वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्त्ताओं ने की हाथरस मामले की छानबीन : सरकार कर रही है अभियुक्तों का बचाव

फैक्ट फाइंडिंग टीम के सदस्य

फैक्ट फाइंडिंग रिपोर्ट का उद्धृत हिंदी अनुवाद

देश भर में दमित समुदायों और दलित महिलाओं के साथ होने वाली यौन हिंसा और ऐसे मामलों में सरकार के रविय्ये पर रौशनी डालने, व प्रतिवाद की लहर शुरू करने वाले हाथरस मामले में अब तक न्याय की कोई उम्मीद नहीं नज़र आ रही है। योगी सरकार द्वारा मामले में दिखाई गयी हड़बड़ी और ज़बरदस्ती हादसे के तथ्यों को भी पूरी तरह से समाज के सामने नहीं आने दे रही है । बल्कि नित दिन परिवार, कार्यकर्ताओं और डोक्टरों पर झूठे आरोप लगा कर सरकार सच्चाई को दबाने की कोशिश कर रही है। यह तथ्य ना केवल एक लड़की के साथ हुई भयावह घटना को बताते हैं बल्कि समाज में गहरी जड़ें रखने वाले जाति और लिंग आधारित हिंसा के सुस्थापित प्रणाली को भी उजागर करते हैं। 

ऐसी में घटना और उसके बाद पुलिस द्वारा चलायी गयी प्रक्रिया के वास्तविक तथ्य जानने के लिए नेशनल अलायन्स ऑफ़ पीपल्स मूवमेंट (एनएपीएम) की पहलकदमी में वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ताओं की एक टीम ने 9 अक्टूबर को हाथरस का दौरा कर, पीड़िता के परिवार वालों और सरकारी अफसरों से बात करके एक 24 पन्नों की रिपोर्ट का प्रकाशन किया है। यह रिपोर्ट ‘गोदी’ मीडिया और यूपी पुलिस प्रशासन द्वारा फैलाई जा रही कई भ्रांतियों को चुनौती देती है, जैसे कि पीड़िता के परिवार वालों का उसे एम्स ले जाने से इनकार करना, “ऑनर किल्लिंग” के आरोप इत्यादि। टीम में मेधा पाटकर, मणिमाला, संदीप पाण्डे, अधिवक्ता एहतेशाम हाश्मी, फैज़ल खान, जो अथियाली, अमित कुमार, हंसराज और आनंद अथियाली शामिल रहे। 20 अक्टूबर को रिपोर्ट जारी करते हुए मेधा पाटकर ने कहा:

“हाथरस की घटना पर हमारी रिपोर्ट का सबसे महत्वपूर्ण निष्कर्ष ये है कि इस अत्याचार की क़ानूनी प्रक्रिया चाहे वो जाँच की हो या अत्याचारी के ख़िलाफ़ कार्रवाई की हो, पूरे हेरफेर में राज्य शासन का समर्थन है.”

रिपोर्ट का उद्धृत हिंदी अनुवाद:

पृष्ठभूमि

हम, नौ सदस्यों की एक टीम, 9 अक्टूबर को दोपहर 1 बजे के आसपास ग्राम बल्गारी पहुंची। इससे पहले कि हम पुलिस कॉर्डन और बैरिकेड से गुजर सकें, हमें रोक दिया गया, कि पांच से अधिक सदस्य पीड़ित परिवार से मिलने के लिए एक साथ नहीं जा सकते। 5 और 4 की दो टीमों में उप-विभागीय मजिस्ट्रेट को संबोधित आवेदन लिखने के बाद, हमें पीड़ित परिवार से मिलने जाने की अनुमति दी गई। पहली टीम को  डेढ़ किलोमीटर दूर दस्या (पीड़िता का नाम परिवर्तित किया गया है) के घर तक पहुंचने के लिए एक पुलिस वाहन मुहैया कराया गया, जबकि दूसरी टीम को चल कर आना पड़ा। जब दूसरी टीम पहली टीम के लौटने का इंतजार कर रही थी, तब भगवा पगड़ी पहने अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा के कार्यकर्ता भी वहां पहुंचे। उनके वाहनों पर लगे पोस्टर पर लिखे संदेश के मुताबिक वे वहां केवल ‘पीड़ित’ ठाकुर परिवार से मिलने के लिए आये थे। वे लगभग दस से बारह लोग थे। उन्होंने एक साथ जाने के लिए पुलिस के साथ बहस की और बहुत बहस के बाद, उन्हें गांव के अंदर एक साथ जाने की अनुमति दे दी गई। 4 में से एक वाहन ने शिवपाल यादव द्वारा बनाई गई समाजवादी पार्टी के टूटते गुट प्रगतिवादी समाजवादी पार्टी का झंडा लगा हुआ था।

हम में से कुछ अंदर बैठे, परिवार वालों से मिले और घटना के ज्वलंत विवरण और अतीत की घटनाओं का विवरण सुना। 600 से अधिक परिवारों वाले गाँव बुलगढ़ी में लगभग 15 दलित परिवारों का एक छोटा समूह है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी यहाँ एक अल्पसंख्यक गुट के हिसाब से रहते तो आ रहे हैं, लेकिन कई दशकों से दमनकारी बर्ताव और माहौल का सामना भी कर रहे हैं। ठाकुरों के उच्च जाति के परिवार खेत मजदूरी के लिए और अन्य तरीकों से दलित परिवारों की सेवाओं का उपयोग करते हैं। पिछले दशकों में दलितों के बीच कुछ जागृति आई है ।

उसके पिता के माध्यम से दस्या के परिवार को 1990 के दशक में मायावती की सरकार द्वारा 5 बीघा जमीन आवंटित की गई थी। हालाँकि, आज तक वे केवल साढ़े तीन बीघा के भौतिक कब्जे में हैं, जबकि बाकी का कुछ ब्राह्मण परिवार द्वारा स्पष्ट रूप से अतिक्रमण कर लिया गया है। मवेशियों के पालन से दूध की बिक्री के माध्यम से उन्हें एक छोटी पूरक आय आती है। 

पड़ोसियों के बीच संबंध लंबे समय से तनावपूर्ण रहे हैं। लगभग 20 साल पहले, ठाकुर परिवार ने दास्या के दादा पर हमला किया था। “वे अपने भैंसों को चराने के लिए हमारे खेत में आए और मेरे दादा ने उनसे अनुरोध किया कि वे जानवरों को कहीं और ले जाएं क्योंकि हमारी फसल खराब हो जाएगी। इस बात से नाराज कि एक दलित उन्हें यह बता सकता है, उन्होंने उस पर चाकू से हमला किया। दास्या के भाई ने कहा कि “जब मेरे दादाजी ने उनकी गर्दन की रक्षा करने की कोशिश की, तो चाकू ने उनकी उंगलियां काट दीं।”  

पुलिस प्रमुख, वीर, ने कहा कि रवि दस्या के दादा पर हुए हमले में शामिल था, जबकि संदीप का “शराब के ज्यादा उपभोग का इतिहास था।” रवि के पिता ने पुष्टि की कि वह दास्या के दादा  पर हमले के सिलसिले में जेल गए थे।

हालांकि, पिछले दो दशकों के दौरान अभियुक्तों और दस्या के परिवारों के बीच न तो कोई संघर्ष हुआ था और न ही लड़ाई की कोई घटना हुई थी। इसलिए 14 सितंबर का क्रूर हमला पूरे परिवार के लिए पूरी तरह से अप्रत्याशित और अकारण था।

घटना

14 सितंबर, 2020 के दिन, दस्या मवेशियों के लिए घास लाने के लिए अपनी माँ और भाई सत्येंद्र कुमार के साथ हमेशा की तरह मैदान में गई । सत्येंद्र घास की गठरी लेकर, औरतों को अकेला छोड़कर घर लौटा। जैसा कि बाद में दस्या ने बताया, उसे पुरुषों द्वारा, लगभग 50 फीट की दूरी पर स्थित आरोपी परिवार के खेत में बाजरे की खड़ी फसलों के अंदर खींच लिया गया। उसके लापता होने का एहसास होने पर, दस्या की माँ उसकी तलाश में निकली। उसके शरीर को जमीन पर खुला, घायल और खून से सना पाने पर वह दंग रह गयी। चिल्लाते हुए, उसकी माँ ने अपनी साड़ी के एक हिस्से से उसके शरीर को ढँक दिया और पास में मिले एक लड़के के ज़रिए दस्या के भाई सत्येंद्र को एक संदेश भेजा। वह एक बाइक पर घटना स्थल पर पहुंचा और शरीर को पहले चंडपा पुलिस स्टेशन और उसके बाद बल्गा अस्पताल, हाथरस ले जाया गया। 

परिवार उच्च जातिय ठाकुर परिवार के आरोपी संदीप, रवि, राम और लवकुश से वाकिफ है जो उनके सामने ही रहते हैं और जो शराब पीने और नशा करने के आदी हैं। वे उपने रिश्तेदार लवकुश के साथ थे और चारों दस्या के साथ बलात्कार और उसपर हुए हमले में शामिल थे। उन्होंने उसका गला दबा दिया जिससे वह गंभीर न्यूरोलॉजिकल चोट आई, उसकी रीढ़ की हड्डी प्रभावित हुई और वह अपने शरीर को हिला भी नहीं पा रही थी, जो लगभग लकवाग्रस्त हो गया था। वह बोल नहीं सकती थी और बेहोश थी। 

दस्या को बल्गा अस्पताल में लाया गया लेकिन डॉक्टरों को पुलिस द्वारा कोई जानकारी नहीं दी गयी और परिवार के सदस्यों, उसकी मां, भाई, पिता, भाभी और भाभी के भाई के अनुसार न ही किसी पुलिसकर्मी या आधिकारी ने घटना की कोई भी जांच की। यह IPC की धारा 375 के तहत किसी भी आगे की जांच और कार्रवाई के लिए बेहद आवश्यक था जैसा कि प्रशासन को ज्ञात है फ़िर भी नहीं किया गया।

24 घंटों में लगभग कुछ नहीं हुआ और उसे फिर से अलीगढ़ अस्पताल में स्थानांतरित कर दिया गया जब वह अभी भी लगभग बेहोश थी और उसकी जीभ कट गई थी और वह एक शब्द भी नहीं बोल पा रही थी। अलीगढ़ के JLNMCH अस्पताल में रिश्तेदारों ने डॉक्टरों को कहते हुए सुना कि उन्हें पता नहीं यह मामला उनके लिए कहां से और क्यों लाया गया था! शुरुआत से ही परिवार को लगा कि वहां के डॉक्टर और कर्मचारी काफी दबाव में हैं! हालाँकि उन्होंने मूल उपचार किया, परिवार के सभी लोग उस समय लाज़मी तौर से बस दस्या के जीवित रहने के संघर्ष के बारे में ही चिंतित थे। 

दस्या एक-दो दिनों के बाद कुछ समय के लिए थोड़े होश में आई और अपनी मां को अपनी कहानी सुनाई, जिसमें उसने चार दोषियों का नाम लिया और बलात्कार और क्रूर हमले का भी जिक्र किया। अपने परिवार की प्रतिष्ठा के बारे में चिंतित होने के बावजूद परिवार वाले चुप नहीं रह सकते थे। उन्होंने वार्ड में मौजूद डॉक्टरों, नुरसों और अन्य मरीजों के रिश्तेदारों को भी बुलाया … और सच का खुलासा हुआ। …

तहकीकात और आरोपियों को पकड़ने में ढिलाई…

यह चौंकाने वाली बात है कि जिन डॉक्टरों ने उसके पूरे शरीर की जांच की होगी, उन्होंने यौन उत्पीड़न से संबंधित किसी भी चीज़ की जांच नहीं की, और उन्होंने उसके परिवार से तब तक कोई पूछताछ नहीं की जब तक कि उसने खुद सच्चाई का खुलासा नहीं किया। समय को इस तरह गुज़ारना, या बर्बाद करना, जानबूझ कर किया जा सकता है क्योंकि देर से परीक्षा कभी बलात्कार साबित नहीं कर सकती है। जाहिर तौर पर इरादा हमेशा के लिए सबूत को खो देने का हो सकता है। मेडिको लीगल केस रिपोर्ट की एक प्रति, जिसे तुरंत परिवार को उपलब्ध नहीं कराया गया था और जो लिंग द्वारा योनि में प्रवेश को दर्ज करती है, व उसी विश्वविद्यालय के फॉरेंसिक विभाग की रिपोर्ट जो इस संभावना को पूरी तरह नकारती है, दोनों इस रिपोर्ट के साथ संलग्न हैं। 

हालांकि, दास्या का बयान कानून के अनुसार उसकी मृत्‍यु घोषणा है। इसलिए, यह स्पष्ट है कि पुलिस चारों आरोपियों को हिरासत में लेने को मजबूर हुई। इसके लिए भी उन्हें तब तक खोजबीन करनी पड़ी जब तक कि किसी व्यक्ति ने आरोपियों के पास के गाँव में छिपने की सूचना नहीं दी। लोगों के बयानों से एक बड़े तबके की जाति के आधार पर आक्रामक और घमंडी तरीके से एक सक्रीय भूमिका निभाने का पता चलता है।

इस समय तक यह सामने आ चुका था कि दस्या को पिछले 6 महीनों से आरोपी परिवार के संदीप और अन्य पुरुषों द्वारा परेशान किया जा रहा था। उसे एक बार खेत के पास खींच लिया गया था लेकिन वह भाग निकली थी। हालाँकि, परिवार ने बहुत स्पष्ट रूप से संदीप और दस्या के बीच संपर्क और संबंध की झूठी कहानी को स्वीकार करने से इनकार किया, जिन्हें फोन के माध्यम से संपर्क में दिखा कर दस्या को उसी के परिवार द्वारा मारे जाने का निष्कर्ष निकाल कर इसे “हॉनर किल्लिंग” कके मामले के रूप में दिखाया जा रहा है! उनके, विशेष रूप से परिवार की महिलाओं — दस्या की माँ, बहन और भाभी — के लिए ऐसे आरोप को सुनने और मीडिया और समर्थकों द्वारा इस सम्बन्ध में सवालों का जवाब देना एक काफ़ी पीड़ादायक अनुभव मालूम पड़ा। 

…लेकिन समर्थकों पर कड़ी कार्यवाही!

श्योराज जीवन ने नाराज़गी और गुस्से में कुछ मीडिया से बात करते हुए एक बयान दिया कि अगर कोई भी दलित लड़कियों को गलत इरादे से देखता है, तो उसकी आँखें बाहर आ जाएंगी! राजनीति में कई बार हम लोगों द्वारा इस तरह के, विशेष रूप से जातिवाद और सांप्रदायिकता पर आधारित हिंसक बयान सुनते हैं, जिन पर कोई कार्यवाही नहीं की जाती है! हालाँकि, श्योराज जीवन को गिरफ्तार कर लिया गया और वह अभी भी जेल में है। दस्या के परिवार के सदस्यों में से कोई भी श्योराज जीवन की हिंसा की धमकी देते हुए बयान को ठीक नहीं मानते हैं। लेकिन उन्हें निश्चित रूप से ऐसा लगता है कि वाल्मीकि समुदाय, जिससे वे आते हैं, उसमें से उनके एक मात्र समर्थक को एक साजिश के तहत उनसे दूर किया गया है।

इस बीच समर्थकों के सम्बन्ध में अन्य विवाद भी पैदा हुए हैं। इनमें से एक डॉ. ज्योति बंसल, जो एक अम्बेडकरवादी के रूप में हाथरस आयीं और दस्या के परिवार को सांत्वना देने और न्याय के लिए उठने और लड़ने के उनके इरादे को मज़बूत करने की कोशिश की। वह सामाजिक मुद्दों पर सक्रिय रही हैं और जबलपुर के प्रगतिशील लोगों को आश्चर्य नहीं हुआ कि वे अपना समर्थन दिखाने के लिए इतनी दूर चली आयीं…

“जब उसने बाबूजी से बात की तो उन्हें बहुत अच्छा लगा, और सांत्वना मिली। हम उन्हें उनके साथ बातचीत करते अपने डिप्रेशन से कुछ बाहर आता देख सकते थे। इसलिए, हमने उनसे कुछ समय रुक जाने का अनुरोध किया और वे रुक गयीं। वह हमारी ज़िद्द पर दूसरी रात भी रुकी रही और चौबीसों घंटे बड़े पुलिस बल की मौजूदगी और बाहर के लोगों के आने जाने और सवालों के बावजूद, घंटों में उन्होंने यहाँ का माहौल बदल दिया। जब वास्तविक तथ्य यह हैं तब हमें यह सुन कर दुख होता है कि उन्हें नक्सली के रूप में दोषी ठहराया जा रहा है।”

दस्या की भाभी, जो शिक्षित और मुखर है, ने दुख के साथ अपनी टूटती आवाज में हमें बताया

मृत्यु में भी नहीं किया मर्यादा का सम्मान

सफदरजंग अस्पताल में जब दस्या अपने चोटों के आगे हार गयी तो परिवार के सभी सदस्यों को बाहर बैठा बस पुलिस द्वारा सूचित कर दिया गया, और उन्हें बहुत कठिनाई, और दु:ख दर्द का सामना करना पड़ा। पोस्टमार्टम प्रक्रिया के लिए उनकी सहमति मांगी गई थी पर और कुछ भी उनके साथ साझा नहीं किया गया था। फिर उन्हें बुलाया गया और सुरक्षा आश्वासित करने के हवाले से शव को शवगृह के अंदर रखा दिखाया गया। किसी को भी यह एहसास नहीं था कि प्रशासन के हाथों शव, जहाँ भी रखा जाए, दरअसल सुरक्षित नहीं था। कुछ घंटों बाद चौंकाने वाली खबर आई कि पुलिस उनकी सहमति या राय के बिना शव को दाह संस्कार के लिए ले जा जा चुकी थी! 

इसके बाद जो कुछ भी हुआ, पुलिस ने परिवार को एक वैन में हाथरस भेजा लेकिन श्मशान से दूर वाहन को रोक दिया, रोती हुई औरतों ने पुलिस वैन को रोकने की कोशिश की और वन परर दस्तक देती रहीं पर इसक कोई असर नहीं हुआ। वे दस्या का शव चाहते थे ताकि उनके रिश्तेदार, जिनमें से कईअब तक नहीं आ सके थे, व अन्य हितेषियों उसे देख सकें। यह क्रूर घटना अब तक सार्वजनिक बहस में आ चुकी थी और सामाजिक और मुख्यधारा की मीडिया पर चर्चा में थी। उनका यह प्रस्ताव पुलिस द्वारा ठुकरा दिया गया, जिसने अंतिम संस्कार करने के लिए शव की उनकी मांग को नकारते हुए उन्हें कोई अधिकार या मानवीय प्रतिक्रिया नहीं दी। 

कई जगहों पर सार्वजनिक आक्रोश और विरोध प्रदर्शन शुरू होने के बाद, उत्तर प्रदेश सरकार ने पीड़ित परिवार के लिए 25 लाख रुपये के मुआवजे की घोषणा की। हालांकि इस सूचना की पुष्टि नहीं की जा सकी है, यह जानने को मिला है कि पिता को केवल 8-10 लाख रुपये मिले हैं, जो कि एससी / एसटी ( पीओए ) अधिनियम के तहत मामला दर्ज होने के बाद मिलने चाहिए। लेकिन जब फैक्ट-फाइंडिंग टीम परिवार से बात कर रही थी, उन्होंने कहा कि वे पैसा नहीं चाहते हैं और उन्होंने अपने खातों की जांच नहीं की है। परिवार ने कहा कि “अगर हमें न्याय नहीं मिला तो पैसे का कोई फायदा नहीं है।” वहीं, इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेश में कहा गया है कि अगर परिवार इसे स्वीकार नहीं करता है तो डीएम को इसे अलग खाते में रखना चाहिए और यह सोचना चाहिए कि इसका उपयोग कैसे किया जाए। 

इसमें कोई संदेह नहीं है कि उत्तर प्रदेश की पुलिस ने बेहद संदिग्ध और शातिराना तरीके से व्यवहार किया है। यह व्यवहार किसी की अपेक्षा से परे था। इस तरह उनहोंने अपने इरादों के बारे में व्यापक संदेह को जन्म दिया है। सभी दिशाओं से निंदा आने पर राज्य सरकार यह तर्क प्रस्तुत करने को मजबूर हुई, की शव को ठिकाने लगा कर वे हिंसा रोकना चाह रहे थे। कोई भी इस पर विश्वास नहीं कर सकता है क्योंकि पुलिस खुद पीड़ित की रक्षा करने और किसी भी अप्रिय घटना को रोकने में अपनी असमर्थता की घोषणा नहीं कर सकती है। बिना किसी पश्चाताप, या हमारे गंभीर सवालों या कानूनी चुनौती का जवाब देते हुए, राज्य द्वारा किया गया  ऐसा भयानक, अमानवीय और आपराधिक कृत्य यह साबित करता है कि राज्य खुद जातिवादी, मनुवादी और अमानवीय महिला-विरोधी तत्वों के साथ मिल कर इस मुद्दे को दबाना चाहता था। ऐसे ही तत्व इससे पहले और बाद में उन्नाव, बलरामपुर, या आजमगढ़ के अन्य घटनाओं के माध्यम से उजागर हुए हैं। 

यह सब, और अन्य कई चीज़ों ने उत्तर प्रदेश में चल रही हिंसकऔर अशिष्ट राजनीति को उजागर किया है जो आबादी के ऐसे वर्गों की रक्षा कर रही है और उन्हें बढ़ावा दे रही है जैसे उच्च जाति की दमनकारी ताकतें, जो कानूनी, संवैधानिक और मानवीय अधिकारों का खुला उल्लंघन कर रही हैं। इस मामले में भी, विभिन्न याचिकाओं के माध्यम से न्यायालय के समक्ष इन सवालों को उठाने की आवश्यकता है।

अंग्रेज़ी में पूरी रिपोर्ट यहाँ उपलब्ध है ।

About Post Author

भूली-बिसरी ख़बरे