बार-बार क्यों फूट रहा है मज़दूरों का गुस्सा?
सूरत में तीसरी बार प्रदर्शन प्रवासी मज़दूरों के दर्द का विष्फोट है
कोविड-19 संक्रमण के बीच बगैर तैयारी हुए लॉकडाउन से प्रवासी मज़दूरों का संकट लगातार गहराता जा रहा है। भूख, अनिश्चय के बीच बच्चों और सामान को लादे, हजारों मील के कष्टप्रद सफ़र पर वे निकल रहे हैं, गिर रहे हैं, मर रहे हैं, लाठियां खा रहे हैं। सडकों पर उनका गुस्सा फूट रहा है, तो कहीं आत्महत्याएँ करने पर लोग बेबस हैं। सूरत में तीसरी बार मज़दूरों का गुस्सा फूटना हालात का आइना है।
गौरतलब बात है कि जहाँ भी प्रदर्शन हुआ, उसे कोरोना प्रभावित मानकर संक्रमित क्षेत्र घोषित कर दिया गया था। लेकिन मज़दूरों के पेट की आग कोरोना के डर पर भारी पड़ रही है।
सूरत में तीसरी बार मज़दूर सडकों पर
28 अप्रैल को गुजरात के सूरत शहर में मजदूरों द्वारा एक बार फिर से प्रदर्शन किए जाने की घटना सामने आई है। प्रदर्शन के दौरान सैकड़ों की संख्या में मौजूद प्रवासी मज़दूरों ने डॉयमंड बोर्स नाम की कंपनी के दफ्तर पर पथराव किया और एक बार फिर से अपने मूल निवास वापस भेजे जाने की माँग की।
समाचार एजेंसी एएनआई के अनुसार, मजदूरों का आरोप था कि लॉकडाउन के बावजूद उनसे काम कराया जा रहा है। रिपोर्ट के अनुसार, प्रवासी मजदूरों ने खुद को घर भेजने की माँग करते हुए अच्छा खाना न मिलने की भी शिकायत की। हीरा और कपड़ा उद्योग से पहचाने जाने वाले सूरत शहर में यह तीसरा प्रदर्शन है।
इससे पूर्व 14 अप्रैल को लॉकडाउन की समयसीमा तीन मई तक बढ़ाए जाने की घोषणा के बीच टेक्सटाइल मिल्स में काम करने वाले सैकड़ों मज़दूर घर भेजे जाने की माँग को लेकर सूरत शहर के वराछा क्षेत्र में सड़क पर बैठ गए थे। मज़दूरों ने अपने-अपने राज्यों में वापस भेजे जाने की मांग के साथ प्रदर्शन किया।
10 अप्रैल की रात 10 बजे सूरत में हज़ारों प्रवासी मज़दूर सड़कों पर उतर पड़े थे। मज़दूर वेतन, राशन और अपने घर वापस जाने की इजाज़त देने की माँग कर रहे थे। इन मज़दूरों ने शहर के लक्साना इलाके में ठेलों और टायरों में आग लगा कर हंगामा किया था। तब पुलिस ने 80 लोगों को गिरफ्तार किया था। न्याय के रूप में उन्हें लाठियां, मुक़दमे और जेल मिली।
दरअसल, मोदी के इस गृह प्रदेश के सूरत में ज़्यादातर टेक्सटाईल, हीरा व अन्य कारखानों में काम करने वाले प्रवासी मज़दूर हैं। इनमें अधिकांश मज़दूर ओडिशा, यूपी और बिहार से हैं और लॉकडाउन के चलते वो सूरत में ही फंस कर रह गए हैं। काम बंद होने की वजह से खाने पीने तक की दिक्कत हो गई है।
बांद्रा रेलवे स्टेशन पर उमड़ी थी भीड़
14 अप्रैल को पीएम नरेंद्र मोदी द्वारा देशव्यापी लॉकडाउन को तीन मई तक बढ़ाने की घोषणा के कुछ ही घंटों के बाद हज़ारों प्रवासी मज़दूरों की भीड़ मुंबई के बांद्रा रेलवे स्टेशन पर जमा हो गई थी। वे ट्रेन सेवा बहाल होने की अफ़वाह के चलते स्टेशन पहुँचे थे।
ये मज़दूर भी अपने-अपने गृह राज्यों में भेजे जाने की माँग कर रहे थे, लेकिन मिला दमन। भीड़ हटाने के बहाने पुलिस ने बर्बर लाठीचार्ज का सहारा लिया। जिससे काफी लोग घायल हुए।
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तमिलनाडु में प्रदर्शन
12 अप्रैल को तमिलनाडु के मदुरई जिले के यगप्पा नगर के एमजीआर रोड पर दिहाड़ी मज़दूरों ने प्रदर्शन किया। उनका कहना है कि उनके पास राशन खरीदने के पैसे तक नहीं हैं। लॉकडाउन के बाद से ही उनके पास काम नहीं है और अब रोज़ कमाकर, रोज़ खाने वाली यह आबादी भूख और अभाव से त्रस्त है।
दिल्ली में बग़ावत
11 अप्रैल को दिल्ली के कश्मीरी गेट के पास यमुना किनारे बने तीन शेल्टर भवनों को आग के हवाले कर दिया गया। ख़बर के मुताबिक शेल्टर होम में काम कर रहे सिविल डिफेंस वालंटियरों का प्रवासी मज़दूरों के प्रति अमानवीय व्यवहार और एक मज़दूर की मिली लाश ने विष्फोट को जन्म दिया था। मज़दूरों का गुस्सा फूट पड़ा और उन्होंने रैन बसेरे में आग लगा दी।
जिनके दम पर मिलती हैं सुविधाएँ
भारत में प्रवासी मज़दूरों की समस्या कोई नई बात नहीं है। देश भर में ऐसे मज़दूरों की संख्या भी क़रीब चार करोड़ से ज़्यादा है। अपनी जगह-जमीन से उजड़कर तमाम कष्टों-अभावों को झेलते हुए वे समाज को चलाने वाले हर प्रकार के उत्पादन में लगे हुए हैं।
गाँव से महानगरों में मज़दूरी करने आए ये लोग कल-कारखानों-खदानों से लेकर खेतों-खलिहानों तक खटते हैं। वे घरों में मज़दूरी करते हैं, ड्राइवर हैं, माली का काम करते हैं, कंस्ट्रक्शन साइटों पर दिहाड़ी मज़दूरी करते हैं. मॉल, फ्लाईओवर और लोगों का घर बनाते हैं या फ़ुटपाथ पर सामान बेचते हैं।
झुग्गी-झोपडियों में रहने वाले, शेल्टर होम में रहने वाले या फ़ुटपॉथ और फ्लाइओवरों के नीचे सोने वाले ये प्रवासी वर्तमान संकट से ज्यादा सरकारी कूप्रबंधं के बीच अनिश्चितता को लेकर मज़दूर बेचैन हैं। वे चाहते हैं कि लॉकडाउन में ढील मिले और वे अपने अपने घरों को लौट जाएं।
सहूलियत वालों के लिए सारे इंतेज़ाम
असल में कोरोना संकट के बीच पहले से सक्षम और सुरक्षित छतों के नीचे रहने वाली आबादी की सहूलियत के हिसाब से ही सरकार सारे उपाय कर रही है। जबकि सही मायने में इस देश के बहुसंख्यक, यानी रोज़ कुंआ खोदकर पानी पीने वाली देश की मेहनतकश मज़दूर आबादी पूरे देश में फंसी हुई है और ज़िंदा रहने की ही बुनियादी लड़ाई की तरह लड़ रही है।
हालत ये हैं कि देश की सर्वोच्च अदालत ने भी प्रवासी मज़दूरों को राहत देने से हाथ खिंच लिया और कह दिया कि भोजन मिल रहा तो पैसे की क्या ज़रूरत!
सबसे अधिक मार मेहनतकश पर
कोरोना/लॉकडाउन के बीच सबसे अधिक मार मज़दूर जमात के ऊपर ही पड़ रही है। इधर-उधर फंसे प्रवासी मज़दूरों के सामने दिक्कतें ज्यादा गंभीर हो रही हैं। लोगों को जरूरी सामान तक नहीं मिल रहा है। नतीजतन लोग सड़कों पर उतर रहे हैं। बिना तैयारी के किये गये लॉकडाउन ने उत्तर से लेकर दक्षिण तक हाहाकार मचाया हुआ है।
देश की जनता के एक हाथ में थाली और दूसरे हाथ में दिया पकड़ाकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ लेने वाली सरकार ने देश के मज़दूरों को उनके भाग्य भरोसे छोड़ दिया है। जहाँ देश की एक आबादी घर में सेनिटाइजर पोतकर हाथ रगड़ रही है, वहीं दूसरी तरफ़ मज़दूरों को भोजन के लिए भी हाथ पसारना पड़ रहा है, उन्हें हर तरह अपमान भी सहना पड़ रहा है।
ज़ाहिर है कि मुनाफे की सेवा में लगी सरकारों, यहाँ तक कि न्याय प्रणाली के लिए मेहनतकश आबादी की वास्तव में कोई फ़िक्र नहीं है! ऐसे में बगावतें होना आश्चर्यजनक नहीं है!