प्रवासी मज़दूरों के लिए सर्वोच्च अदालत का अहम फैसला

सुप्रीम कोर्ट के आदेश से संकटग्रस्त श्रमिकों को क्या मिला?

अंततः देश की सर्वोच्च अदालत ने कोरोना/लॉकडाउन से फँसे प्रवासी श्रमिकों के सम्बन्ध में एक अंतरिम आदेश दे दिया। इस सम्बन्ध में दायर पिछली तीन याचिकाओं के विपरीत इस “स्वतः संज्ञान” सुनवाई में कुछ निर्देश आये हैं। लेकिन याचिकाएं लंबित रहते “स्वतः संज्ञान” की ज़रुरत क्यों पड़ी? और यह क्रियान्वित कैसे होंगे?

सुप्रीमकोर्ट का फैसला : कुछ अहम बिंदु

जस्टिस अशोक भूषण, जस्टिस एसके कौल और जस्टिस एमआर शाह की बेंच ने गुरुवार को मामले पर सुनवाई की और अंतरिम आदेश दिया।

  • सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ट्रेन और बस से सफर कर रहे प्रवासी मज़दूरों से कोई किराया ना लिया जाए। यह खर्च राज्य और केंद्र शासित प्रदेशों की सरकारें उठाएं। 
  • स्टेशनों पर खाना और पानी राज्य सरकारें मुहैया करवाएं और ट्रेनों के भीतर मज़दूरों के लिए यह व्यवस्था रेलवे करे। बसों में भी उन्हें खाना और पानी दिया जाए।
  • देशभर में फंसे मज़दूर जो अपने घर जाने के लिए बसों और ट्रेनों के इंतजार में हैं, उनके लिए भी खाना राज्य सरकारें ही मुहैया करवाएं। मज़दूरों को खाना कहाँ मिलेगा और रजिस्ट्रेशन कहां होगा, इसकी जानकारी प्रसारित की जाए।
  • राज्य सरकार प्रवासी मज़दूरों के पंजीकरण की प्रक्रिया को देखें और यह भी निश्चित करें कि उन्हें घर के सफर के लिए जल्द से जल्द ट्रेन या बस मिले। सारी जानकारियां मामले से संबंधित लोगों को दी जाएं।
  • जिन प्रवासी श्रमिकों को सड़कों पर चलते हुए पाएं, उन्हें तुरंत आश्रय गृहों में ले जाएं और भोजन और सभी सुविधाएं प्रदान की जाए। 
  • जब-जब राज्य सरकारें ट्रेनों के लिए अनुरोध करें हैं, तो रेलवे को उन्हें प्रदान करे।

सरकारी पक्ष की घटिया दलीलें

सुनवाई में केंद्र की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कोर्ट में दलीलें रखीं। जबकि प्रवासी मज़दूरों की ओर से वरिष्ठ वकील कॉलिन गोन्ज़ाल्विस, वरिष्ठ वकील इंदिरा जयसिंह, कपिल सिब्बल आदि पैरवी कर रहे थे।

पूरी सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार के वक़ील तुषार मेहता का रुख़ बेहद भौंडा था और मोदी सरकार की सोच का आइना था। वे मज़दूर पक्ष के वकीलों, विशेष रूप से कपिल सिब्बल से ऊलजलूल सवाल पूछते रहे। अदालत में उठे सवालों का सही ज़वाब देने की जगह उनका कहना था कि बुद्धिजीवी और अन्य लोग श्रमिकों को पैदल चलने के लिए भड़का रहे हैं।

तुषार मेहता द्वारा लगातार अदालत को यह फैसला भी देने से रोकने की कोशिश के साथ मज़दूर पक्ष के वकीलों से उल्टे व बेतुके सवाल पूछे जा रहे थे, जो शर्मनाक थे और मोदी सरकार की कुनीतियों का दर्पण भी।

इस अहम फैसले के बीच कुछ सवाल

  • सवाल यह है कि सुप्रीमकोर्ट का यह महत्वपूर्ण फैसला लागू कैसे होगा?
  • सवाल यह भी बनता है कि सारी ज़िम्मेदारी राज्य सरकार के मत्थे क्यों?
  • यह भी एक स्वाभाविक सवाल है कि तीन बार की याचिकायों में कोर्ट का रुख जिस तरीके से पूरी तरह से केंद्र सरकार के अनुरूप और दुर्दश झेलते मज़दूरों के विपरीत था, ऐसे में शीर्ष अदालत को “स्वतः संज्ञान” की ज़रुरत क्यों पड़ी, वह भी पुरानी याचिकाओं के लंबित रहते?

क्यों लेना पड़ा कोर्ट को स्वत संज्ञान

सुप्रीम कोर्ट ने बीते मंगलवार को मज़दूरों की समस्याओं का संज्ञान लिया था। अदालत ने कहा था कि मज़दूरों की हालत खराब है। उनके लिए सरकार ने जो इंतजाम किए हैं वे नाकाफी हैं। कोर्ट ने इस मामले में केंद्र और राज्य सरकारों को नोटिस जारी कर 28 मई तक जवाब मांगा था।

माननीय के लिए इसमें स्वत:संज्ञान जैसी क्या बात थी, जबकि इस पर याचिकाएं पहले से ही कोर्ट में पड़ी हुई हैं? 

पूर्ववर्ती याचिकाओं में अदालत का रुख विपरीत रहा

इससे पूर्व इसी मामले में दायर याचिकाओं पर शीर्ष अदालत का रुख मोदी सरकार के प्रवक्ता जैसा था। अदालत ने यहाँ तक कहा था कि व्यवस्था देखना सरकार का काम है और अदालत उसमे हस्तक्षेप नहीं करना चाहती।

एक जनहित याचिका में पलायन न करने वाले कामगारों को पारिश्रमिक देने की मांग पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि उसे बताया गया है कि ऐसे कामगारों को आश्रय गृहों में भोजन उपलब्ध कराया जा रहा है और ऐसी स्थिति में उन्हें पैसे की क्या जरूरत है।

पंद्रह मई को सुप्रीम कोर्ट ने लॉक डाउन के कारण भूख प्यास से बहाल प्रवासी श्रमिकों को राहत देने के लिए दायर जनहित याचिका ख़ारिज करते हुए कहा था कि देशभर में प्रवासी मजदूरों की गतिविधियों की निगरानी करना या उन्हें रोकना असंभव है। 

ध्यान रहे कि यह बेहद मुश्किल भरा दौर था, पलायन का दर्द और मानवीय विपदा के बीच चौतरफा हाहाकार मची थी। सामानों और बच्चो को लादे मज़दूर हजारों किलोमीटर का सफ़र तय कर रहे थे, मर रहे थे, पुलिसिया पिटाई सह रहे थे, लेकिन घर की ओर बढे जा रहे थे, जो सिलसिला आज भी जारी है। अव्यवस्था ऐसी की भरपूर किराया देने के बावजूद ट्रेनें भूखे-प्यासे मज़दूरों को लेकर कहीं का कहीं पहुँच रही हैं।  

सुप्रीम कोर्ट की व्यापक आलोचना 

ऐसे हालत में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय की व्यापक आलोचना हुई।

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज, जस्टिस मदन बी लोकुर और वी गोपाला गौड़ा ने कोर्ट के व्यवहार की तुलना इमरजेंसी के दौर के सुप्रीम कोर्ट से की।  हाईकोर्ट के पूर्व जजों, जस्टिस ए पी शाह और कैलाश गंभीर ने कोर्ट की अपनी जिम्मेदारियों को त्याग देने के रवैये की आलोचना की।

सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष और वरिष्ठ अधिवक्ता दुष्यंत दवे ने सुप्रीम कोर्ट के रवैये पर निराशा व्यक्त करते हुए कहा- “जज नागरिकों के दुखों प्र‌ति आंखें मूंदकर हाथी दांत के महलों में बैठे नहीं रह सकते।” 

वरिष्ठ अधिवक्ता संजय हेगड़े ने कहा कि अदालत की निष्क्रियता ‘हाशिये के इंसानों से सामाजिक दूरी’ बरतने जैसी है।

देश के चोटी के वकीलों ने चीफ़ जस्टिस को तत्काल श्रमिकों को राहत दिलाने के लिए अपने संवैधानिक कर्तव्य की याद दिलायी। 

कई प्रमुख वकीलों – पी चिदंबरम, आनंद ग्रोवर, इंदिरा जयसिंह, मोहन कटारकी, सिद्धार्थ लूथरा, संतोष पॉल, महालक्ष्मी पावनी, कपिल सिब्बल, चंदर उदय सिंह, विकास सिंह, प्रशांत भूषण, इकबाल चागला, अफी चिनॉय, मिहिर देसाई, जानकी देसाई, द्वारकादास, रजनी अय्यर, युसुफ मुच्‍छाला, राजीव पाटिल, नवरोज सरवाई, गायत्री सिंह और संजय सिंघवी ने मुख्य न्यायधीश को पत्र लिखकर प्रवासियों मजदूरों के मामले में सुप्रीम कोर्ट से तत्काल हस्तक्षेप करने की माँग की थी।

इसबीच रेलवे की दुर्दश ने मोदी सरकार को पूरी तरह नंगा कर दिया। सरकार के तुगलकी फरमान और सतह पर उभर आई गन्दगी से ध्यान भटकाना मोदी सरकार के लिए ज़रूरी बन रहा था। 

ऐसे में जस्टिस अशोक भूषण की बेंच ने मामले का “स्वतः संज्ञान” लेने का आदेश दिया, जिसकी परिणति इस आदेश में हुई।

अब सारी ज़िम्मेदारी राज्य सरकार के मत्थे

अदालत ने अपने फैसले में पूरी ज़िम्मेदार राज्य सरकारों पर डालकर इतिश्री कर ली

सवाल यह है की पूरे कोरोना काल में सारे कामों को केंद्र सरकार ने अपने पास केन्द्रित कर लिया और हर आदेश केंद्र जारी कर रहा है तो राज्य सरकारें ही जिम्मेदार क्यों? ट्रेने केंद्र सरकार की, राजस्व का भारी हिस्सा केंद्र के पास, पीएम केयर फंड मोदी सरकार के पास और सबसे महत्वपूर्ण इस दुर्दशा की स्पष्ट ज़िम्मेदार केंद्र सरकार, ऐसे में फैसले के क्रियान्वयन की ज़िम्मेदारी केंद्र सरकार को ना देकर अदालत ने मोदी सरकार को बचने का ही काम किया है।

फैसला लागू कैसे होगा?

सर्वोच्च अदालत ने स्वतः संज्ञान जो फैसला सुनाया है, वह बेहतर होने के बावजूद लागू कैसे होगा? यह एक अहम् सवाल मौजूद है। मज़दूरों के मामले में फैसले प्रायः कागजी ही बने रहते हैं। ‘सामान काम सामान वेतन हो या कोरोना काल में सबको वेतन देने का सवाल आदि इसके उदहारण मात्र हैं।

ऐसे में यह साफ़ दिख रहा है कि स्वतः संज्ञान लोगों को न्याय दिलाने के मकसद से कम केंद्र को बचाने और सारी जिम्मेदारी राज्यों के मत्थे मढ़ने तौर पर ज्यादा है।

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