सप्ताह की कविता : हिंदी दिवस विशेष !
मातृभाषा प्रेम पर दोहे / भारतेंदु हरिश्चंद्र
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।
अंग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन
पै निज भाषा-ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन।
उन्नति पूरी है तबहिं जब घर उन्नति होय
निज शरीर उन्नति किये, रहत मूढ़ सब कोय।
निज भाषा उन्नति बिना, कबहुं न ह्यैहैं सोय
लाख उपाय अनेक यों भले करे किन कोय।
इक भाषा इक जीव इक मति सब घर के लोग
तबै बनत है सबन सों, मिटत मूढ़ता सोग।
और एक अति लाभ यह, या में प्रगट लखात
निज भाषा में कीजिए, जो विद्या की बात।
तेहि सुनि पावै लाभ सब, बात सुनै जो कोय
यह गुन भाषा और महं, कबहूं नाहीं होय।
विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार
सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार।
भारत में सब भिन्न अति, ताहीं सों उत्पात
विविध देस मतहू विविध, भाषा विविध लखात।
सब मिल तासों छांड़ि कै, दूजे और उपाय
उन्नति भाषा की करहु, अहो भ्रातगन आय।
बैलपूजा / हूबनाथ
साल में
एक दिन पूजे जाते हैं बैल
नहला धुला कर
औक़ात भर
सजाए जाते हैं बैल
आरती उतारी जाती है
पकवान खिलाए जाते हैं
निकाली जाती हैं झांकियां
पूरे उत्सव के साथ
पूरा परिवार
पूरा गांव जवार
हर्षोल्लास से भरा
बरस भर की ममता
एक दिन में लुटा दी जाती है
बैल भी अचरज में पड़ा
जब तक समझ पाता
कि शाम हो जाती है
थके-हारे लोग
करते हैं चर्चा रात भर
ट्रैक्टर के ज़माने में
किसी काम के नहीं रहे
न घर के न घाट के
फिर भी एक दिन के लिए
पूजे जाते हैं बैल
जिनके अपने नहीं
वे दूसरों के ही पूज लेते हैं
उसके बाद
आवारा निठल्ले बेसहारा
गली मुहल्ले सड़कों पर
मारे मारे फिरते हैं
दुर्गंध भरे गोबर से
जीना मुहाल
झुंड के झुंड भटकते हैं
सांड तो बिना किसी दिन
पूजे जाते हैं मारे डर के
पर बैल
जो कभी गाढ़े के साथी थे
शक्ति थे सामर्थ्य थे संबल थे
अब सिर्फ बोझ हैं
जिन्हें ढोना भर है
जिनके लिए रोना भर है
वह भी सिर्फ एक दिन
बाकी साल भर के लिए तो
ट्रैक्टर है, थ्रेशर है, मशीन है
सबके पास यह भी कहां
कुछ लोगों के लिए आज भी
बैल ही सब कुछ है
वे ही बचाए हुए हैं परंपरा
परंपराएं हमेशा
कमज़ोर कंधों
असहाय हाथों के भरोसे ही
बची रहती हैं
वरना क़त्लगाहों में
जानवरों की भीड़
कोई कम तो नहीं
(सूचना- इस कविता का हिंदी दिवस से कोई संबंध नहीं है।)