इस सप्ताह : असग़र वजाहत की लघुकथाएं !

शाहीन बाग़ की महिलाएं / असग़र वजाहत

पुलिस – आप लोग प्रदर्शन मत कीजिए । यहां से चले जाइए। धारा 144 लगी है। कानून का पालन कीजिए।

शाहीन बाग़ की महिलाएं- जनाब, अगर हमेशां, हर कानून को माना गया होता तो आज हमारा मुल्क गुलाम होता।

पुलिस – ये क्या कह रही हो तुम लोग ?

शाहीन बाग़ की महिलाएं- अंग्रेज़ सरकार भी यही कहती थी कि कानून का पालन करो। उस वक़्त महात्मा गांधी, दूसरे नेताओं और जनता ने अगर कानून का पालन किया होता तो हमें आज़ादी न मिलती।

पुलिस- अंग्रेजों की सरकार और हमारी सरकार में अंतर है। तब देश गुलाम था लेकिन आज देश आज़ाद है। देश में लोकतंत्र है।

शाहीन बाग़ की महिलाएं- डेमोक्रेसी है तो आज भी देश में वही कानून क्यों चल रहा है जो अंग्रेजों की सरकार में था? आज़ाद मुल्क में गुलाम देश का कानून नहीं चल सकता। इसलिए हम कहीं नहीं जाएंगे।


योद्धा / असगर वज़ाहत

किसी देश में एक बहुत वीर योद्धा रहता था। वह कभी किसी से न हारा था। उसे घमंड हो गया था। वह किसी को कुछ न समझता था। एक दिन उसे एक दरवेश मिला। दरवेश ने उससे पूछा– “तू इतना घमंड क्यों करता है?”

योद्धा ने कहा– “संसार में मुझ जैसा वीर कोई नहीं है।”

दरवेश ने कहा– “ऐसा तो नहीं है।”

योद्धा को क्रोध आ गया– “तो बताओ, पूरे संसार में ऐसा कौन है, जिसे मैं हरा न सकता हूँ।”

दरवेश ने कहा– “चींटी है।”

यह सुनकर योद्धा क्रोध से पागल हो गया। वह चींटी की तलाश में निकलने ही वाला था कि उसे घोड़ी की गर्दन पर चींटी दिखाई दी। योद्धा ने चींटी पर तलवार का वार किया। घोड़े की गर्दन उड़ गई। चींटी को कुछ न हुआ। योद्धा को और क्रोध आया। उसने चींटी को ज़मीन पर चलते देखा। योद्धा ने चींटी पर फिर तलवार का वार किया। खूब धूल उड़ी। चींटी योद्धा के बाएँ हाथ पर आ गई। योद्धा ने अपने बाएँ हाथ पर तलवार का वार किया, उसका बायाँ हाथ उड़ गया। अब चींटी उसे सीने पर रेंगती दिखाई दी। वह वार करने ही वाला था कि अचानक दरवेश वहाँ आ गया। उसने योद्धा का हाथ पकड़ लिया।

योद्धा ने हाँफते हुए कहा– “अब मैं मान गया। बड़े से, छोटा ज़्यादा बड़ा होता है।”


बंदर / असग़र वजाहत

एक दिन एक बंदर ने एक आदमी से कहा– “भाई, करोड़ों साल पहले तुम भी बंदर थे। क्यों न आज एक दिन के लिए तुम फिर बंदर बनकर देखो।”

यह सुनकर पहले तो आदमी चकराया, फिर बोला– “चलो ठीक है। एक दिन के लिए मैं बंदर बन जाता हूँ।”

बंदर बोला– “तो तुम अपनी खाल मुझे दे दो। मैं एक दिन के लिए आदमी बन जाता हूँ।” इस पर आदमी तैयार हो गया।

आदमी पेड़ पर चढ़ गया और बंदर ऑफिस चला गया। शाम को बंदर आया और बोला– “भाई, मेरी खाल मुझे लौटा दो। मैं भर पाया।”

आदमी ने कहा– “हज़ारों-लाखों साल मैं आदमी रहा। कुछ सौ साल तो तुम भी रहकर देखो।”

बंदर रोने लगा– “भाई, इतना अत्याचार न करो।” पर आदमी तैयार नहीं हुआ। वह पेड़ की एक डाल से दूसरी, फिर दूसरी से तीसरी, फिर चौथी पर जा पहुँचा और नज़रों से ओझल हो गया। विवश होकर बंदर लौट आया।

और तब से हक़ीक़त में आदमी बंदर है और बंदर आदमी।


राजा / असग़र वजाहत

उन दिनों शेर और लोमड़ी दोनों का धंधा मंदा पड़ गया था। लोमड़ी किसी से चिकनी-चुपड़ी बातें करती तो लोग समझ जाते कि दाल में कुछ काला है। शेर दहाड़कर किसी जानवर को बुलाता तो वह जल्दी से अपने घर में घुस जाता। ऐसे हालात से तंग आकर एक दिन लोमड़ी और शेर ने सोचा कि आपस में खालें बदल लें। शेर ने लोमड़ी की खाल पहन ली और लोमड़ी ने शेर की खाल।

अब शेर को लोग लोमड़ी समझते और लोमड़ी को शेर। शेर के पास छोटे-मोटे जानवर अपने आप चले आते और शेर उन्हें गड़प जाता।

लोमड़ी को देखकर लोग भागते तो वह चिल्लाती ‘अरे सुनो भाई. . .अरे इधर आना लालाजी. . .बात तो सुनो पंडितजी!’ शेर का यह रंग-ढंग देखकर लोग समझे कि शेर ने कंठी ले ली है। वे शेर, यानी लोमड़ी के पास आ जाते। शेर उनसे मीठी-मीठी बातें करता और बड़े प्यार से गुड़ और घी मांगता। लोग दे देते। खुश होते कि चलो सस्ते छूटे।

एक दिन शेर लोमड़ी के पास आया और बोला, ‘मुझे अपना दरबार करना है। तुम मेरी खाल मुझे वापस कर दो। मैं लोमड़ी की खाल में दरबार कैसे कर सकता हूं?’ लोमड़ी ने उससे कहा, ‘ठीक है, तुम परसों आना।’ शेर चला गया।

लोमड़ी बड़ी चालाक थी। वह अगले ही दिन दरबार में चली गई। सिंहासन पर बैठ गई। राजा बन गई।

दोस्तो, यह कहानी बहुत पुरानी है। आज जो जंगल के राजा हैं वे दरअसल उसी लोमड़ी की संतानें हैं, जो शेर की खाल पहनकर राजा बन गई थी।



असग़र वजाहत

जन्म – 5 जुलाई, 1946

हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में मुख्यतः साठोत्तरी पीढ़ी के बाद के महत्त्वपूर्ण कहानीकार एवं सिद्धहस्त नाटककार के रूप में मान्य हैं। इन्होंने कहानी, नाटक, उपन्यास, यात्रा-वृत्तांत, फिल्म तथा चित्रकला आदि विभिन्न क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण रचनात्मक योगदान किया है। ये दिल्ली स्थित जामिया मिलिया इस्लामिया में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके हैं।


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