घोषित आपातकाल (1975) और अघोषित आपातकाल का यह दौर

ज़ुल्ल्मातों के दौर में…

25 जून 1975, भारत की आजादी के बाद के इतिहास का अहम काला पन्ना रहा है, जब देश की जनता के पहले से ही सीमित जनतांत्रिक अधिकारों को एक झटके में समाप्त कर दिया गया था। आज बगैर आपातकाल के जनतान्त्रिक आवाजों को कुचलना पहले से भयावह स्थिति में है…

पूरे 45 बरस (1975-2020) हो गए जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अपनी सत्ता की सलामती के लिए आपातकाल लागू कर समूचे देश को कैदखाने में तब्दील कर दिया था। विपक्षी दलों के तमाम नेता और कार्यकर्ता जेलों में ठूंस दिए गए थे। सेंसरशिप लागू कर अखबारों की आज़ादी का गला घोंट दिया गया था। संसद, न्यायपालिका, कार्यपालिका आदि सभी संवैधानिक संस्थाएं इंदिरा गांधी के रसोईघर में तब्दील हो चुकी थीं।

गहराते संकट और विकट आंदोलनों का वह दौर था

आज़ादी के लंबे संघर्षों के बाद अंग्रेजी गुलामी को समाप्त करके 1947 में देश के नए शासक दिल्ली की गद्दी पर बैठे थे। लेकिन जल्द ही देश की मेहनतकश व्यापक आवाम को यह समझ में आने लग गया था कि जिस आजादी का सपना देख कर शहीदे आजम भगत सिंह जैसे पुरखों ने कुर्बानिया दी थी, दरअसल वह आजादी नहीं मिली। असल आज़ादी देश के मुनाफाखोर ज़मात को मिली है।

साठ के दशक तक आते-आते देश की जनता सड़कों पर निकल रही थी। यह वह दौर था जब छात्रों के कई व्यापक आंदोलन हुए, रेलवे की सबसे ऐतिहासिक हड़ताल हुई थी। जगह-जगह मज़दूर, किसान, आम जनता लड़ रही थी। नक्सलबाड़ी आंदोलन ने कुछ भटकावों के बावजूद आजादी के नए सपनों के साथ संघर्ष के नए दौर की शुरुआत कर दी थी। पूरे देश में उथल-पुथल मचा हुआ था।

और घोषित हो गया आपातकाल

ठीक ऐसे समय में इंदिरा गाँधी के नेतृत्व वाली देश की तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने अचानक 25 जून 1975 की रात 12:00 बजे से पूरे देश में आपातकाल की घोषणा कर दी। सभी प्रकार के विरोध को दरकिनार कर दिया गया था, विरोध के हर स्वर को कुचल दिया गया था। बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियां हुईं। सत्ता विरोधी हर शख्सियत को जेल की कालकोठरी में ठूंस दिया गया।

“दूसरी आज़ादी” से भी मोहभंग

लेकिन यह काला अंधेरा दौर महज 21 महीने चला और जनता ने इंदिरा सरकार को उठाकर किनारे लगा दिया। देश की जनता में एक नया उत्साह था। मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी, जिसमें दक्षिणपंथी जनसंघ से लेकर ज्यादातर शक्तियां शामिल थी।

लेकिन जनता को जल्द ही समझ में आ गया कि दूसरी आजादी का सपना लेकर यह जो सरकार बनी है, दरअसल वह भी मुनाफाखोर पूँजीपतियों के ही हित को साधने के लिए दमन का हथियार इस्तेमाल कर रही हैं।

आपातकाल के दौर में मीसा कानून लगा था। 77 में मीसा तो खत्म हो गया, लेकिन नए सत्ताधारियों ने मिनी मीसा लागू कर दिया। और तब से लेकर आज तक कदम ब कदम एक-एक करके लंबे संघर्षों से हासिल जनता के सीमित जनतांत्रिक अधिकार भी छिनते चले गए।

आज का दौर ज्यादा भयावह

आज देश की जनता उस काले अंधेरे तौर से भी ज्यादा खतरनाक और भयावह दौर में खड़ी है। आज घोषित तौर पर तो कहीं आपातकाल नहीं है, लेकिन अघोषित आपातकाल की बर्बर शक्तियां हावी है। असहमति की आवाजों को बेरहमी से चुप करा देने या फर्जी देशभक्ति के शोर में डूबो देने की कोशिशें साफ नजर आ रही हैं।

मौजूदा समय की अगर हम बात करें तो भाजपा की सत्ताधारी पार्टी सरकार के खिलाफ किसी भी विरोध के स्वर को जितनी बर्बरता और निर्ममता से कुचला जा रहा है, उसके उदाहरण तमाम तमाम मानवाधिकार व जनवादी अधिकार कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारियां है। गौतम नौलखा, सुधा भारद्वाज, वरवरा राव, अरुण फरेरा, वरनन गोंसाल्विस, आनंद तेलतुम्बड़े जैसे लोग जेल की कालकोठरियों में बंद हैं।

पिछले दिनों इसी संविधान की विरुद्ध बनाए गए नागरिकता संशोधन कानून सीएए, एनआरसी, एनपीआर के खिलाफ जिन जनवादी शक्तियों, छात्र-छात्राओं ने आवाज उठाई थी, उन्हें बड़ी बेरहमी के साथ कुचला जा रहा है, उन्हें जेलों की कलकोठरियों में डाला जा रहा है, उनके ऊपर खतरनाक धाराएं लगाई जा रही है।

आपातकाल में तो महज एक मीसा कानून था। आज राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून, यूएपीए जैसे न जाने कितने कानून बनाए जा चुके हैं, जो पीड़ित के बचाव के रास्ते तक बंद कर चुके हैं।

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कोविड-19 के बहाने निरंकुशतंत्र हावी

कोरोना/लॉकडाउन ने सरकार की मंशा और उसकी पूरी कार्यप्रणाली को उजागर कर के रख दिया है। आज जिस तरीके से धरना प्रदर्शन तो दूर की बात है, आम जनता की आवाजाही तक पर प्रतिबंध लगा दिया गया है, सरकार के विरुद्ध बोलना ही देशद्रोह बन जा रहा है, अघोषित आपातकाल की बानगी मात्र है। अभी आज यूपी की योगी सरकार ने पेट्रोल और डीजल की बढ़ी कीमतों का विरोध कर रहे इसी सियासी जमात की दूसरी पार्टी कांग्रेस के लोगों की गिरफ्तारी की है, संकेत मात्र हैं।

इंदिरा गांधी ने जिस बर्बरता की मिसाल कायम की थी, मोदी सरकार की बर्बरता के सामने वह कुछ भी और कहीं भी नहीं ठहरती है। देश में प्रतिरोध की सारी शक्तियों को जिस तरीके से साम, दाम, दंड, भेद हर तरीके से कुचल जा रहा है, वह दुनिया के तमाम तानाशाहों की बर्बरता को पीछे छोड़ देगा!

महामारी के संकट काल का फायदा उठाकर सांप्रदायिक नागरिकता (संशोधन) कानून (सीएए) विरोधी आंदोलन के कार्यकर्ताओं को राज्य प्रायोजित दिल्ली की सांप्रदायिक हिंसा के फर्जी आरोपों में बंद किया जा रहा है। दिल्ली विश्वविद्यालय, जेएनयू और जामिया के तमाम छात्र छात्राओं पर आपातकाल के कुख्यात कानून मीसा के समतुल्य यूएपीए जैसे काले कानूनों के तहत वारंट जारी किये जा रहे हैं।

जामिया की गर्भवती शोध छात्रा सफूरा जरगर को दिल्ली उच्च न्यायालय ने “मानवीय आधार पर” बमुश्किल हाल में ही जमानत दी। स्त्री अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाले संगठन पिजरा तोड़ की कार्यकर्ताओं, देवांगना कलीता और नताशा नरवाल को य़ूएपीए में गिरफ्तार कर लिया गया है।

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इस अघोषित आपात काल की ही तरह साढ़े चार दशक पहले के घोषित आपात काल में भी गिरफ्तार करने बाद फर्जी आरोप गढ़े जाते थे।

मिडिया का समर्पण पहले से ज्यादा खतरानक

1975 में जब आपातकाल की घोषणा हुई थी तो देश की मुख्यधारा की मीडिया का एक हिस्सा विरोध में खड़ा था। उसने अपने विरोध के नए तरीके निकाले थे। उस वक्त कुछ अखबारों ने संपादकीय का पन्ना सादा छोड़ दिया था, तो कुछ ने अखबार के निचले हिस्से में काली पट्टी लगाई थी।

आज इस अघोषित आपातकाल के दौर में है तो मुख्यधारा की मीडिया का कोई भी हिस्सा ऐसा करने का साहस करने की स्थिति में ही नहीं है। यह मीडिया पूरी तरीके से घुटने टेक चुकी है।

अदालतों के फैसले सत्ता की मंशा से प्रेरित

ज्यादातर मामलों में तो अदालतों के फैसले भी सरकार की मंशा के मुताबिक ही रहे हैं। यानी व्यावहारिक तौर पर भी न्यायपालिका सरकार के प्रति प्रतिबद्ध हो चुकी है।

देश की सर्वोच्च अदालत तक, जहां एक तरफ धार्मिक जुलूसों-आयोजनों पर तो भावुकता पूर्ण टिप्पणी करती है, सत्ता संरक्षित संगीन अपराधियों को सीधे बरी कर दे रही है, वहीं हक के लिए उठे हुए किसी विवाद को सुनने तक से इंकार कर देती है।

सूचना का अधिकार लगभग बेअसर बना दिया गया है। सीबीआई, आयकर विभाग, प्रवर्तन निदेशालय जैसी एजेंसियां विपक्षी नेताओं और सरकार से असहमत सामाजिक कार्यकर्ताओं, लेखकों और बुद्धिजीवियों को परेशान करने का औजार बन गई हैं।

सत्ता की निरंकुशता आज पूरी तरीके से खुलकर सामने आ चुकी है। जनता की हर गतिविधि पर नजर रखने के लिए आधार कार्ड से लेकर आरोग्य सेतु तक तरह-तरह के निजता विरोधी बाध्यकारी यंत्रों से बांध दिया है।

गहन है यह अंधकारा

देश की स्थिति कितनी भयावह है- महंगाई, बेरोजगारी, छँटनी, बंदी जितनी तेजी से बढ़ी व बढ़ रही है, लंबे संघर्षों के दौरान हासिल अधिकारों को जितनी तेजी से कुचला जा रहा है, जनता के खून पसीने से खड़े किए गए उद्यमों को जिस तरीके से मुनाफाखोरों को बेचा जा रहा है, अमीरी-गरीबी की खाई जितनी तेजी से बढ़ती जा रही है; दमन तंत्र उतना ही मजबूत होता जा रहा है।

इसलिए आज चुनौती ज्यादा विकट है। और इस चुनौती से जूझने के लिए सभी जनतांत्रिक शक्तियों को, मेहनतकश अवाम को, संकटग्रस्त आम जनता को और न्याय प्रिय नागरिकों को आगे आकर इस काले अंधेरे दौर को खत्म करने के लिए योजनाबद्ध और गोलबंद होना पड़ेगा!

(लेख कोविड पाबंदियों के बीच, जून 2020 में लिखा गया)

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