फ़िरकापरस्ती के इस दौर में ‘आज़ाद’ को याद करना

अमर शहीद चंद्रशेखर ‘आज़ाद’ के शहादत दिवस (27 फरवरी) की याद में

जिस वक़्त पूरा देश और समाज धार्मिक बंटवारे का शिकार बना दिया गया है, राजधानी दिल्ली को दंगे की आग के हवाले कर दिया गया है, उस वक़्त देश के अमर सपूतों को, उनकी कुरबानियो को याद करना और अहम है। एक तरफ अंग्रेजों के भक्त व साम्प्रदायिक ताकतें थीं जो आज सत्ता में हैं, दूसरी ओर आज़ाद जैसे सच्चे क्रन्तिकारी थे, जिनके वारिश आज भी असली आज़ादी के लिए आज भी जंगे मैदान में हैं।

‘आज़ाद’ की जीवन झांकी

  • हिंदुस्तान की आज़ादी की क्रांतिकारी धारा के अनन्य सिपाही थे अमर शहीद चंद्र शेखर ‘आज़ाद’।
  • आज़ाद का जन्म 23 जुलाई, सन 1906 को मध्य प्रदेश में अलीराजपुर रियासत के भावरा ग्राम (झाबुआ) में हुआ था। उनके पिता का नाम पं. सीताराम तिवारी और माता का नाम श्रीमती जगरानी देवी था।
  • किशोरावस्था में ही आज़ादी के ज़ज़्बे के साथ वे असहयोग आंदोलन में कूद पड़े।
  • गाँधी जी द्वारा असहयोग आंदोलन वापस लेने से आज़ाद का भी मोहभंग हुआ और 1922 में वे संघर्ष की क्रांतिकारी धारा में शामिल हुए।
  • रामप्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाक़, शचीन्द्र नाथ सान्याल आदि के साथ वे हिंदुस्तान रिपब्लिकन एशोसिएशन मज़बूत स्तम्भ बने।
  • काकोरी कांड के बाद भारी दमन के बीच ना केवल वे गिरफ्तारी से बचे रहे, वरन प्रमुख साथियो की गिरफ्तारी और शहादत के बीच दल का पुनर्गठन किया।
  • पुराने क्रान्तिकारियो को एकजुट करते हुए उन्हें भगतसिहं का साथ मिला और दल समाजवाद के विचार के साथ नई ज़मीन पर ‘हिंदुस्तान सोसलिस्ट रिपब्लिकन एशोसिएशन’ (HSRA) बना। आज़ाद कमांडर इन चीफ बने।
  • उन्होंने धार्मिक और साम्प्रदायिक बंटवारे की मुखालफ़त की और इन्शान को सदैव केंद्र में रखा।
  • 27 फरवरी, 1931 को इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में इनकी शहादत हुई।

‘आज़ाद’ के साथी क्रान्तिकारी शिववर्मा की पुस्तक संस्मृतियाँ का एक प्रेरणादायी अंश-

“शोषण का अन्त, मानव मात्र की समानता की बात और श्रेणी-रहित समाज की कल्पना आदि समाजवाद की बातों ने उन्हें मुग्ध-सा कर लिया था। और समाजवाद की जिन बातों को जिस हद तक वे समझ पाये थे उतने को ही आज़ादी के ध्येय के साथ जीवन के सम्बल के रूप में उन्होंने पर्याप्त मान लिया था। वैज्ञानिक समाजवाद की बारीकियों को समझे बग़ैर भी वे अपने-आप को समाजवादी कहने में गौरव अनुभव करने लगे थे। यह बात आज़ाद ही नहीं, उस समय हम सब पर लागू थी। उस समय तक भगतसिंह और सुखदेव को छोड़कर और किसी ने न तो समाजवाद पर अधिक पढ़ा ही था और न मनन ही किया था। भगतसिंह और सुखदेव का ज्ञान भी हमारी तुलना में ही अधिक था। वैसे समाजवादी सिद्धान्त के हर पहलू को पूरे तौर पर वे भी नहीं समझ पाये थे। यह काम तो हमारे पकड़े जाने के बाद लाहौर जेल में सन 1929-30 में सम्पन्न हुआ। भगतसिंह की महानता इसमें थी कि वे अपने समय के दूसरे लोगों के मुक़ाबले राजनीतिक और सैद्धान्तिक सूझबूझ में काफ़ी आगे थे।

“आज़ाद का समाजवाद की ओर आकर्षित होने का एक और भी कारण था। आज़ाद का जन्म एक बहुत ही निर्धन परिवार में हुआ था और अभाव की चुभन को व्यक्तिगत जीवन में उन्होंने अनुभव भी किया था। बचपन में भावरा तथा उसके इर्द-गिर्द के आदिवासियों और किसानों के जीवन को भी वे काफ़ी नज़दीक से देख चुके थे। बनारस जाने से पहले कुछ दिन बम्बई में उन्हें मज़दूरों के बीच रहने का अवसर मिला था। इसीलिए, जैसा कि वैशम्पायन ने लिखा है, किसानों तथा मज़दूरों के राज्य की जब वे चर्चा करते तो उसमें उनकी अनुभूति की झलक स्पष्ट दिखायी देती थी।

“आज़ाद ने 1922 में क्रान्तिकारी दल में प्रवेश किया था। उसके बाद से काकोरी के सम्बन्ध में फरार होने तक उन पर दल के नेता पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल का काफ़ी प्रभाव था। बिस्मिल आर्यसमाजी थे। और आज़ाद पर भी उस समय आर्य समाज की काफ़ी छाप थी। लेकिन बाद में जब दल ने समाजवाद को लक्ष्य के रूप में अपनाया और आज़ाद ने उसमें मज़दूरों-किसानों के उज्ज्वल भविष्य की रूपरेखा पहचानी तो उन्हें नयी विचारधारा को अपनाने में देरी न लगी।

“आज़ाद हमारे सेनापति ही नहीं थे। वे हमारे परिवार के अग्रज भी थे जिन्हें हर साथी की छोटी से छोटी आवश्यकता का ध्यान रहता था। मोहन (बी. के. दत्त) की दवाई नहीं आयी, हरीश (जयदेव) को कमीज़ की आवश्यकता है, रघुनाथ (राजगुरु) के पास जूता नहीं रहा, बच्चू (विजय) का स्वाथ्य ठीक नहीं है आदि उनकी रोज की चिन्ताएँ थीं।…”

संघर्षरत मेहनतकश फेसबुक पेज पर पूर्व में प्रकाशित

About Post Author