सिनेमा मार्डन टाइम्सः महामंदी की अद्भुत दास्तान

मज़दूर जमात के लिए चार्लिन चैपलिन की एक शानदार फिल्म. . .

महामंदी का वह दौर, भयावह बेरोजगारी, और विकट हालत से जूझते एक मज़दूर की ज़िन्दगी. . . चार्ली चापलिन की फिल्म ‘माडर्न टाइम्स’ आज के समय का भी दर्पण है। मज़दूर साथियों को यह फिल्म क्यों देखना चाहिए, साथी दिनेश श्रीनेत्र की 10 साल पहले लिखी यह समीक्षा पढ़ें. . .

क्या अतीत आज का वक्त समझने की कुंजी बन सकता है। मुझे मालूम नहीं कि इतिहासविद और राजनीति के विशेषज्ञों के पास इस बात का क्या जवाब होगा मगर विश्व का महान सिनेमा सिर्फ तत्कालीन नहीं बल्कि मौजूदा समय की पर्तें भी खोलता है। यह माध्यम जो सिनेमैटोग्राफी के जरिए अपने समय का सबसे प्रामाणिक चित्रण करता है- और कथा, पात्रों के बीच अंतर्संबंध और छवियों के जरिए अपनी बात कहता है- आखिर कैसे एक सार्वकालिक रचना का रूप ले लेता है?

मेरे पास इसका सबसे बेहतरीन उदाहरण चार्ली चैपलिन की फिल्म ‘मार्डन टाइम्स’ है, जिस पर मुझे लगता है कि थोड़ा विस्तार से बात करने की जरूरत है। गुजरे बरस की महामंदी को जिसने भी थोड़ा भी करीब जानने-समझने की कोशिश की हो, उनसे सिफारिश है कि वे चार्ली चैपलिन की फिल्म ‘मार्डन टाइम्स’ जरूर देखें।

सन 1936 में आई यह फिल्म मौजूदा भारत के साथ अपनी साम्यता के चलते आपको हैरत में डाल देगी। यह यकीन करना मुश्किल है कि चैपलिन सात दशक पहले सिर्फ अपने समय का चित्रण कर रहे थे। फिल्म का हर गुदगुदाने वाला प्रसंग जिन सामाजिक संदर्भों से जुड़ा है, उसने हम इतनी जल्दी खुद को जोड़ लेते हैं कि लगता है कि चैपलिन हमारी जिंदगी को किसी परीकथा में बदलकर हमें सुना रहे हैं। चैपलिन की करुणा भरी हंसोड़ प्रवृति और उसके जीवन में किसी अनिवार्य तत्व की तरह मौजूद एब्सर्डनेस एक ठेठ भारतीय जिंदगी कि विडंबना लगती है।

फिल्म की शुरुआत होती है कि एक फैक्टरी से, जहां एसेंबली लाइन में चैपलिन काम में जुटा होता है। उसका काम होता है तेजी से गुजरती प्लेटों के नट कसना। मालिक के आदेश पर थोड़ी-थोड़ी देर में स्पीड बढ़ा दी जाती है। इसी बीच एक कंपनी लंच टाइम में होने वाले खर्च बचाने के लिए एक ऐसी मशीन लेकर आती है जो कर्मचारियों को अपने-आप खाना खिलाएगी। फिल्म में लंच मशीन बनाने वाली कंपनी के प्रतिनिधि एक रिकार्डेड संदेश लेकर आते हैं। फिल्म में इस संदेश को सुनकर आप खुद ही समझ सकते हैं कि यह कितना दिलचस्प और हमारे समय की कारपोरेट शब्दावली से कितना मेल खाता है, संदेश कुछ इस तरह शुरु होता है-

गुडमार्निंग, माई फ्रैंड्स। यह संदेश सेल्स टॉक ट्रांसक्रिप्शन कंपनी की मार्फत इस स्पीकर में इनकारपोरेट होकर यानी मैकेनिकल सेल्समैन के जरिए आप तक पहुंच रहा हैः मैं आपका परिचय कराता हूं मिस्टर जे. विडेकांब बिलोज से, जो बिलोज फीडिंग मशीन के अविष्कारक हैं। यह एक प्रैक्टिकल डिवाइस है जो आपके कर्मचारियों को काम करने के दौरान ही खाना खिलाती रहेगी। अब लंच के दौरान काम रोकने की जरूरत नहीं, अपने कंपटीटर से आगे निकलिए। बिलोज फीडिंग मशीन दोपहर के भोजन के समय की भरपाई करते हुए आपकी प्रोडक्शन बढ़ाएगी और आपके खर्चे कम करेगी। हम आपको इस शानदार मशीन के कुछ फीचर बताना चाहेंगेः इसकी बनावट खूबसूरत, एयरोडायनमिक और स्ट्रीमलाइन्ड है। इलेक्ट्रो-पोरस मेटल वाल-बियरिंग की वजह से यह बिना आवाज काम करती है। देखिए हमारी आटोमेटिक सूप प्लेट- इसमें कंप्रेस्ड एयर ब्लोअर लगा है, फूंकने की जरूरत नहीं, सूप को ठंडा करने में कोई ऊर्जा नहीं लगेगी। गौर करिए आटोमेटिक फूड पल्सर वाली रिवाल्विंग प्लेट पर- देखिए डबल-नी एक्शन वाला हमारा कार्नफीडर, अपने सिंक्रो-मैश ट्रांसमिशन के चलते यह जुबान के स्पर्श भर से इसे हाई या लो गेयर में बदल देता है। और अब देखें मुंह पोंछने के लिए हमारा हाइड्रो-कंप्रेस्ड स्टेरलाइज्ड वाइपर…..याद रखें, यदि आप आप अपने प्रतिस्पर्धी से आगे निकलना चाहते हैं तो बिलोज फीडिंग मशीन के महत्व को नजरअंदाज नहीं कर सकते…”

मगर चैपलिन पर प्रयोग के दौरान ही मशीन खराब हो जाती है और आर्डर कैंसिल हो जाता है। इसके बाद आता है फिल्म का वह अद्भुत दृश्य जिसमें तेजी से चलती एसेंबली लाइन के नट चैपलिन नहीं कस पाता है और उसके पीछे-पीछे मशीन के भीतर चला जाता है। मशीन के भीतर विशालकाय पहियों और कांटों के बीच घूमता चैपलिन का शरीर, यह दृश्य असाधारण प्रतीक की रचना करता है। चैपलिन का दिमाग खराब हो जाता है और वह अपने सामने मौजूद हर चीज को रिंच से कसने की कोशिश करता है। फैक्टरी मालिक की सेक्रेटरी की स्कर्ट पर लगे बटन को कसने भी वह दौड़ पड़ता है।

चैपलिन को मानसिक चिकित्सालय में भर्ती कर दिया जाता है। वहां से स्वस्थ होने के बाद वह बाहरी दुनिया में कदम रखता है तो सब कुछ बदल चुका होता है। फैक्टरियां बंद हो चुकी हैं और बढ़ी संख्या में बेरोजगार धरना-प्रदर्शन कर रहे हैं। एक गाड़ी से गिरे झंडे को लौटाने चैपलिन दौड़ता है तो बेरोजगारों की भीड़ उसे नेता समझकर पीछे-पीछे दौड़ पड़ती है, पुलिस लाठीचार्ज होता है। बाकी लोग भाग जाते हैं मगर चैपलिन को कम्यूनिस्ट नेता समझकर गिरफ्तार कर लिया जाता है।

कहानी इसके बाद कई मोड़ लेती है चैपलिन के जीवन में एक लड़की का प्रवेश होता है। और हम देखते हैं सड़कों पर भूख से लड़े बेरोजगार परिवार, जिनके पास न रहने का ठिकाना है और न खाने का। फिल्म में एक संपन्न दंपति को देखकर चैपलिन वैसे ही जीवन की कल्पना करता है मगर वास्तविक जीवन की परेशानियां वहां भी पीछा नहीं छोड़ती हैं। चैपलिन को एक शॉपिंग माल में नौकरी मिलती है, रात को उस विशाल मॉल जैसे उनकी ख्वाहिशों के संसार में बदल जाता है। किसी फ्लोर पर खिलौने हैं, किसी पर बेहतरीन कपड़े तो किसी पर खूबसूरत फर्नीचर… इस फिल्म का हर पल हमें हमारे समय की याद दिलाता है…

अगर गौर करें तो ऐसा सिर्फ चैपलिन के साथ नहीं है, हम बहुत सी फिल्मों में अपने मौजूदा वक्त को देख सकते हैं। ‘सिटिजन केन’ में मीडिया टायकून चार्ल्स फास्टर केन मौजूदा वक्त के रूपर्ट मर्डोक की याद दिलाता है। फिल्म ‘प्यासा’ में प्रकाशकों का अवसरवादी रुख कमोवेश मौजूदा दौर में मीडिया की कार्यप्रणाली को दर्शाता है। जहां व्यक्ति का नहीं बिकने वाली वस्तु का महत्व है। बाजार किस तरह से जीवन के हर क्षेत्र को, लोगों को और यहां तक कि मूल्यों को भी संचालित करता है, इसे हम बहुत साफ तौर पर ‘श्री 420’ में देख सकते हैं। फिल्म को याद करें तो नायक राजकपूर की दुविधा के जवाब में मानो जीवन का तत्कालीन मूल्य दर्शाते गीत- मुड़-मुड़ के ना देख… की यह पंक्तियां मौजूद होती हैं-

दुनिया के साथ जो बदलता जाए
जो इसके साँचे में ही ढलता जाए
दुनिया उसी की हैं जो चलता जाए
मुड़-मुड़ के ना देख, मुड़-मुड़ के

हालांकि यह दिलचस्प है कि जब हम पलटकर देखते हैं तो अपने आज को और बेहतर जानने की कोशिश कर रहे होते हैं।

इंडियन बॉयोस्कोप https://www.indianbioscope.com/ से साभार

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