कविताएँ इस सप्ताह : मैं बोल सकती हूँ !

गरीब कौन है..? / हिमांशु कुमार

जिसके पास खाने के लिए खाना!
पहनने के लिए कपड़ा!
रहने के लिए मकान नहीं है!

तो क्या दुनिया में खाना कम है..?
क्या दुनिया में!
सबकी ज़रूरत के लिहाज़ से,
कपड़े कम हैं..?
क्या दुनिया में!
सभी इंसानों के रहने के लिए,
ज़मीन कम है..?

नहीं! असल में तो दुनिया में,
खाना ज़रूरत से ज़्यादा है!
कपड़े ज़रूरत से भी ज़्यादा हैं!
ज़मीन भी सभी के घर बनाने के लिए,
काफी से भी ज़्यादा है!

फिर दुनिया के करोड़ों लोग!
बिना खाना, बिना कपड़े और
बिना मकान के क्यों हैं..?
कहीं ऐसा तो नहीं!
हम बंटवारे में कोई गलती कर रहे हों..?

क्या कोई बच्चा गरीब पैदा होता है..?
क्या जो बच्चा पैदा हुआ है!
उसके लिए ज़मीन, कपड़ा और
मकान इस दुनिया में मौजूद नहीं है..?
या उस बच्चे के हिस्से का दूध, निवाला व खिलौनों पर,
किसी और का कब्ज़ा है..?
उस बच्चे के कपड़ों पर,
किसी और का कब्ज़ा है..?
उस बच्चे के रहने की ज़मीन पर,
किसी और का कब्ज़ा है..?

इस बच्चे की ज़मीन पर,
जिसका कब्ज़ा है!
क्या वही दुनिया के हर बच्चे की
भूख, नंगापन और
बेघर होने के लिए ज़िम्मेदार हैं..?
क्या उस नए पैदा हुए बच्चे की
ज़मीन पर कब्ज़ा करने वाला अमीर!
कानून की मर्जी के बिना,
बच्चे के खाने, कपड़े और मकान पर,
कब्ज़ा करके बैठ सकता है..?

क्या कानून ही यह नहीं कहता कि
अगर इस बेशुमार दौलत में से
अभी-अभी पैदा हुआ बच्चा!
अपने खाने, कपड़े और घर के लिए,
अपना हिस्सा मांगेगा तो
सरकार की पुलिस!
उस दौलत, हज़ारों एकड़ ज़मीन की रक्षा करेगी!
इस तरह सरकार की पुलिस की बंदूकें!
गरीब बच्चे के खाना, कपड़ा और
मकान का हक़ छीन लेती है!

आप सोच रहे थे कि
सरकारें गरीब की तरफ होती हैं!
नहीं! बल्कि सरकारों के कारण!
करोड़ों लोगों की गरीबी,
इस दुनिया से जा नहीं रही है!

जिसके पास ज़्यादा ज़मीन है!
क्या उनके लिए!
प्रकृति ने ज़्यादा ज़मीन बनाई है..?
अगर आप कहते हैं कि यह ज़मीन!
उसकी मेहनत का नतीजा है तो
क्या मेहनत का नतीजा!
यह होना चाहिए कि कोई व्यक्ति!
लाखों लोगों की ज़रूरत की ज़मीन पर,
कब्ज़ा करके बैठ जाए..?

क्या ज़्यादा ज़मीन वाले के पास!
इसलिए ज़्यादा ज़मीन नहीं है क्योंकि
यह ज़मीन उसके बाप की है..?
और इस अमीर ने इस ज़मीन के लिए,
कोई मेहनत नहीं की है..?
क्या असली मेहनत करने वाले ही उससे वंचित नहीं हैं?

तो क्या यह सच नहीं है कि
समस्या ग़रीब या गरीबी नहीं है?
बल्कि समस्या तो अमीरी
व यह दौलत का नाजायज़ बँटवारा है!
समस्या इस अमीरी की रक्षा,
करने वाले कानून और इस अमीरी की
रक्षा करने वाली सरकार है!

यही वह राजनैतिक व्यवस्था है!
जिसे बदले बिना दुनिया से,
भूख, नंगापन और बेघरी नहीं जायेगी!
आप इस क्रूर व्यवस्था को समझ न सकें!
इसलिए आपके स्कूल!
आपको इस व्यवस्था की तारीफ के
गुणगान करना सिखाते हैं!

आपका धर्म!
इस पर सवाल खड़े करना नहीं सिखाता!
और आप इस दुनिया को
सुंदर बनाने के अपने असली धर्म से,
वंचित रहकर ही!
अपनी उम्र पूरी करके
इस दुनिया से चले जाते हैं!
और यह क्रूर व्यवस्था!
ऐसे ही चलती रहती है!

इसे समझिए!
इस पर सवाल उठाइये!
ताकि दुनिया को बदलने की
संभावना मज़बूत हो सके!
इस दुनिया को बदलने का वक्त अभी है!

जागो! भूखो, वंचितो, मेहनतकशो
यहाँ आपका भी पूरा हक़ है
आपकी ग़ुलामी की ज़ंजीरें
आपको ही मिलकर तोड़नी होंगी।


मैं बोल सकती हूँ पर / प्रबोध सिन्हा

मैं बोल सकती हूँ
पर
जब बोलना चाहती हूँ
तो सभी
मेरे शरीर को जकड़
लेते हैं
मैं बोल सकती हूँ
पर उन्हें
मेरी छाती
अच्छी लगती है
इसलिए वो
मुझे जकड़ लेते हैं
मेरा लड़की होना
उन्हें बहुत
खटकता है
मेरे शरीर के
उभार
उनको
मचल देते हैं
इसलिए
वो मेरे स्पर्श को
लगातार आतुर रहते हैं
और
एक दिन अकेला पाकर
मेरे साथ बलात्कार
कर बैठते हैं
मैं बोल तो सकती हूँ पर
मेरे ओठ को
सुई से सील दिए हैं
पर मैं भी
अपनी शक्ति
समेट रही हूँ
बहुत सारे
खाद पानी
इसी पृथ्वी से
सोख रही हूँ
कि जैसे
स्याही को सोखता
ये सोखता कागज
मैं सोखता कागज
ही होना चाहती हूँ
फिर एक दिन
मैं सारी स्याही
और
गर्म लावा को
तुम सब पर उड़ेल
दूँगी
तुमको तड़पते हुए
देखते हुए मेरे
शरीर के स्पर्शित भाग
बहुत सुकून पाएंगे
देखना एक दिन
मैं ऐसा ही करूंगी।
अब मैं बोलूँगी
जरूर
यह मेरे
जिन्दा होने का सबूत भी है
और मेरी ताकत भी।


सपने / रूपाली

मेरे सपने मेरे प्रिय संगी हैं
इनके गरुण पंखों पर सवार हो
कर आती हूँ
कहाँ कहाँ की अगम्य यात्राएँ
गहरी उदासी में भी
बुझने नहीं देते ये उम्मीद की लौ
इनका हाथ थाम पार किये हैं मैंने
बीहड़ लम्बे रास्ते
रोका-टोका भी इन्होंने
मुझे वक़्त -बेवक़्त
सच्चे शुभचिंतक की तरह
लेकिन नहीं पहनाई कभी सुनहरी बेड़ियाँ
सुरक्षा के नाम पर
नहीं खड़ी कीं कभी मेरे लिए
ऊँची अभेद्य पिरमिडें
ये मुझे जीवन देते हैं
गति देते हैं
ऊर्जा देते हैं
मेरे कानों में अक्सर धीमे से कहते हैं
उड़ो आकाश तुम्हारा है
सच करो हमें
बसाओ उन सबकी आँखों में
जिनकी आँखों ने देखे नहीं कभी सपने।


ग़ज़ल / महेन्द्र नेह

बातें कड़वी बहुत हमारी
किन्तु समय के सच की मारी

कैसे कह दें अमन -चैन है
खून से तर है दुनिया सारी

कहीं पे छप्पन -भोग सजे हैं
कहीं पे भूखी मुनिया प्यारी

आदमखोर हुआ है मौसम
जाने कब हो किस की बारी

टेर रहे हैं दारो-रसन* अब
हमने भी कर ली तैयारी

जीना है तो मरना सीखें
बदलेगी ये ऋतु हत्यारी

(*फांसी का तख्ता और रस्सी)


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