इस सप्ताह की कविताएं : हाथ !

तुम्हारे हाथ और उनके झूठ के बारे में / नाज़िम हिकमत

तुम्हारे हाथ
पत्थरों की तरह संगीन.
जेल में गाए गए तमाम गीतों की तरह मनहूस,
बोझ ढोनेवाले जानवरों की तरह अनाड़ी, सख़्त
और भूखे बच्चों के चेहरों की तरह नाराज़ हैं।

मधुमक्खियों की तरह कुशल और सहनशील,
दूध से भरी छातियों की तरह भरपूर,
कुदरत की तरह दिलेर,
और अपनी खुरदरी खाल में दोस्ताना अहसास छुपाए
तुम्हारे हाथ।

यह दुनिया बैल के सींग पर नहीं टिकी है,
तुम्हारे हाथों ने सम्हाल रखी है यह दुनिया।

और लोगो, मेरे लोगो,
वे तुम्हें झूठ परोसते रहते हैं,
जबकि तुम भूख से मर रहे हो,
तुम्हें गोस्त और रोटी खिलाने की ज़रूरत है.
और सफ़ेद कपड़े से ढकी मेज़ पर एक बार भी
भर पेट खाए बिना ही
तुम छोड़ देते हो यह दुनिया
जिसकी हर डाली पर लदे हुए हैं
बेशुमार फल।

लोगो, मेरे लोगो,
खासकर एशिया के लोगो, अफ़्रीका के लोगो,
पश्चिमी एशिया, मध्य एशिया, प्रशान्त द्वीप के लोगो,
यानी धरती के सत्तर फ़ीसदी लोगो,

अपने हाथों की तरह तुम बूढ़े और भुलक्कड़ हो,
बेकल, अनोखे और जवान हो अपने हाथों की तरह।

लोगो, मेरे लोगो,
मेरे अमरीकी लोगो, मेरे यूरोपीय लोगो,
तुम फुरतीले, साहसी और लापरवाह हो अपने हाथों की तरह,
अपने हाथों की तरह ज़ल्दी राजी हो जानेवाले,
आसान है तुमसे पीछा छुड़ाना….

लोगो, मेरे लोगो,
अगर टी० वी० और रेडियो झूठ बोलते हैं,
अगर किताबें झूठ बोलती हैं,
अगर दीवार के पोस्टर और अख़बारों के इश्तहार झूठ बोलते हैं,
अगर परदे पर लड़कियों की नंगी टाँगे झूठ बोलती हैं,
अगर प्रार्थनाएँ झूठ बोलती हैं,
अगर लोरियाँ झूठ बोलती हैं,
अगर सपने झूठ बोलते हैं,
अगर शराबख़ाने का साज़िन्दा झूठ बोलता है,
अगर मायूसी भरी रात में चाँदनी झूठ बोलती है,
अगर अल्फाज़ झूठ बोलते हैं
अगर रंग झूठ बोलते हैं,
अगर आवाज़ें झूठ बोलती हैं,
अगर तुम्हारे हाथों को छोड़कर,
तुम्हारे हाथों के सिवा
हर चीज़ और हर शख़्स झूठ बोलता है,
तो यह सारी कवायद तुम्हारे हाथों को
मिट्टी के लोंदे की तरह फ़रमाबरदार,
अँधेरे की तरह अन्धा,
और कुत्ते की तरह भोंदू बना देने के लिए है,
ताकि तुम्हारे हाथ घूँसों में,
बगावत में तब्दील न हो जाएँ,
और इसलिए कि इस नाशवान, मगर जीने लायक दुनिया में
जहाँ हम मेहमान हैं इतने कम समय के,
सौदागरों की यह हुकूमत,
यह ज़ुल्म कहीं ख़त्म न हो जाए…


हाथ / दिगंबर

अगले दोनों पैरों का हाथ में तब्दील होना
बन्दर से आदमी बनने का सबसे बड़ा हासिल है

सहस्राब्दियों के श्रम से बने हाथों ने भरपूर श्रम किया और इस दुनिया में चमत्कारों की झड़ी लगा दी

हाथ बना तो दुनिया के तमाम जरूरी सामान बने, हैरतअंगेज नमूने बने, मसलन गोथिक गिरजा, ताजमहल, तंजौर मन्दिर, स्वर्ण मन्दिर, जामा मस्जिद, लक्ष्मण झूला, शाहदरा का ओवरब्रिज वगैरह…

फिर हाथ पर कहावतें बन सकें, ऐसे भी कारनामे हुए क्योंकि हाथ के तार दिल-दिमाग से जुड़े

हाथ की सफाई सिर्फ खाने से पहले अंचाना नहीं, लोगों को सफाई से ठगना हुआ

हाथ साफ करनेवाले मालामाल हुए

समाज ने उनको हाथोंहाथ लिया

जो हाथ धोकर पीछे पड़े रहे उनके दोनों हाथों में लड्डू आया

हाथ पर हाथ धरे बैठे लोग हाथ मलते रहे

कुछ लोग हाथ की लकीरों पर भरोसा किये कुछ हाथ की करामात पर

कुछ ने कठिन काम में हाथ डाला, कुछ ने हाथ खींच लिया

जब हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा था तब भी कुछ लोग हाथों में हाथ डाले बढ़ते रहे

कुछ ने हाथ पकड़ा तो जिन्दगी भर नहीं छोड़ा कुछ ऐसे छिटके की फिर हाथ नहीं आये

कुछ इस भरम में रहे कि हाथ छूटे भी तो रिश्ते बनाये रखने में कोई हर्ज नहीं

अब तो ये हाल है कि रंगे हाथ पकड़े जानेवालों को भी कोई हाथ नहीं लगाता

हमारे दौर में हाथ कंगन के लिए आरसी माँगती अदालतें हैं जहाँ वकीलों के हाथ गरम करने के बावजूद इंसाफ हाथ से फिसल जाता है

कहने को बहुत है सुननेवालों के हाथ तंग हैं

लगे हाथ प्रिय कवि पाश की बात भी दुहरा दूँ कि हाथ सिर्फ श्रम के लिए ही नहीं होते, जालिम हाथों को मरोड़ने के लिए भी होते हैं


आखिर कब तक और क्यों ? / रानी कुमारी

सुनो !
अपने पसीने की ताप से
पत्थरों को पिघलाने वालों
फौलादी हाथों से
पहाड़ों का सीना विदीर्ण करने वालों
समुंदर-सी गहरी वेदना को
अपने अंतस में समेटने वालों
सम्पूर्ण धरणी की क्षेत्रफल को
अपने कदमों से नापने वालों।

आखिर कब तक तुम
सिलते रहोगे अपने संताप को
शांत करते रहोगे ठंडी आहों से
अपने अंदर उठे आक्रोश के भाप को
कब तक दबाओगे
भूख की दहकती आग पर
उबलते खून के उबाल को?

क्यों नहीं फड़कती तुम्हारी भुजाएं
अपने अधिकारों को छीनने के लिए
कब खुलेगी जुबां तुम्हारी
कब चीखोगे तुम
कब चिल्लाओगे
करोगे अपने हक और हित की बात
बांधकर मुट्ठी बदलोगे उद्घोष में
अपने विलाप को ?

कब तक अलापते रहोगे
अपनी गरीबी, अपनी बदहाली
अपनी बेबसी के राग को
कब महसूस करोगे तुम
शब्दों के ताप को ?



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