मज़दूर वर्ग के लिए जलती मशाल है पेरिस कम्यून

मज़दूरों के पहले राज्य पेरिस कम्यून का 150वां साल

आज से 149 वर्षों पहले, 18 मार्च, 1871 को फ्रांस की राजधानी पेरिस में पहली बार मज़दूरों ने अपनी हुकूमत कायम की। पेरिस के जांबाज मजदूरों ने न सिर्फ़ पूँजीवादी हुकूमत को पलट दिया, बल्कि महज 72 दिनों के शासन के दौरान यह साबित कर दिया कि समाजवादी समाज में भेदभाव, गैरबराबरी और शोषण को किस तरह समाप्त किया जायेगा। 1917 की रूसी क्रान्ति ने इसी कड़ी को आगे बढ़ाया।

शोषण से संघर्ष की ओर

19वीं सदी के मध्य में यूरोप में कल-कारखानों का तेज विकास हो रहा था। पूँजीवादी औद्योगिक क्रान्ति तेजी से आगे डग भर रही थी। इसके साथ ही संगठित औद्योगिक मज़दूर वर्ग की ताकत और चेतना बढ़ती जा रही थी। ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी के मज़दूर अपने शोषण के विरुद्ध संघर्ष को ज्यादा से ज्यादा संगठित रूप में चलाने लगे थे। मज़दूरों की मुक्ति और समाजवाद के विभिन्न विचार भी पैदा हो चुके थे और मज़दूरों की मुक्ति का विचार मार्क्सवाद सामने था।

युद्ध की तबाही से क्रांति की ओर

जुलाई 1870 में फ्रांस और प्रशा (जो जर्मनी बना) के बीच युद्ध छिड़ गया। यह बाजार के बँटवारे के नए जंग की शुरुआत थी, जिसने आगे चलकर विश्व युद्धों की महाविपदाओं को रचा। उस वक़्त जहाँ जर्मनी एकीकरण की प्रक्रिया में पूँजीवादी दुनिया प्रतिस्पर्धा में एक नई ताक़त बनकर उभर रहा था, तो दुनिया के तमाम मुल्कों को लूट रहा फ्रांस अन्दरूनी राजनीतिक संकट झेल रहा था।

इस युद्ध में पहले से जर्जर नेपोलियन तृतीय की फ़्रांसिसी सत्ता, सितम्बर 1870 में प्रशा से पराजित हुई। इसी के साथ पेरिस में जनतंत्र की घोषणा हुई। जनवरी 1871 में पेरिस के आत्मसमर्पण के साथ प्रशा का राजा ही पहला जर्मन बादशाह बना। फ़्रांस को भारी कीमत चुकानी पड़ी। फ़रवरी, 1871 में हुए चुनाव के बाद घोर प्रतिक्रियावादी थियेर फ्रांसीसी सरकार का प्रमुख बना। लेकिन यह पूँजीवादी जनतंत्र था और सत्ताधारियो ने तत्कालीन संकटों का बोझ मेहनतकश जनता पर डाल दिया और जनतंत्र का चेहरा उजागर हो गया।

ऐसे बनी मज़दूर वर्ग की पहली सरकार पेरिस कम्यून

युद्ध के दौरान बने सैन्यदल ‘नेशनल गार्ड्स’ में मुख्यतः मज़दूर ही शामिल थे। मज़दूरों से भयभीत थियेर सरकार ने 1 मार्च, 1871 को उनसे सारे हथियार जप्त करने का हुक्म दिया, जो असफल रहा। पेरिस की तमाम मेहनतकश आबादी सड़कों पर उतर आई। दो सैनिक जनरल मारे गये। सेना जनता से मिल गई। थियेर वर्साय भाग गया और वहां से ‘नेशनल असेम्बली’ की घोषणा करने लगा।

दूसरी ओर पेरिस के मज़दूरों ने आम चुनाव की घोसणा की और 26 मार्च को सत्ता के सर्वोच्च अंग की हैसियत से कम्यून निर्वाचित हो गया। 28 मार्च को नगर भवन के सामने आम सभा हुई और उसमें कम्यून की घोषणा हुई। इतिहास में पहली बार मजदूर वर्ग सत्तासीन हुआ।

मिला सबको बराबरी का वास्तविक हक़

पेरिस कम्यून में आम मेहनतकश जनसमुदाय वास्तविक स्वामी और शासक था। जब तक कम्यून कायम रहा, जन समुदाय व्यापक पैमाने पर संगठित था और सभी अहम राजकीय मामलों पर लोग अपने-अपने संगठनों में विचार-विमर्श करते थे। जनसमुदाय की चौकसी और आलोचना को कम्यून के सदस्य पूरी-पूरी तरजीह देते थे।

दुनिया की इस पहली मजदूर सरकार की स्थापना सच्चे सार्विक मताधिकार के बाद हुई, जिसके चलते दर्जी, नाई, मोची, प्रेस मजदूर- सभी कम्यून के सदस्य चुने गये। कम्यून को कार्यपालिका और विधायिका, यानी सरकार और संसद-दोनों का ही काम करना था। पुरानी पुलिस और सेना को भंग कर दिया गया और पूरी मेहनतकश जनता को शस्त्र-सज्जित करने का काम शुरू किया गया। सत्तासीन होने के महज दो दिन बाद ही पुरानी सरकार के सभी बदनाम कानूनों को कम्यून ने रद्द कर दिया।

अक्टूबर 1870 से लेकर अप्रैल 1871 तक का सारा किराया रद्द कर दिया गया। गिरवी रखी गई चीजों की नीलामी बन्द कर दी गयी। सूदखोरी पर रोक लग गई।

कम्यून ने पहली बार वास्तविक धर्मनिरपेक्ष जनवाद को साकार करते हुए यह घोषणा की कि धर्म हर आदमी का निजी मामला है और राज्य या सरकार को इससे एकदम अलग रखा जायेगा। चर्च को सत्ता से अलग कर दिया गया। धर्म के नाम पर फि़जूलखर्ची पर रोक लग गई। चर्च की सम्पत्ति राष्ट्र की सम्पत्ति घोषित हुई। शिक्षण संस्थाओं में धार्मिक चिन्हों, तस्वीरों और पूजा-प्रार्थना पर रोक लगा दी गयी।

कम्यून सर्वहारा अन्तरराष्ट्रीयतावाद पर बना। उसने घोषणा की कि “कम्यून का झण्डा विश्व गणराज्य का झण्डा है।” कम्यून अन्धराष्ट्रवाद और राष्ट्रों के बीच युद्ध का विरोधी था।

कम्यून में महत्वपूर्ण से महत्वपूर्ण ओहदे और जिम्मेदारी वाले व्यक्ति को भी कोई विशेषाधिकार नहीं हासिल था। मज़दूर और अफ़सरों-मंत्रियों के वेतन में भारी अन्तर को समाप्त कर दिया गया। कम्यून के कई सदस्यों ने आगे बढ़कर मिसाल पेश करने के लिए अपने मंजूर वेतन-भत्ते और सुविधाओं को भी छोड़ने का काम किया।

16 अप्रैल को कम्यून ने उन सभी कारखानों को फि़र से शुरू करने का आदेश दिया, जिन्हें उनके मालिक बन्द करके भाग गये थे। इन कारखानों के मजदूरों को कोआपरेटिव बनाने की सलाह दी गयी। ब्रेड बनाने वाले कारखानों में रातभर काम करने का चलन रोक दिया गया। रोजगार दफ्तर के नाम पर चल रहे मजदूरों का घिनौना शोषण ख़त्म कर दिया गया।

पेरिस कम्यून मज़दूर बिगुल के लिए इमेज नतीजे

शुरू हुआ भयावह दमन का दौर

पेरिस कम्यून के बहादुर कम्यूनार्डो ने पेरिस में तो मजदूर वर्ग की फ़ौलादी सत्ता कायम की और बुर्जुआ वर्ग के साथ कोई रू-रियायत नहीं बरती, लेकिन वे पूँजीवादी शासकों के किलेबंदी को नहीं समझ सके। कम्यून अपने जन्म से ही वह दुश्मनों से घिरा हुआ था, जो उसे ख़त्म करने पर तुले हुए थे। वे दुश्मन की शान्तिवार्ताओं की धोखाधड़ी के शिकार हो गये।

मई 1871 में थियेर के सैनिकों ने पेरिस पर हमला बोल दिया। वर्साय के लुटेरों की भाड़े की सेना का कम्युनार्डों ने जमकर मुकाबला किया। 21 मई 1871 को शहर की सड़कों-चौराहों पर और विशेषकर मजदूर बस्तियों में घमासान युद्ध हुआ। आखिरकार, 8 दिनों के बेमिसाल बहादुराना संघर्ष के बाद पेरिस के बहादुर सर्वहारा योद्धा पराजित हो गये। इस खूनी सप्ताह में 26,000 कामगार कम्यून की रक्षा करते हुए शहीद हो गये। नागरिकों को कतारों मे खड़ाकर, हाथों के घट्ठों को देखकर कामगारों को अलग करके गोली मार दी जाती थी। अस्पतालों में घायल पड़े सैनिकों तक को भी गोली मार दी गयी। बुजुर्ग मजदूरों, औरत-मजदूरों और बाल मजदूरों तक की हत्या का यह नरंसहार पूरे जून के महीने चलता रहा। पेरिस लाशों से पट गया। पूँजीपतियो ने कम्यून को खून के समन्दर में डुबो दिया।

मज़दूरों ने अपने रक्त से लिखा अमिट इतिहास

पेरिस कम्यून के शहीदों ने अपने रक्त से एक अमिट इतिहास लिख डाला, सर्वहारा वर्ग की आगे की क्रान्तियों के मार्गदर्शन के लिए उन्होंने बहुमूल्य शिक्षाएं दीं और अपनी शहादतों से रोशनी की एक मीनार खड़ी कर दी।

पेरिस कम्यून ने सर्वहारा वर्ग का कामयाब क्रान्तिकारी संघर्ष छेड़ने और राजकाज चलाने के बेशकीमती अनुभव दिये। वह असफ़ल हो गई, लेकिन उसने 72 दिनों के शासन द्वारा सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व वाली सर्वहारा सत्ता का व सर्वहारा जनतंत्र का एक ऐसा उदाहरण पेश किया, जो सदियों तक मेहनतकशों की राह रौशन करता रहेगा।

पेरिस कम्यून की हार के बाद जो थोड़े से कम्यूनार्ड फ्रांस से बाहर निकल पाये, उनमें से एक यूजीन पोतिए भी थे। जिनका ‘इण्टरनेशनल’ नाम से प्रसिद्ध आह्वान गीत हर देश के मजदूर गाते हैं-

उठ जाग ओ भूखे बन्दी
अब खींचो लाल तलवार
कब तक सहोगे भाई
जालिम का अत्याचार।
तेरे रक्त से रंजित क्रन्दन
अब दस दिशि लाया रंग
ये सौ बरस के बन्धन
मिल साथ करेंगे भंग।
ये अन्तिम जंग है जिसको
जीतेंगे हम एक साथ
गाओ इण्टरेनशनल
भव स्वतंत्रता का गान।

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