शोषित-उत्पीडित जनता के नायक थे राहुल सांकृत्यायन

महाविद्रोही, महापंडित राहुल सांकृत्यायन की जन्म तिथि (9 अप्रैल) और पुण्यतिथि (14 अप्रैल) के अवसर पर

महाविद्रोही, महापंडित’ राहुल सांकृत्यायन एक सच्चे कर्मयोद्धा थे। उन्होनें आम जन, ग़रीब किसान, मज़दूर की दुर्दशा और उनके मुक्ति के विचार को समझा। उनके बीच रहते हुए उन्हें जगाने का काम किया और संघर्षों में उनके हमराही बने। वे वास्तव में मेहनतकश जनता के सच्चे सिपाही थे। वे अंधविश्वास के ख़िलाफ़ तर्क और विज्ञान का झंडा बुलंद करने वाले,  ‘भागो नहीं, दुनिया को बदलो’ की अलख जगाने वाले एक जननायक थे।

बचपन से उपजी थी विद्रोह की भावना

पूर्वी उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़ ज़िले में एक पिछड़े गाँव पन्दहा में 9 अप्रैल, 1893 को जन्मे राहुल का मूल नाम केदार पाण्डेय था। एक ठहरे हुए और रुढ़ियों में जकड़े समाज के प्रति उनके मन में बचपन से ही बग़ावत की भावना पैदा हो गई थी। बचपन में ही वे घर से निकल गये। 13 साल की उम्र में एक मन्दिर के महन्त बने, फिर आर्यसमाजी बने, फिर उन्होंने बौद्ध धर्म अपनाया, लेकिन एक मानव केन्द्रित, शोषणविहीन समाज बनाने की असल राह के लिए वे भटकते रहे।

समानता और न्याय पर टिके तथा हर प्रकार के शोषण और भेदभाव से मुक्त समाज बनाने की राह अंततः उन्हें मार्क्सवादी विचारधारा में मिली। वे इससे जुड़ गए और मज़दूरों-किसानों की हर प्रकार से मुक्ति के संघर्ष और उनके दिमाग़ों पर कसी बेड़ियों को तोड़ने को अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया।

मज़दूर-किसान संघर्षो के सेनानी

जनता के संघर्षों का मोर्चा हो या सामंती शोषण-उत्पीडन के ख़िलाफ़ किसानों की लड़ाई का मोर्चा, वह हमेशा अगली कतारों में रहे। अमवारी में लाठियां खाई, अनेक बार जेल गये, यातनाएं झेलीं। अंग्रेजी व देशी गुलामी के ख़िलाफ़ स्वामी सहजानंद के साथ मिलकर किसान सभा बनाने में अग्रणी भूमिका निभाई। जमींदारों के गुर्गों ने उनके ऊपर कातिलाना हमला भी किया, लेकिन आजादी, बराबरी और इंसानी स्वाभिमान के लिए न तो वह कभी संघर्ष से पीछे हटे और न ही उनकी कलम रुकी।

घुमक्कड़ी से अनुभव हुआ और समृद्ध

राहुल संकृत्यायन ने बचपन से ही घूमने का जो सिलसिला शुरू किया, उससे उनके ज्ञान का भंडार और समृद्ध होता गया। उन्होंने अनेक देशों की की विकट और बीहड़ यात्राएं कीं, भाषा, सामाजिक विविधता और मानवजन को नजदीकी से समझकर उसे समाज परिवर्तन के हथियार में तब्दील किया।

बहु प्रतिभा के धनी, जनता के सच्चे लेखक

राहुल सांकृत्यायन देश की शोषित-उत्पीड़ित जनता को हर प्रकार की गुलामी से आज़ाद करने के लिए कलम को हथियार के रूप में इस्तेमाल करते रहे। वे सच्चे अर्थों में जनता के लेखक थे। उन्होंने अपनी प्रतिभा का इस्तेमाल समाज को बदलने के लिए, जनता को जगाने में किया।

बहु प्रतिभा के धनी राहुल सांकृत्यायन दुनिया की छब्बीस भाषाओं के जानकार थे। उनको ज्ञान-विज्ञान की अनेक शाखाओं, साहित्य की अनेक विधाओं में महारत हासिल थी। इतिहास, दर्शन, पुरातत्व हो अथवा साहित्य, भाषा विज्ञान, लगभग सभी विषयों पर उन्होंने अधिकारपूर्वक लेखनी चलायी। उन्होंने सीधी-सरल भाषा में ढेरों छोटी-छोटी पुस्तकें और सैकड़ों लेख लिखे।

दिमागी गुलामी, तुम्हारी क्षय, भागो नहीं दुनिया को बदलो, बोल्गा से गंगा, दर्शन-दिग्दर्शन, मानव समाज, वैज्ञानिक भौतिकवाद, जय यौधेय, सिंह सेनापति, साम्यवाद ही क्यों, बाईसवीं सदी आदि रचनाएं उनकी महान प्रतिभा की मिसाल हैं। बौद्ध दर्शन से लेकर, इस्लाम धर्म की रूपरेखा जैसी रचनाएँ हों, या मार्क्स, लेलिन, स्टालिन, माओ से लेकर चन्द्र सिंह गढवाली तक की जीवनियाँ, उनकी विविध रचनाओं के दर्पण हैं।

समाज को पीछे की ओर धकेलने वाले हर प्रकार के विचार, रूढ़ियों, मूल्यों-मान्यताओं-परम्पराओं के ख़िलाफ़ वे लगातार प्रहार करते रहे और हर पल उन्होंने तर्क व विज्ञान को जनमानस में स्थापित करने का सतत प्रयास किया।

सामाजिक रूढियों पर तीखा प्रहार करते हुए वे लिखते हैं-

“आंख मूंदकर हमें समय की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए। हमें अपनी मानसिक दासता की बेड़ी की एक–एक कड़ी को बेदर्दी के साथ तोड़कर फेंकने के लिए तैयार होना चाहिए। बाहरी क्रान्ति से कहीं ज्यादा जरूरत मानसिक क्रान्ति की है। हमें दाहिने–बायें, आगे–पीछे दोनों हाथ नंगी तलवार नचाते हुए अपनी सभी रूढ़ियों को काटकर आगे बढ़ना चाहिए।“

उन्होंने बेबाक लिखा-

“देश की स्वाधीनता के लिए जो उद्योग किया जा रहा था, उसका वह दिन निस्सन्देह, अत्यन्त बुरा था, जिस दिन स्वाधीनता के क्षेत्र में ख़िलाफ़त, मुल्ला, मौलवियों और धर्माचार्यों को स्थान देना आवश्यक समझा गया। एक प्रकार से उस दिन हमने स्वाधीनता के क्षेत्र में एक कदम पीछे हटकर रखा था।“

वहीँ दूसरी ओर लिखते हैं कि-

“धर्मों की जड़ में कुल्हाड़ा लग गया है, और इसलिए अब मजहबों के मेल-मिलाप की बातें भी कभी-कभी सुनाने में आती हैं, क्या यह सम्भव है ‘मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना’ – इस सफेद झूठ का क्या ठिकाना। अगर मजहब बैर नहीं सिखलाता तो चोटी-दाढ़ी की लड़ाई में हजार बरस से आजतक हमारा मुल्क पागल क्यों है? पुराने इतिहास को छोड़ दीजिये, आज भी हिन्दुस्तान के शहरों और गाँवों में एक मजहब वालों को दूसरे मजहब वालों का खून का प्यासा कौन बना रहा है”

गुलामी और त्रासदियों का कारण जातिभेद बताते हुए वे लिखते हैं-

“पिछले हजार बरस के अपने राजनीतिक इतिहास को यदि हम लें तो मालूम होगा कि हिन्दुस्तानी लोग विदेशियों से जो पददलित हुए, उसका प्रधान कारण जाति-भेद न केवल लोगों को टुकडे-टुकडे में बाँट देता है, बल्कि साथ ही यह सबके मन में ऊँच-नीच का भाव पैदा करता है।“

उनका स्पष्ट मानना था कि–

“जनता के सामने निधड़क होकर अपने विचार को रखना चाहिए और उसी के अनुसार काम करना चाहिए। हो सकता है, कुछ समय तक लोग आपके भाव न समझ सकें और ग़लतफ़हमी हो, लेकिन अन्त में आपका असली उद्देश्य हिन्दू-मुसलमान सभी गरीबों को आपके साथ सम्बद्ध कर देगा।”

वे सीधे सवाल उठाते हैं-

“जिस समाज ने प्रतिभाओं को जीते-जी दफनाना कर्तव्य समझा है और गदहों के सामने अंगूर बिखेरने में जिसे आनंद आता है, क्या ऐसे समाज के अस्तित्व को हमें पलभर भी बर्दाश्त करना चाहिए?”

अंत तक जारी रही सक्रियता

मज़दूरों-किसानों के प्यारे राहुल बाबा लगातार, पूरी गति से आजीवन वे काम करते रहे। अंतत उनका लम्बा, बलिष्ठ, सुन्दर शरीर जर्जर हो गया। सतत काम के दबाव से उन्हें स्मृतिभंग हो गया। आर्थिक परेशानी से उनका ठीक से इलाज भी नहीं हो सका और 14 अप्रैल 1963 को 70 वर्ष की उम्र में उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। लेकिन उनका कर्म और विचार मेहनतकश वर्ग के लिए आज भी महत्वपूर्ण बने हुए हैं।

उनका समूचा जीवन, कर्म व लेखन विद्रोह का जीता-जगाता प्रमाण है। इसलिए वे महापंडित भी थे और महाविद्रोही भी।

आज के दौर में और प्रासंगिक हैं राहुल के विचार

एक ऐसे समय में, जब हिन्दू-मुस्लिम बंटवारे की संघ-भाजपा की राजनीति खतरनाक स्थितियों में है, मज़हब व जाति के झगड़े सत्ताधारी पार्टियों का प्रमुख हथियार बन पूरे समाज को खून की दरिया में डुबो रहा है, धर्म के नाम पर आदमी को आदमी का दुश्मन बना दिया है, पुरानी सडी-गली रूढ़ियाँ समाज में स्थापित करने का जोर शीर्ष पर है, तब राहुल संकृत्यायन जैसे प्रतिभाओं की प्रासंगिकता और ज्यादा बढ़ गई है।

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