपूर्ण मामला उनके समक्ष है लंबित

जस्टिस बोबडे द्वारा हाल ही में अपनी छुट्टियों के दौरान मध्यप्रदेश की सरकार की तरफ़ से उनके लिए हेलिकॉप्टर उपलब्ध कराया था.इसी को लेकर प्रशांत भूषण ने 21 अक्टूबर को ट्वीट किया है. अपने ट्वीट में उन्होंने मध्य प्रदेश सरकार के इस आतिथ्य पर सवाल उठाया है.प्रशांत भूषण ने कहा, ”मुख्य न्यायाधीश ने कान्हा राष्ट्रीय उद्यान और फिर अपने गृह नगर नागपुर की यात्रा के लिए मध्य प्रदेश सरकार की ओर से मिले हेलीकॉप्टर का इस्तेमाल किया. वो भी ऐसे समय में जब मध्य प्रदेश के बाग़ी विधायकों के निलंबन का महत्वपूर्ण मामला उनके समक्ष लंबित है. मध्य प्रदेश सरकार इस मामले पर टिकी है.”

इस ट्वीट में प्रशांत भूषण ने विनय सक्सेना बनाम मध्य प्रदेश विधानसभा स्पीकर और अन्य के मामले में सुप्रीम कोर्ट के आदेश की कॉपी भी लगाई है.इस मामले की सुनवाई 6 अक्तूबर को मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एसए बोबडे और जस्टिस एएस बोपन्ना और वी रामासुब्रमण्यम की बेंच ने की थी. आदेश में कहा गया है कि इस मामले में अंतिम फ़ैसला चार नवंबर को लिया जाएगा.प्रशांत भूषण का कहना है कि मध्य प्रदेश में 22 विधायकों की सदस्यता का मामला सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यों की खंडपीठ के समक्ष लंबित है, जिसकी सुनवाई ख़ुद जस्टिस बोबडे कर रहे हैं.

इस मामले पर मध्यप्रदेश सरकार का भविष्य टिका है तो इस परिप्रेक्ष्य में सीजेआई को राज्य सरकार का आथित्य स्वीकार किया जाना सही था या नहीं?आपको याद होगा कि मध्यप्रदेश में महीनों तक ज़बरदस्त सियासी ड्रामा चला था जिसके बाद राज्य में कमलनाथ की सरकार से कुछ कांग्रेस के विधायकों ने बग़ावत कर पार्टी छोड़ दी थी.बाद में कमलनाथ ने अपनी कुर्सी छोड़ दी और बीजेपी के शिवराज सिंह चौहान मुख्यमंत्री बन गए.

इसके बाद 22 कथित ‘दल बदलू’विधायकों की बर्ख़ास्तगी को लेकर कांग्रेस पार्टी की तरफ़ से तत्कालीन प्रोटेम स्पीकर विनय सक्सेना ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया और इस सम्बन्ध में एक याचिका सुप्रीम कोर्ट में दायर की.इस याचिका की सुनवाई जस्टिस बोबडे की अगुवाई वाली खंडपीठ में शुरू हुई जिसके दूसरे अन्य दो सदस्य ह न्यायमूर्ति बोपन्ना और न्यायमूर्ति वी. रामासुब्रमण्यम हैं.मामले की सुनवाई चल रही है और इसे अब चार नवम्बर को फिर से खंडपीठ के सामने पेश किया जाएगा.

भूषण कहते हैं कि मध्यप्रदेश सरकार ने जो हेलिकॉप्टर उपलब्ध करवाया था, उससे मुख्य न्यायाधीश सबसे पहले मध्य प्रदेश के ‘कान्हा नेशनल पार्क’ गए थे और फिर वहाँ से वो नागपुर गए.इस यात्रा पर सवाल की गुंजाइश इसलिए अधिक बन गई है क्योंकि चीफ़ जस्टिस इस राज्य से जुड़े एक अहम केस की सुनवाई करने जा रहे हैं.

इससे पहले भी प्रशांत भूषण मुख्य न्यायाधीश एसए बोबडे को लेकर ट्वीट कर चुके हैं और अदालत ने उनको अवमानना दोषी क़रार देते हुए एक रुपये का अर्थदंड दिया था.भूषण ने इसी साल 27 जून को अपने ट्वीट में लिखा था, “जब भावी इतिहासकार देखेंगे कि कैसे पिछले छह साल में बिना किसी औपचारिक आपातकाल के भारत में लोकतंत्र को खत्म किया जा चुका है. वो इस विनाश में विशेष तौर पर सुप्रीम कोर्ट की भागीदारी पर सवाल उठाएंगे और मुख्य न्यायाधीश की भूमिका को लेकर पूछेंगे.”

प्रशांत भूषण ने कुछ दिनों के बाद एक और ट्वीट किया.उनके ट्वीट के निशाने पर इस बार भी सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एसए बोबडे थे.भूषण ने लिखा था, ”भारत के चीफ़ जस्टिस ऐसे वक़्त में राज भवन, नागपुर में एक बीजेपी नेता की 50 लाख की मोटरसाइकिल पर बिना मास्क या हेलमेट पहने सवारी कर रहे हैं जब वो सुप्रीम कोर्ट को लॉकडाउन में रखकर नागरिकों को इंसाफ़ पाने के उनके मौलिक अधिकार से वंचित कर रहे हैं.”इस ट्वीट पर अदालत ने अवमानना का स्वतः संज्ञान लिया और प्रशांत भूषण पर एक रुपये का अर्थ दंड भी लगाया था.

अब प्रशांत भूषण के मध्य प्रदेश से जुड़े ट्वीट को लेकर न्यायिक हलकों में बहस जारी है और राय भी बंटी हुई है.सवाल दो हैं- क्या प्रशांत भूषण ने इस ट्वीट से कोर्ट की दोबारा अवमानना की है? क्या ताज़ा संदर्भ में चीफ़ जस्टिस ने मध्यप्रदेश सरकार का आथित्य स्वीकार कर जजों के लिए स्थापित ‘कोड ऑफ़ एथिक्स’ की अवहेलना की है?सात मई, 1997 को सुप्रीम कोर्ट ने ‘न्यायिक जीवन के मूल्यों पर प्रतिबंध’ नाम से एक 16-कोड चार्टर अपनाया था. इसका मक़सद स्वतंत्र, मज़बूत और सम्मानित न्यायपालिका के लिए ज़रूरी गाइड के तौर पर काम करना था. इन्हें न्याय के निष्पक्ष प्रशासन के लिए अपरिहार्य माना गया है.

इस चार्टर के तीन बिंदु जो इस मामले से संबंधित हैं, वो कुछ इस तरह हैं:

1. न्याय सिर्फ़ किया ही नहीं जाना चाहिए बल्कि ये दिखना भी होना चाहिए कि न्याय हो रहा है. उच्च न्यायपालिका के सदस्यों का व्यवहार न्यायपालिका की निष्पक्षता में लोगों के विश्वास को मज़बूत करे. सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय के न्यायाधीश को, व्यक्तिगत या अधिकारिक क्षमता में, कोई ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए जो इस धारणा की विश्वसनीयता को कमज़ोर करता हो.

2. एक न्यायाधीश को अपने कार्यालय की गरिमा का ध्यान रखना चाहिए और अपने आप को सार्वजनिक जीवन से दूर रखना चाहिए.

3. हर जज को हर समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वो जनता की निगरानी में है. उसे ऐसा कोई काम नहीं करना चाहिए जो उसके पद के सम्मान के ख़िलाफ़ हो.

कुछ को लगता है कि भूषण ने ऐसा ट्वीट करके फिर से अवमानना की है. वहीं क़ानून कुछ के जानकार मानते हैं कि उनके ट्वीट से अवमानना का कोई मामला नहीं बनता है क्योंकि उन्होने सिर्फ़ अपनी राय दी है.सिक्किम के मुख्य न्यायाधीश रहे प्रमोद कोहली का बीबीसी से कहना था कि मुख्य न्यायाधीश चाहे सुप्रीम कोर्ट के हों या राज्य के, सभी राजकीय अतिथि के श्रेणी में आते हैं. इनकी सुरक्षा और रहने का का ज़िम्मा भी राज्य सरकारों का ही होता है. वो कहते हैं कि सिर्फ़ मुख्य न्यायाधीश ही नहीं, राज्यों के जज भी इसी श्रेणी में ही आते हैं.

उनका ये भी कहना था कि जहां कान्हा नेशनल पार्क स्थित है वो नक्सल प्रभावित इलाक़ा है. ऐसे में चार पाँच घंटों तक सड़क मार्ग से जाना उनकी सुरक्षा के दृष्टिकोण से बड़ी चुनौती रहती.वर्ष 2011 के मध्य प्रदेश के राज्य के गजट यानी राजपत्र में इन बातों का साफ़ तौर पर उल्लेख किया गया है.21 जनवरी वर्ष 2011 में प्रकाशित इस राजपत्र के राज्य अतिथि नियम 1 (3 और 4 ) में विशिष्ट लोगों की सूची है जबकि इसी में इनकी अगवानी, सुरक्षा, आवास, भोजन प्रबंध और परिवहन की राज्य सरकार की ज़िम्मेदारी का स्पष्ट उल्लेख किया गया है.

देश के सभी राज्यों ने महत्वपूर्ण व्यक्तियों को लेकर अलग अलग नियमावली बनायी है. लेकिन बड़े ओहदों पर आसीन अति महत्वपूर्ण लोगो के लिए सभी राज्यों की लगभग एक जैसी ही नियमावली है जिसे इन राज्यों ने राजपत्र यानी गजट के माध्यम से लागू किया हुआ है.मगर इस मामले पर न्यायिक हलकों में राय एक सामान नहीं है.बीबीसी से बात करते हुए सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायमूर्ति जस्टिस चेलमेश्वर कहते हैं कि अपने कार्यकाल में उन्होंने इस तरह की कोई भी सुविधा या उपकार स्वीकार नहीं किया.

आंध्र प्रदेश स्थित अपने गांव से फ़ोन पर बात करते हुए उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के एक न्यायाधीश की चर्चा करते हुए कहा कि किसी चर्चित व्यक्ति के साथ वो न्यायाधीश छुट्टियाँ मनाने गए. बाद में उन्हीं न्यायाधीश की अदालत में उस चर्चित व्यक्ति का मामला आया. लेकिन इसके बावजूद उन न्यायाधीश महोदय ने ख़ुद को मामले की सुनवाई से अलग नहीं किया.

जस्टिस चेलमेश्वर कहते हैं कि प्रोटोकॉल को देखते हुए चीफ़ जस्टिस बोबडे आतिथ्य स्वीकार कर सकते हैं मगर मौजूदा परिस्थिती में उनको करना चाहिए या नहीं ये उनके विवेक पर निर्भर करता है.न्यायमूर्ति मदन बी लोकुर को लगता है कि इस मामले को लेकर बहस होनी ही चाहिए.

बीबीसी हिंदी के लिए सुचित्र मोहंती से बात करते हुए उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जज देश भर में आते जाते रहते हैं. या तो किसी निजी या सरकारी समारोह में हिस्सा लेने के लिए फिर व्याख्यान देने के लिए. उन्हें सुविधाएं और सुरक्षा राज्य सरकारें मुहैया कराती हैं.वो कहते हैं, ”देखा जा रहा है कि कुछ जजों का आचरण उनके ओहदे की गरिमा के अनुकूल नहीं है इसके लिए उन्हें आत्ममंथन करना ज़रूरी हो गया है कि क्या उनके द्वारा ऐसा करना सही है या नहीं?”

जस्टिस लोकुर कहते हैं कि जहाँ तक मुख्य न्यायाधीश की बात है तो इस पर चर्चा और बहस होनी ज़रूरी है.हाँलाकि न्यायमूर्ति रत्नाकर दास मानते हैं कि अदालत में केस सबूतों और दलीलों के आधार पर सुने जाते हैं और इन्ही आधारों पर फ़ैसले दिए जाते हैं. इससे इस बात का कोई लेना देना नहीं है कि उन्हें किस राज्य सरकार ने अपने अतिथि गृह में ठहराया था.

न्यायमूर्ति दास जजों द्वारा इस तरह के सुविधाएं लेने को कहीं से ग़लत नहीं मानते हैं.वहीं, सुप्रीम कोर्ट के प्रोटोकॉल से जुड़े अधिकारियों का कहना है कि जो कुछ हुआ है वो पहले से तय किए गए मानकों के हिसाब से ही हुआ है. कान्हा नेशनल पार्क और नागपुर जाने के लिए अगर सड़क मार्ग चुना जाता तो माओवादियों के खतरे को देखते हुए ये ग़लत होता.

जजों और मुख्य न्यायाधीशों की सुरक्षा हर उस राज्य की ज़िम्मेदारी है जहां वो जा रहे हैं, चाहे आधिकारिक रूप से या फिर व्यक्तिगत तौर पर.हैदराबाद स्थित नालसार क़ानून विश्वविद्यालय के कुलपति फैज़ान मुस्तफ़ा ने बीबीसी से बातचीत में कहा कि कुछ अति विशिष्ट लोगों की श्रेणी ऐसी है जिसके तहत वो सरकारी काम से जाएं या निजी काम से, उन्हें तय किए गए मापदंडों के हिसाब से ही सुविधाएं दी जाती हैं.

फ़ैज़ान कहते हैं, “सिर्फ़ हेलीकॉप्टर के इस्तेमाल को मुद्दा नहीं बनाना चाहिए क्योंकि ये मुख्य न्यायाधीश को तय किए गए प्रोटोकॉल के हिसाब से ही दिया गया होगा बतौर राजकीय अतिथि.”जहाँ तक रही बात प्रशांत भूषण द्वारा किये गए ट्वीट की, तो फ़ैज़ान मुस्तफ़ा कहते हैं कि ये अवमानना का मामला बनता है या नहीं ये तो अदालत ही तय करेगा.लेखक और पत्रकार मनोज मिट्टा का मानना है कि ये मुद्दा नियमों से ज़्यादा मूल्यों का है.

वो कहते हैं, ”मुद्दा ये नहीं है कि कान्हा नेशनल पार्क की विशेष परिस्थितियों का ध्यान रखते हुए हेलीकॉप्टर लिया जाना चाहिए था या नहीं, मुद्दा समय का है. सवाल ये है कि क्या भारत के सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को मध्य प्रदेश की सरकार का ऐसे समय में अतिथि बनना चाहिए जब सरकार के अस्तित्व का मामला ही उनके समक्ष हो.”

”उन्हें न्यायिक आचार संहिता का ध्यान रखना चाहिए था. उन्हें ऐसी परिस्थिति में अपने आप को अलग रखना चाहिए ताकि सिर्फ न्याय किया ही नहीं जाए बल्कि न्याय होता हुआ दिखे भी.”बीबीसी से बात करते हुए पूर्व अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल के सी कौशिक ने भी कहा कि सबकुछ जजों के विवेक पर निर्भर करता है कि वो इस तरह के आथित्य अपने निजी काम से जाने के बावजूद स्वीकार करते हैं या नहीं.उनका कहना था कि जहां तक हो जजों को इस तरह का आतिथ्य स्वीकार करने से बचना चाहिए.

प्रशांत भूषण के इस ताज़ा ट्वीट ने जजों के संदर्भ में राजकीय प्रोटकॉल और कोड ऑफ़ एथिक्स पर एक नई बहस छेड़ दी है. लोकतंत्र में न्यायिक प्रणाली और न्यायधीशों की निष्पक्षता में भरोसा क़ायम रखने के लिए ये बहस बेमानी नहीं है.

सलमान रावी

बीबीसी हिन्दी से साभार

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