अब कोरोना टेस्ट का भी खर्च मज़दूरों से ही वसूला जाएगा

उत्तराखंड में जारी सरकारी आदेशों से मज़दूरों पर एक और बोझ

जी हाँ! यही होगा! कोरोना/लॉकडाउन का बोझ कितने स्तरों पर मज़दूरों के ऊपर डाला जा रहा है, इसके उदाहरण तरह-तरह से सरकारी आदेशों में देखने को मिल रहे हैं। उत्तराखंड में नए आदेशों में अब उद्योगों में कार्यरत कर्मियों की निजी व्यय पर स्क्रीनिंग व सैम्पलिंग कराने की बाध्यता होगी।

संक्रमण के बढ़ते मामलों के बीच विगत दिनों उत्तराखंड के उधम सिंह नगर जिले में पहले काशीपुर फिर रुद्रपुर, बाजपुर आदि क्षेत्रों में लॉकडाउन की घोषणा हुई है और इस दौरान उद्योगों को चलने की खुली छूट के साथ श्रमिकों के ऊपर नए बोझ का आदेश जारी हो गया।

यह है फरमान…

जिला प्रशासन द्वारा जारी आदेश में लिखा है कि “…इस अवधि में उद्योग इकाइयों के प्रबंधन द्वारा परिसर के सैनिटाइजेशन का कार्य करने के साथ-साथ इकाई में कार्यरत कर्मियों की निजी व्यय पर स्क्रीनिंग एवं सैम्पलिंग कराई जानी अनिवार्य होगी।”

स्पष्ट है कि मज़दूरों के लिए ‘स्क्रीनिंग व सैम्पलिंग’ करना अनिवार्य भी है और खर्च भी खुद उठाना होगा। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि उत्तराखंड में सरकारी अस्पतालों के खर्च पूरे देश मे सबसे महँगा है, जहाँ प्रति वर्ष 10 फीसदी की बृद्धि होती है।

सम्पूर्ण लॉकडाउन, लेकिन कारखाने चलेंगे!

इलाकों में सम्पूर्ण लॉकडाउन के बावजूद सबसे अधिक भीड़ वाली जगह, सबसे संक्रमित होने के खतरे वाली जगह, कारखानों में उत्पादन सुचारू रखने के आदेश सर्वोपरि हैं।

उप जिलाधिकारी रुद्रपुर व काशीपुर द्वारा जारी लॉकडाउन के आदेश में लिखा हुआ है कि “लॉकडाउन अवधि में औद्योगिक इकाइयों द्वारा परिसर में ही कर्मचारियों के रुकने की व्यवस्था की जानी होगी अथवा इकाइयों द्वारा निर्धारित वाहनों से सामाजिक दूरी के सिद्धांत का अनुपालन करते हुए कर्मचारियों को लाने एवं ले जाने की अनुमति होगी। इस हेतु निर्धारित वाहनों के रूट तथा कर्मचारियों का विवरण संबंधित इकाई द्वारा अग्रिम रूप से प्रभारी निरीक्षक कोतवाली को अनिवार्य रूप से उपलब्ध कराना होगा।”

हालांकि कंपनियों में रुकने की बात तो दूर, संक्रमण के बहाने के कंपनियों में कैंटीन की सुविधा तक बंद हो चुकी है। ज्यादातर कंपनियों में परिवहन सुविधा भी ना होने से कंपनियाँ इस ज़िम्मेदारी से भी मुक्त हैं।

संकट का बोझ मज़दूरों पर

पूरे देश में कोविड-19 का प्रकोप जिस तरीके से बढ़ रहा है और पूरे समाज में एक भय का माहौल बना है, उस का सबसे बुरा असर मेहनतकश मज़दूर आबादी के ऊपर पड़ रहा है। वेतन कटौती से लेकर मनमाने तरीके से तमाम तरह की शर्तें थोपने और केंद्र से लेकर राज्य सरकारों द्वारा श्रम कानूनी अधिकारों को सीमित कर देने का खेल जारी है।

इसी बीच सरकारी अस्पतालों की स्वास्थ्य सेवाएं और ज्यादा बदहाल हो गई और कारपोरेट अस्पतालों कि अंधाधुन लूट काफी बढ़ गई है। इसका भी बोझ मेहनतकश मजदूरों को ही झेलना पड़ रहा है।

हालत ये हैं कि अब जहाँ भी कहीं इलाका आधारित लॉकडाउन की घोषणाएं हो रही हैं, वहाँ उद्योगों को संचालित करने की प्राथमिकता दी जाती है। लेकिन मज़दूरों की सुरक्षा की कोई बात नहीं होती। मज़दूर कैसे आएंगे जाएंगे इसकी कोई चिंता नहीं है।

स्थिति यह है कि जो मज़दूर अपने निजी वाहन से आते थे उनके ऊपर पेट्रोल की बढ़ी कीमतों का बोझ आ गया और जो सार्वजनिक परिवहन से आते थे उनके किराए में दूने की वृद्धि हो गई। ऑटो टेंपो ₹25 का किराया ₹50 हो गया। वेतन घट रहा है और खर्चे बढ़ रहे हैं। ऊपर से अब टेस्ट का भी बाध्यकारी हो गया।

यही नहीं, बाहरी राज्यों से आने पर संस्थागत क्वारन्टीन का खर्च भी वसूल जाने लगा है।

ऐसे में मजदूरों के हालात और भी ज्यादा बदतर हो गए हैं।

दूसरी ओर, केंद्र से लेकर राज्य सरकारें मालिकों को राहत पैकेज के साथ तमाम तरीके की सुविधाएं कर रही हैं।

सरकारों की पूँजीपतियों के प्रति पक्षधरता साफ है!

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