क़ौमी एक़ता का प्रतिक था 1946 का नौ-सेना विद्रोह

नौ सेना विद्रोहदिवस: त्रासदपूर्ण बंटवारे के दौर में एकताबद्ध संघर्ष को याद करना और ज़रूरी है!

18 से 23 फ़रवरी 1946 में हुआ ‘नौ सेना विद्रोह’ उन कहानियों में से हैं, जो हमारे नेतागण और किताबें कभी नहीं बताते। बल्कि इसको दबाने की पूर्ण कोशिश करते हैं। हर साल इस देश में 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस मनाया जाता है, लेकिन वे 1946 के उन नाविक मज़दूरों को याद तक नहीं करते, जिनका संघर्ष न केवल स्वतंत्रता संग्राम का अंतिम निर्धारक था, बल्कि इस संघर्ष ने यह सवाल भी उठाया था कि क्रांति के रास्ते और आम मज़दूर व शोषित वर्ग की शक्ति के ऊपर आधारित आज़ादी कैसी होगी?

नौ सेना विद्रोह क्या था?

द्वितीय विश्व युद्ध के शुरुआती समय में ऐसे युवा नौसेना में आये, जिनका नए तरीके से राजनीतिकरण हो रहा था। भगत सिंह से लेकर आज़ाद हिन्द फौज से प्रेरणा ले रहे थे तथा क्रांति और आज़ादी की सोच सता रही थी। इसी कड़ी में, 18 फ़रवरी 1946 का दिन आया, जब HMIS तलवार नामक एक जहाज के नाविक अंग्रेज़ ऑफिसर्स के ख़राब वर्ताव और ख़राब भोजन के विरोध में आवाज़ उठाई और शाम तक हड़ताल पर चले गए। पूरे तंत्र को अपने कब्ज़े में कर लिया, और राष्ट्रवादी आन्दोलन के तीनों राजनीतिक दलों के झंडों – कांग्रेस, मुस्लिम लीग और कम्युनिस्ट – को लगा दिया| साथ ही पूरी दुनिया के रॉयल इंडियन नेवी (RIN) के भारतीय बेड़े को सिग्नल भेज दिया।

यूँ शुरू हुआ नौ सेना का ऐतिहासिक विद्रोह

संघर्ष की शुरुआत 18 फरवरी को घटिया भोजन, भेदभाव और नस्ली अपमान के विरोध में नाविकों द्वारा की गयी भूख हड़ताल के रूप में हुई। उनकी माँगे बेहतर भोजन तथा अंग्रेज और भारतीय नाविकों के लिए समान वेतन की थीं। साथ ही, आजाद हिन्द फौज के सैनिकों व अन्य राजनीतिक कैदियों की रिहाई तथा इण्डोनेशिया से सैनिकों को वापस बुलाये जाने की राजनीतिक माँगे भी थीं।

ये सिगनल्स प्रशिक्षण प्रतिष्ठान ‘तलवार’ के नाविक थे। 19 फरवरी को हड़ताल कैसल और फोर्ट बैरकों सहित बम्बई बन्दरगाह के 22 समुद्री जहाजों में फैल गयी थी। अंग्रेजों की फूट डालो और राज करोकी नीति को धता बताते हुए समुद्री बेड़े के मस्तूलों पर तिरंगे, चाँद और हसिये-हथौड़े वाले झण्डे एकसाथ लहराते दिखे। नाविकों ने जल्द ही चुनाव के माध्यम से एक नौसेना केन्द्रीय हड़ताल समिति का गठन किया जिसके प्रमुख एम.एस. ख़ान थे।

तमाम दबावों के बीच 20 फरवरी को नौसैनिकों ने अपने-अपने जहाज पर लौट जाने के आदेश का पालन किया। वहाँ पर सेना के गार्डों ने उन्हें घेर लिया। 21 फरवरी को जब कैसल बैरकों में नौसैनिकों ने घेरा तोड़ने का प्रयास किया तो लड़ाई छिड़ गयी। पर्याप्त गोला-बारूद जहाज से मिल ही रहा था। एडमिरल गॉडफ्रे द्वारा नौसेना को विमान भेजकर नष्ट करने की धमकी दी गयी।

नौ सैनिकों को मिला मेहनतकश व आम जनता का साथ

दोपहर बाद लोगों की भारी भीड़ नौसैनिकों से स्नेह और एकता को प्रदर्शित करते हुए गेटवे ऑफ इण्डिया पर जुट गयी। इनमें बड़ी संख्या में गोदी मज़दूर, नागरिक और दुकानदार शामिल थे। उनके पास नौसैनिकों के लिए भोजन भी था।

22 फरवरी तक हड़ताल देश भर के नौसेना केन्द्रों और समुद्र में खड़े जहाजों तक फैल गयी। इस वक़्त तक हड़ताल में 78 जहाज और 20 तटीय प्रतिष्ठान शामिल थे। लगभग 20,000 नाविकों ने इन कार्रवाइयों में हिस्सेदारी की। आन्दोलन के समर्थन में आए हिन्दू-मुसलमान मेहनतकश मज़दूरों, विद्यार्थियों और नागरिकों की पुलिस व सेना के साथ हिंसक झडपें हुईं। 22 फरवरी को नाविकों के समर्थन में 3,00,000 मजदूर काम पर नहीं गये। सड़कों पर बैरिकेड खड़े करके जनता ने पुलिस और सेना से लोहा लिया। “कानून व्यवस्था को बहाल करने” के नाम पर अलग से दो सैनिक टुकड़ियाँ लगानी पड़ीं। सरकारी आकलन के मुताबिक ही 228 लोग मारे गए और 1,046 घायल हुए। जबकि वास्तविक संख्या इससे कहीं अधिक है।

यह देश के त्रासदपूर्ण बंटवारे का दौर था

यह भी याद रखने की जरुरत है कि 1946 में विभाजन की स्थिति सिर पर थी और देश में सांप्रदायिक माहौल चरम सीमा पर था। इसी समय, मज़दूरों, छात्रों और आम शोषित जनता ने नौ सेना विद्रोह के आग़ाज़ पर नारा दिया : ‘हिन्दू और मुस्लमान बैरिकेड पर संगठित हो!’ मतलब एक समान शत्रु के खिलाफ संघर्ष के मैदान पर हमें एक होना है, जिसका यह मज़दूर विद्रोह एक जीता जागता उदाहरण था।

कांग्रेस-मुस्लिम लीग आन्दोलन तोड़ने में सलग्न

इस समय यह हड़ताल एक बड़े जन विद्रोह का रूप धारण करने की ओर अग्रसर था। एक तरफ कम्युनिस्ट पार्टी का नेतृत्व मज़दूर वर्ग की इस स्वतंत्र पहल को सक्रिय रूप से समर्थन नहीं दे पाया बल्कि राष्ट्रीय कांग्रेस के हाथों में छोड़ दिया। दूसरी ओर कांग्रेस के नेहरु ने संघर्ष का खंडन किया और बोला कि यह ‘गैरजिम्मेदाराना और हिंसक’ है। गाँधी ने बोला कि मजदूरों को आत्मसमर्पण कर देना चाहिए था।

विद्रोह की समाप्ति 23 फरवरी को नाविकों द्वारा समर्पण करने के रूप में हुई। सरदार पटेल ने जिन्ना की मदद से अंग्रेजों और नाविकों का बिचौलिया बनते हुए और मज़दूरों को सांप्रदायिक तौर पर बाँटने का काम करते हुए उनसे सर्मपण करवाया। आश्वासन दिया गया कि उन्हें अंग्रेजी अन्याय का शिकार नहीं होने दिया जायेगा। लेकिन ये आश्वासन ही रहा।

इस प्रकार इस आन्दोलन को किनारे करते हुए अंततः नाविक मज़दूरों को आत्मसमर्पण की तरफ धकेला गया। ज़्यादातर नाविक मजदूरों को जेल में डाल दिया गया। काफी सारे मज़दूर अंग्रेजों की गोली से मारे गए। नाविकों को नेवी से निकाल दिया गया तथा ‘आजादी’ के बाद भी उनको वापस नहीं लिया गया।

आज नौ सेना विद्रोह का महत्व

आज भी मज़दूर वर्ग की स्वतंत्र पहलों को दबाने में सभी राजनीति नेता और पूँजीपति-साम्राज्यवादी ताकतें एक साथ हो जाते है| मज़दूरों का अपराधीकरण करके दबाया जा रहा है – मारुती सुजुकी मानेसर के 13 नेतृत्वकारी साथियों, प्रिकोल चेन्नई के 2 और गर्जियानों नॉएडा के 4 मज़दूरों को उम्र कैद सुनाकर जेल की सलाखों में डालना इसका जीता जागता उदहारण है। आपस में बाँटने के लिए एक तरफ है अलग-अलग श्रेणियां (जैसे परमानेंट, ट्रेनी, अपरेंटिस, असंगठित, लोकल-बाहर, आदि) में विभाजन, और दूसरी तरफ है उग्र धार्मिक राष्ट्रवाद जो मज़दूरों और शोषितों की तकलीफों का कारण चीन, पाकिस्तान, आतंकवाद आदि-आदि में दिखाता है। सीएए, एनआरसी, एनपीआर आदि के नाम पर धार्मिक बंटवारे का भयावह खेल ताजा उदहारण है| अगर ये सब असफल हो जाए, तो साहेब लोग पकोड़ा बेचने को बोलते हैं।

सेना के ऊपर राजनीति करने वाले उनके पेंशन, सुविधाएं ख़तम होने, तथा बुरे हालत के चलते सेना के अंदर बढ़ती आत्महत्या के बारे में एक शब्द नहीं बोलेंगे, लेकिन किसानों मज़दूरों के बेटों को मारने के लिए उकसाएंगे, आपस में लड़वाएंगे। एक आम जवान तेज बहादुर को भी सिर्फ सेना में ख़राब क्वालिटी के भोजन के बारे में सवाल उठाने के लिए बर्खास्त कर दिया जाता है।

शोषण व धार्मिक बंटवारे के ख़िलाफ़ बग़ावत ही सच्ची श्रद्धांजलि

इस सप्ताह नौ सेना विद्रोह की 74वीं वर्षगाँठ पर आईये, हम इस संघर्ष को याद करें, जिसने एक मज़दूर वर्ग की स्वतंत्र पहल और ताकत दर्शाया। जिसने जाति-धर्म के बंटवारे की दीवार को तोडा| उस समय के मौजूदा राजनितिक संगठनों के धोखा देने के बावजूद यह प्रवृत्ति जिंदा रही और आज भी, यह पूछने की हिमाकत कर रही है कि मज़दूर व शोषित वर्ग की एकत्रित ताकत पर आधारित क्रांति और आज़ाद समाज तथा इंसान कैसा होगा, भगत सिंह के सपनों का देश कैसा होगा?

आइए, नौ सेना के बहादुर सपूतों से प्रेरणा लें, इन्सान को इन्सान से बांटने के सत्ताधारी मंसूबों को ध्वस्त करें, कौमी एकता को मजबूत करते हुए ज़िन्दगी के असल समस्याओं के ख़िलाफ़ संघर्ष को तेज करें और शहीदों के सपनों के समाज – शोषण विहीन समाज के निर्माण के संघर्षों को मंजिल तक पहुंचाएं!

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