मज़दूर वर्ग के सच्चे लेखक थे मक्सिम गोर्की

अलेक्सेई मक्सिमोविच (मक्सिम गोर्की) के जन्मदिवस (28 मार्च) पर

मक्सिम गोर्की पूरी दुनिया के मेहनतकश-मज़दूर जमात के महान लेखक थे। रूस में मज़दूर वर्ग के पूरे क्रन्तिकारी दौर में- अक्टूबर समाजवादी क्रान्ति और उसके बाद के समाजवादी निर्माण तक के लम्बे दौर में मक्सिम गोर्की ने अपनी कहानियों, नाटकों, लेखों और उपन्यासों के माध्यम से हर क़दम पर मेहनतकश आवाम को अपनी परिस्थितियों के विरुद्ध संघर्ष करने की प्रेरणा दी। वह अपने समय में दबी-कुचली जनता की आवाज बनकर उभरे। वे अपनी कलम से रूसी साहित्य और जनता में बदलाव के लिये एक नई ऊर्जा का संचार करते रहे।

28 मार्च 1868 को रूस के वोल्गा नदी के किनारे एक बस्ती में अलेक्सेई मक्सिमोविच (मक्सिम गोर्की) का जन्म हुआ। सात वर्ष की उम्र में ही अनाथ हो जाने वाले गोर्की को बहुत जल्दी ही इस सच्चाई का सामना हुआ कि ज़िन्दगी एक जद्दोजहद का नाम है। गोर्की बचपन से ही एक मजदूर के रूप में पले-बढ़े और घर में काम से लेकर बेकरी के कारखानों, जहाजों और खेतों तक कई काम करते उनका बचपन मेहनत और संघर्ष करते हुये बीता।

माता-पिता के गुजर जाने के बाद उनका बचपन अपनी नानी के यहाँ बीता। समाज के सबसे ग़रीब लोगों की गन्दी बस्तियों में पल-बढ़कर वह सयाने हुए। नानी की मृत्यु के बाद गोर्की ने 13 साल की उम्र में घर छोड़ दिया और कई जगह काम करते हुये रूस के कई हिस्सों में घूमते रहे। इस दौरान उन्हें समाज को और करीब से देखने का मौका मिला।

मक्सिम गोर्की (28 मार्च 1868 – 18 जून 1936)

बचपन से ही पेट भरने के लिए उन्होंने पावरोटी बनाने के कारख़ाने, नमक बनाने के कारख़ाने (नमकसार) में काम करने से लेकर गोदी मज़दूर, रसोइया, अर्दली, कुली, माली, सड़क कूटने वाले मज़दूर तक का काम किया। समाज के मेहनत करने वाले लोगों, ग़रीब आवारा लोगों, गन्दी बस्तियों के निवासियों के बीच जीते हुए उन्होंने ज़िन्दगी की किताब से तालीम हासिल की। उन्होंने स्कूल का मुँह तक नहीं देखा था, लेकिन पन्द्रह-पन्द्रह घण्टे कमरतोड़ मेहनत से मिले अनुभवों ने उन्हें मज़दूर वर्ग का सच्चा लेखक बनाया।

बचपन के विविध अनुभव व तात्कालिक रूस में जारशाही निरंकुशता एवं दमन उत्पीड़न उनके साहित्यिक रचनाओं का आधार बना और वह जनता के मुक्ति संघर्ष का हिस्सा बनकर उभरे। उन्हें किसी स्कूल यस विश्वविद्यालय में पढ़ने का मौका तो नहीं मिला, लेकिन क्रांतिकारियों के सम्पर्क ने उन्हें किताबों से परिचित कराया। उन्होंने खुद के अनुभव और मेहनतकश जनता से जुडाव से मिले अनुभव ने उनकी लेखनी को धार दी और बहुत जल्दी ही रूस के एक बड़े लेखक बन गये।

अपने साहित्यिक जीवन के आरम्भ में ही गोर्की का परिचय तोलस्तोय और चेखव जैसे रूस के महान लेखकों से हुआ। वे शुरुआती दिनों से ही क्रान्तिकारी आन्दोलनों से जुड़े रहे। बाद में कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल होकर जनता के संघर्षों में काफ़ी करीब से जुड़ गये। इसी दौरान उन्होंने मज़दूरों और क्रान्तिकारियों के जीवन और संघर्ष पर आधारित अपना विश्व प्रसिद्ध उपन्यास ‘माँ’ (1906) लिखा।

गोर्की ने अपनी कहानियों, नाटकों, उपन्यासों और लेखों के माध्यम से समाज को सिर्फ़ चित्रित ही नहीं किया बल्कि उन्हें एक हथियार की तरह इस्तेमाल किया। उनके आत्मकथात्मक उपन्यासों- ‘मेरा बचपन’,मेरे विश्वविद्यालय’ व ‘जीवन की राहों पर में तलछट की ज़िन्दगी जी रहे मज़दूरों व तात्कालिक समाज के यथार्थ का जीवंत चित्रण है और बग़ावत के लिए प्रेरित करता है। गोर्की के शुरुआती उपन्यासों ‘फ़ोमा गोर्देयेव’ और ‘वे तीन’ के केन्द्रीय चरित्र फ़ोमा और इल्या लुनेव ऐसे व्यक्ति हैं, जो निजी सम्पत्ति पर आधारित समाज के तौर-तरीक़ों को स्वीकारने से इंकार कर देते हैं।

गोर्की का पूरा जीवन और उनका साहित्यिक कार्य पूरी दुनिया के मज़दूरों के लिये एक प्रेरणास्रोत है, और अन्याय के विरुद्ध कदम-कदम पर हमें संघर्ष करने के लिये प्रोत्साहित करता है। उनका मानना था, “पूँजीवादी समाज में कुल मिलाकर मनुष्य अपने अद्भुत सामर्थ्य को निरर्थक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये बर्बाद करता है। जीवन के प्रति उनका दृष्टिकोण आशावाद और जनता में दृढ़ विश्वास से भरा हुआ था।

अन्त में गोर्की के विश्व प्रसिद्ध उपन्यास “माँ’ से… उपन्यास के मज़दूर नायक का अदालत में बयान-

“हम समाजवादी हैं। इसका मतलब है कि हम निजी सम्पत्ति के ख़िलाफ हैं” निजी सम्पत्ति की पद्धति समाज को छिन्न–भिन्न कर देती है, लोगों को एक–दूसरे का दुश्मन बना देती है, लोगों के परस्पर हितों में एक ऐसा द्वेष पैदा कर देती है जिसे मिटाया नहीं जा सकता, इस द्वेष को छुपाने या न्याय–संगत ठहराने के लिए वह झूठ  का सहारा लेती है और झूठ, मक्कारी और घृणा से हर आदमी की आत्मा को दूषित कर देती है।

हमारा विश्वास है कि वह समाज, जो इंसान को केवल कुछ दूसरे इंसानों को धनवान बनाने का साधन समझता है, अमानुषिक है और हमारे हितों के विरुद्ध है। हम ऐसे समाज की झूठ और मक्कारी से भरी हुई नैतिक पद्धति को स्वीकार नहीं कर सकते। व्यक्ति के प्रति उसके रवैये में जो बेहयाई और क्रूरता है उसकी हम निन्दा करते हैं। इस समाज ने व्यक्ति पर जो शारीरिक तथा नैतिक दासता थोप रखी है, हम उसके हर रूप के ख़िलाफ लड़ना चाहते हैं और लड़ेंगे कुछ लोगों के स्वार्थ और लोभ के हित में इंसानों को कुचलने के जितने साधन हैं हम उन सबके ख़िलाफ लड़ेंगे।

हम मजदूर हैं;  हम वे लोग हैं जिनकी मेहनत से बच्चों के खिलौनों से लेकर बड़ी–बड़़ी मशीनों तक दुनिया की हर चीज तैयार होती है; फिर भी हमें ही अपनी मानवोचित प्रतिष्ठा की रक्षा करने के अधिकार से वंचित रखा जाता है। कोई भी अपने निजी स्वार्थ के लिए हमारा  शोषण कर सकता है। इस समय हम कम से कम इतनी आजादी हासिल कर लेना चाहते हैं कि आगे चलकर हम  सारी सत्ता अपने हाथों में ले सकें। हमारे नारे बहुत सीधे–सीधे है: निजी सम्पत्ति का नाश हो-उत्पादन के सारे साधन जनता की सम्पत्ति हों-सत्ता जनता के हाथ में हो –हर आदमी को काम करना चाहिए। अब आप समझ गये होंगे कि हम विद्रोही नहीं हैं।’’

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