झूठ कैसे बन जाता है सच

विभ्रम और यथार्थ-1 : झूठ के ‘‘महापलों’’ के बीच सच के ‘‘एक पल’’ की तलाश

मिथक यानी सच का अहसास कराता झूठ का पुलिन्दा। छलकपट से मिथक जनता की चेतना में धीरे-धीरे पैठा दिये जाते हैं और तब उनकी शक्ति बहुत अधिक हो जाती है, क्योंकि अधिकतर लोगों को इस बात का इल्म ही नहीं होता है कि उन्हें हेरा-फेरी का शिकार बनाया जा रहा है।

समाज में एक कहावत रचा-बसा है कि – “एक मछली पूरे तलाब को गन्दा कर देती है।“ एक दूसरा सच भी है – “एक सूरज पूरे समाज को प्रकाशमान कर देता है।“ लेकिन प्रायः इसे अनदेखा कर दिया जाता है। क्यों? आइए विचार करें।

दरअसल, शासकवर्ग अपने हित में सत्य यानी तमाम तरह के मुहावरों/मिथकों को गढ़ता है और बड़े ही सफाई से उसे जनमानस के दिलोदिमाग में घुसा देता है।

सच बन जाते झूठ की बानगी

यह एक मिथक है कि मौजूदा लोकतांत्रिक व्यवस्था एक ‘‘मुक्त समाज’’ (फ्री सोसाइटी) है क्योंकि जहॉं ऊपर से नीचे तक समाज में बंटवारे मौजूद हों वहॉं स्वतंत्रता हो ही नही सकती। मिथक है कि यह व्यवस्था मानव अधिकारों का आदर करती है इसलिए आदर योग्य है जबकि यथार्थ यह है कि यह व्यवस्था उत्पीड़न समस्त मानव अधिकारों का दुश्मन है।

यह भी मिथक है कि लोग जहॉं चाहें काम कर सकते हैं, मालिक बदल सकते हैं – दूसरी नौकरी कर सकते हैं, जबकि गरीबी व बेरोजगारी के मारे लोगों के लिए इस ‘आजादी’ की बात ही बेइमानी है।

जहॉ हैसियतदारो की दुनिया कायम हो और मालिक, अधिकारी या रसूखदार बात-बात मे ग़रीबो पर रुआब गाठते हो और कहते हो कि ‘‘तुम्हें पता है किससे बात कर रहे हो’’, वहॉं मनुष्य समान कैसे हो सकता है?

क्या यह मिथक नहीं है कि खेत-खलिहानो से लेकर कल-कारखानो-खदानो तक हाड़-तोड़ मेहनत करने वाले श्रमजीवी को समझाया जाए कि कोई भी मेहनती आदमी अपना व्यवसाय कर सकता है, अमीर बन सकता है, या फिर फड़-खोखे या फेरी लगाकर समान बेंचने वाला भी कारखाने के मालिक जैसा ही व्यवसायी है!

जहॉं एक आबादी के लिए दो जून की रोटी जुटाना भी मुश्किल हो, उस समाज में सबके शिक्षित होने के अधिकार की बात मिथक ही तो है। शिक्षा के लिए लोन यदि सबके लिए तो बैंक गारण्टी क्यों?

सबके लिए समान न्याय की सच्चाई, उस ग़रीब के लिए साफ़ हो जाता है, जिसे कोर्ट में जमानत के लिए सम्पत्तिवान को तलाशना पड़ता है!

प्रचलित बात है कि काले लोग बुरे होते हैं, ब्लैक मण्डे भयानक दिन व काला बाजार बुरी जगह का सूचक और व्हाइट, गोरे अच्छे का प्रतीक है! गोरे देवता व काले राक्षस आखिर क्यों? अंग्रेजी उन्नत भाषा और अपनी बोली-भाषा गंवारू के रूप में ज्यादातर आम धारणा क्यों है?

नौकरी नहीं मिली, या कम्पटीशन में पिछड़े तो अक्सर सुनने को मिलेगा कि मेहनत में कमी रह गयी, या फिर जनसंख्या अधिक है। यानी भीतर तक यह बैठा दिया गया है कि दोषी हम खुद हैं।

लगातार प्रचारित है कि आज महिला सशक्त हो गयी है। जबकि स्थिति यह है कि आज भी शादी के बाद स्त्री का ही उपनाम बदलेगा, प्रेम का खामियाजा उसे ही भुगतना पड़ेगा। दहेज़ की प्रताड़ना उसी के हिस्से आएगी!

यह आम धारणा है कि अभिजन लोग बड़े दानी और उदार व जनता की उन्नति के लिए काम करने वाले मेहनती होते है, जबकि ग़रीब बड़े आलसी, कामचोर और बेइमान होते है। लेकिन मज़दूरों की मेहनत पर डकैती डालने से लेकर बैंक घोटाले और सरकारों को घूस देकर ठेका हासिल करने वाले अडानी, अंबानी ‘संभ्रांत’ बन जाते हैं!

खुब टीवी चैनल खुल गये हैं, खूब समाचार मिलेगा! क्या यह मिथक नहीं है?

झूठ और सच की लड़ाई

जिसकी लाठी, उसकी भैंस

दरअसल, आज संचार माध्यम दैत्याकार उद्योग का रूप ले चुके हैं। और इस काम में लगे हुए हैं लोकप्रिय संस्कृति के सभी नए-पुराने रूप – टीवी, और रेडियो शो, एनिमेटेड कार्टून, फिल्में, कॉमिक पुस्तकें, बड़े पैमाने पर होने वाले खेल, समाचार पत्र और पत्रिकाएं, मोबाइल, नेटवर्क सर्चिंग आदि। जहॉं सुनियोजित तरीके से सामाजिक यथार्थ और अतंरविरोध गायब रहते हैं।

कम्प्यूटर-मोबाइल-इंटरनेट के इस युग में – जहॉं बेब सर्चिंग से लेकर ईमेल, फेसबुक, ट्यूटर तक उपलब्ध हैं – हक़ीक़त यह है कि जनता असलियत से लगातार कटती जा रही है। यह यूँ ही नहीं है कि सूचना-समाचार पर दुनिया की पॉच बड़ी एजेंसियों का कब्जा है। गूगल जो चाहेगा, वही प्रसारित होगा!

आज वैश्विक लूट की शक्तियों ने एक ऐसा तंत्र बना रखा है, जो जनता के दिमाग को एक मिनट भी सोचने नहीं देतीं। इन शक्तियों का फण्डा है कि दिमाग में घुसकर बैठ जाओ, हाथ व दिल उनके अनुरूप काम करने लगेंगे।

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