कविताएँ इस सप्ताह : बलात्कार का देश !

बलात्कार का देश / मीना कंडासामी

हाथरस में पुलिस ने बलात्कार पीड़ित का घर बैरिकेड कर दिया है,
उसकी लाश हाईजैक कर ली है,
उसकी माँ की चीखें अनसुनी कर,
एक हत्यारी रात को उसमें आग लगा दी है।
जिस देश मे दलित राज नहीं कर सकते,
वहाँ वे न आक्रोश व्यक्त कर सकते हैं न शोक।
यह पहले भी हुआ है, आगे भी होता रहेगा।

आग को क्या-क्या याद है? सतियों की चीखें
जो उनके पतियों की चिंताओं पर घसीट ले जाई गई थीं;
और चीखें उन विवाहताओं की
जो जला दी गईं;
जाति की सलीब पर शहीद कर दिए गए प्रेमियों की चीत्कार,
बलात्कृत स्त्रियों की काटी गई ज़ुबानों से निकली पुकार।
यह पहले भी हुआ है, आगे भी होता रहेगा।

मनु ने कभी कहा था, तो उसके चुगद चेले आज दोहराते हैं:
सभी स्त्रियाँ वैश्या हैं, सभी स्त्रियाँ नीच हैं;
स्त्रियाँ बस सेक्स चाहती हैं, वह बलात्कार की पात्र हैं।
मनु ने पुरुषों को लाइसेंस प्लेट दे रखी है, बलात्कार का शासनादेश।
यह पहले भी हुआ है, आगे भी होता रहेगा।

यह पहले भी हुआ है, आगे भी होता रहेगा।
सनातन, देश का एकमात्र कानून जो कायम है
सनातन, जहाँ कभी भी कुछ नहीं बदलेगा।
सदा से पीड़िता को दोषी और वैश्या बताने का शासनादेश
बलात्कारी को बचाने वाला राज्य, जाति को झुठलाने वाला चौथा खंबा।
यह पहले भी हुआ है, आगे भी होता रहेगा।

अनुवाद: प्योली स्वातिजा


बेटी थी चुपचाप जल गई / अमित कुमार आर्य

बेटी थी चुपचाप जल गई,
गौ होती कोहराम मचाती.
जगह जगह दंगे फ़ैलाती,
जगह जगह उत्पात मचाती.

कितनों की वर्दी छिनती औ
कितनों पै रासुका लगाती?
डीएम,सीएम, मंत्री, संत्री,
डीजीपी तक गस्त कराती.

गोरों से हो मुक्त मगन थे,
गैरों ने हमको भरमाया.
झूंठ और उन्माद सहारे,
सत्ता पर अधिकार जमाया.

उनके बेटी नहीं अत: वे,
दर्द बेटियों का क्या जानें.
सत्ता के खातिर आये हैं,
मर्यादा को क्यों पहचानें?

दलित वर्ग की जगह कहीं
सभ्रांत वर्ग की बेटी होती.
और भूल से भी दलितों ने
इसी तरह से रौंदी होती.

तो शासन हाथरस प्रशासन
उल्टी गंगा नहीं बहाते.
परिजन को बंधन में करके
रात्रि में ना उसे जलाते.


दलित नौजवानों से / राजाराम चौधरी

बेबस माँ बाप की
बेबस बिटिया
हो गई शिकार
सवर्ण दरिंदो की

तुम तो फेसबुक पर
आक्रोश जताते रहे
पर लाचार माँ बाप
अपनी बेटी को
आखिरी बिदाई की
ओढ़नी भी न उढ़ा सके

दलित राष्ट्रपति और सांसदों ने
उफ तक भी न की

दलित साहित्यकार
विमर्शकार
जमीन पर तो क्या दीखते
फेसबुक पर भी नजर न आए

भीम आर्मी
व्यस्त चुनावी गोटियों में
ढंग से गरज भी न सकी

मायावती ने मरियल सा
बयान भर दिया
काँग्रेस सपा ने
तुम्हारे वोटों की लालच में
मोमबत्तियाँ जलाईं

प्रगतिशीलों ने
दलित व स्त्री के
समर्थन में आवाजें बुलंद की

सोचो
तु्हें सोचना ही होगा
दरिंदो से लोहा कौन लेगा
बेबस दलितों को
लड़ने का साहस कौन देगा
तुम सिर्फ तुम
उठा सकते हो यह जिम्मेदारी


बलात्कार / हूबनाथ

एक शब्द
बिना अर्थ
बेजान मृत देह-सा
भयावह उपेक्षित

एक अहसास
तेज़ाब – सा खौलता
देह को चीर कर
रूह तक उतरता

एक बहस
नपुंसक सत्ता के
पाखंडी अहं से उपजी
घिनौनी दलीलों भरा

एक जिन्स
उत्तेजक दृश्यों
वीभत्स भंगिमाओं
की आढ़त पर विज्ञापित

एक बदनुमा दाग़
मज़लूम के नंगे सीने पर
जिसकी बार बार नुमाइश
लंपट न्याय की चौखट पर

एक अभिशाप
मज़लूम के कमज़ोर
असहाय अस्तित्व पर
जन्म से मंडराती

एक पुराना घाव
मवादों से भरा
बजबजाता दुर्गंधित
पोथियों से ढंका छिपा

एक विषय
शोध की
अपार संभावनाओं भरा
अंततः निष्कर्षहीन

एक सज़ा
औरत होने के शाप की
पुरुष जनने के पाप की
सृष्टि के आरंभ से


हम औरतें हमेशा से / अमिता शीरीं

मुलक्करम (स्तन कर) चुकाती आई हैं
हम औरतें हमेशा से.
जिन स्तनों से कभी दूध पिया
इन कापुरूषों ने
उसी को मसलते हैं
भरी दुपहरी में.

नहीं सूझती कोई भी गाली
सिवाय ‘पुरुष’ के
नफ़रत और गुस्से से भर गए हैं हम.
अरे कापुरूष पयोधर हैं हम
दूध पिलाया है हमने तुम्हें कलेजे से लगा के.
सिर्फ़ सोच लेते इतना ही तो
श्रद्धा से सिर झुका देते
मां हैं हम तुम्हारी.

हमारी योनि को चीर कर
बाहर निकले हो तुम
जैसे धरती को चीर कर
निकलता है पौधा कोई
फैलता है फूलता है
हमारे प्राण खींच कर ज़िंदा रहता है.
नहीं बख्शा तुमने हमारी योनि को भी कभी.

अरे बख़्श देते अपनी बेटी को
जिसे अभी बड़ा होना था
मां बनने से पहले.
नहीं पता था उसे
इस तरह चुकाना होगा
उसे अपने स्तनों का कर.
इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में भी.

नहीं पढ़ाया जाता औरतों के संघर्ष का
इतिहास कभी
पर बताऊं तुम्हें कि
उन शूद्र औरतों ने लड़ी थी
अट्ठारहवीं शताब्दी में अपने स्वाभिमान की लड़ाई
लड़ती रही थीं वे तब तक जब तक जीत नहीं गई.

बिटिया, आज भी जब तुम लड़ रही हो
अपने अधिकार की लड़ाई
तो शायद तुम जानती भी नहीं कि
जिस लड़ाई को जीत लिया था हमारी मां की मां ने
वह आज भी जारी है.
अपने खुले सीने को ढकने के हक की
लड़ाई लड़ी थी उन्होंने.
आज उन्हीं सीनों को फिर से ऊघाड़ दिया है
बाज़ार ने.
और वसूल रहा है कीमत कई गुनी ज़्यादा.

आज भी चुका रहे हैं हम
अपने स्तनों का कर
कभी खुले तौर पर तो कभी
सात तह को चीरती
उन लोलुप निगाहों को.

चुका रहे हैं हम आज
न सिर्फ़ स्तनों का कर
बल्कि चुकाना पड़ता है हमें
अपने समूचे वजूद का कर.
क़दम क़दम पर.
हम हर पल चुका रहे हैं मोल
अपनी आज़ादी का.
अपने सपनों का
अपने औरत होने का.

घृणा से लबालब भरे हुए हैं हम.
हमारी घृणा का तेजाब
विद्रूप कर देगा एक दिन तुम्हारी
वासना को.
पहले भी हमने बनाया है तुम्हें सभ्य
आज एक बार फिर तुम्हें
इंसान बनाने की जिम्मदारी
हमारे कंधों पर ही आन पड़ी है.



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