आईटी ऐक्ट 2000 की धारा 66-ए निरस्त है, गिरफ्तारी अवैध

पुलिस द्वारा मुक़दमा दर्ज करना व गिरफ्तारी गैरकानूनी

सुप्रीम कोर्ट द्वारा पाँच साल पहले ही आईटी ऐक्ट 2000 की धारा 66 ए निरस्त किया जा चुका है। फिर भी पुलिस इसका दुरुपयोग करके मुक़दमे दर्ज करती है और गिरफ्तारी करती है…। इस मसले पर वरिष्ठ समीक्षक गिरीश मालवीय की महत्वपूर्ण पोस्ट देखें…

हम सब सोशल मीडिया पर लगातार सक्रिय रहते हैं इसलिए यह पोस्ट बहुत महत्वपूर्ण है यह पोस्ट है आईटी ऐक्ट 2000 की धारा 66 ए के बारे में…।

आज से पाँच साल पहले इस धारा 66 ए को निरस्त किया जा चुका है, लेकिन आज भी यह धारा लगाकर देश भर में पुलिस केस दर्ज कर रही है जो कि स्वंय कानून की नजरों में अपराध है।

कल इलाहाबाद हाई कोर्ट ने प्रदेश के मुख्य सचिव और पुलिस महानिदेशक से पूछा है कि आईटी ऐक्ट 2000 की धारा 66 ए को सुप्रीम कोर्ट की ओर से असंवैधानिक घोषित करने के बाद भी यूपी पुलिस इस धारा में मुकदमे क्यों दर्ज कर रही है?

अदालत ने 4 सप्ताह में यूपी पुलिस को अपना जवाब देने को कहा है।

क्या है आईटी ऐक्ट 2000 की धारा 66-ए?

दरअसल यह धारा वेब पर अपमानजनक सामग्री डालने पर पुलिस को किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करने की शक्ति देती थी। लेकिन इस धारा को निरस्त कर दिया गया, 2015 में दिए गए सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के अनुसार IT एक्ट की धारा 66A के तहत ना तो कोई केस दर्ज होगा और ना ही किसी की गिरफ्तारी हो सकेगी। यानी सोशल मीडिया पर किसी पोस्ट को लेकर किसी की गिरफ्तारी नहीं हो सकेगी।

कोर्ट ने कहा कि सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 66 ए से लोगों की जानकारी का अधिकार सीधा प्रभावित होता है। सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 66 ए संविधान के तहत उल्लिखित अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को साफ तौर पर प्रभावित करती है। कोर्ट ने प्रावधान को अस्पष्ट बताते हुए कहा, ‘किसी एक व्यक्ति के लिए जो बात अपमानजनक हो सकती है, वो दूसरे के लिए नहीं भी हो सकती है।’

क्या था पूरा मामला?

अब यह मामला क्या था यह भी आपको याद दिला देता हूँ !… पालघर की शाहीन और रेनू ने शिवसेना नेता बाल ठाकरे के निधन के मद्देनजर मुंबई में बंद के खिलाफ सोशल मीडिया पर पोस्ट की थी। उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया।

शाहीन और रेनू की गिरफ्तारी के बाद कानून की छात्रा श्रेया ने इसके खिलाफ एक याचिका दायर की ओर इस संदर्भ में पहले कोर्ट ने 16 मई 2013 को एक परामर्श जारी कर कहा था कि सोशल मीडिया पर कथित तौर पर कुछ भी आपत्तिजनक पोस्ट करने वालों की गिरफ्तारी पुलिस महानिरीक्षक या पुलिस उपायुक्त स्तर के वरिष्ठ अधिकारी की अनुमति के बिना नहीं की जा सकती।

सुप्रीम कोर्ट ने निरस्त करते हुए क्या कहा था?

2015 में जस्टिस जे चेलमेश्वर और आरएफ नरीमन की एक पीठ ने इस पूरे मामले पर निर्णय देते हुए विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को ‘मौलिक’ बताया ओर कहा कि ‘जनता का जानने का अधिकार सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 66ए से सीधे प्रभावित होता है.’ ओर इस आधार पर इस धारा को उन्होंने निरस्त कर दिया…।

लेकिन सुप्रीम कोर्ट के आदेश का अर्थ यह भी नहीं है कि आप महिलाओं को लेकर कुछ भी पोस्ट कर सकते हैं अश्लील पोस्ट और फोन पर परेशान करने वाले के खिलाफ आईटी एक्ट की धारा 66 बीसीडी और आईपीएस की धारा 354, सेक्सुअल हैरासमेंट अधिनियम के तहत एफआईआर दर्ज की जा सकती है।

निरस्त होने के बाबजूद पुलिस का मनमानापन

धारा 66 ए पर 2015 में आए इस निर्णय के बावजूद देश भर में पुलिस कर्मी सोशल मीडिया की पोस्ट के सिलसिले में इस धारा के अंतर्गत मामला दर्ज करते आए हैं यह सिर्फ यूपी की ही बात नही है।

पिछले साल कर्नाटक हाईकोर्ट ने दो पुलिस अधिकारियों को सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 66 (ए) के तहत एफआईआर दर्ज करने के लिए, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने रद्द कर दिया था, 10-10 हजार रुपए की लागत का भुगतान करने का निर्देश दिया।

कर्नाटक हाईकोर्ट ने कहा “यह एक ऐसा मामला है जिसमें पुलिस ने कानून के उन प्रावधानों को लागू करके आपराधिक कार्यवाही शुरू की है, जो कि कानून की किताब में है ही नहीं। पुलिस ने शुरुआत में शिकायत को एनसीआर के रूप में दर्ज किया। यह कानून की प्रक्रिया का स्पष्ट दुरुपयोग है और नागरिक को परेशान करने के अलावा कुछ भी नहीं है।”

साफ है कि आज भी धारा 66-ए का इस्तेमाल दमनात्मक रूप में किया जा रहा है जो कि बिल्कुल गलत है…।

गिरीश मालवीय की पोस्ट साभार

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