सप्ताह की कविता : फ़ैज अहमद फ़ैज की नज्में !

बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे / फ़ैज अहमद फ़ैज

बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे
बोल ज़बाँ अब तक तेरी है
तेरा सुत्वाँ जिस्म है तेरा
बोल कि जाँ अब तक तेरी है
देख कि आहन-गर की दुकाँ में
तुंद हैं शोले सुर्ख़ है आहन
खुलने लगे क़ुफ़्लों के दहाने
फैला हर इक ज़ंजीर का दामन
बोल ये थोड़ा वक़्त बहुत है
जिस्म ओ ज़बाँ की मौत से पहले
बोल कि सच ज़िंदा है अब तक
बोल जो कुछ कहना है कह ले


निसार मैं तिरी गलियों के ऐ वतन / फ़ैज अहमद फ़ैज

निसार मैं तिरी गलियों के ऐ वतन कि जहाँ
चली है रस्म कि कोई न सर उठा के चले
जो कोई चाहने वाला तवाफ़ को निकले
नज़र चुरा के चले जिस्म ओ जाँ बचा के चले
है अहल-ए-दिल के लिए अब ये नज़्म-ए-बस्त-ओ-कुशाद
कि संग-ओ-ख़िश्त मुक़य्यद हैं और सग आज़ाद
बहुत है ज़ुल्म के दस्त-ए-बहाना-जू के लिए
जो चंद अहल-ए-जुनूँ तेरे नाम-लेवा हैं
बने हैं अहल-ए-हवस मुद्दई भी मुंसिफ़ भी
किसे वकील करें किस से मुंसिफ़ी चाहें
मगर गुज़ारने वालों के दिन गुज़रते हैं
तिरे फ़िराक़ में यूँ सुब्ह ओ शाम करते हैं
बुझा जो रौज़न-ए-ज़िंदाँ तो दिल ये समझा है
कि तेरी माँग सितारों से भर गई होगी
चमक उठे हैं सलासिल तो हम ने जाना है
कि अब सहर तिरे रुख़ पर बिखर गई होगी
ग़रज़ तसव्वुर-ए-शाम-ओ-सहर में जीते हैं
गिरफ़्त-ए-साया-ए-दीवार-ओ-दर में जीते हैं
यूँही हमेशा उलझती रही है ज़ुल्म से ख़ल्क़
न उन की रस्म नई है न अपनी रीत नई
यूँही हमेशा खिलाए हैं हम ने आग में फूल
न उन की हार नई है न अपनी जीत नई
इसी सबब से फ़लक का गिला नहीं करते
तिरे फ़िराक़ में हम दिल बुरा नहीं करते
गर आज तुझ से जुदा हैं तो कल बहम होंगे
ये रात भर की जुदाई तो कोई बात नहीं
गर आज औज पे है ताला-ए-रक़ीब तो क्या
ये चार दिन की ख़ुदाई तो कोई बात नहीं
जो तुझ से अहद-ए-वफ़ा उस्तुवार रखते हैं
इलाज-ए-गर्दिश-ए-लैल-ओ-नहार रखते हैं


चलो फिर से मुस्कुराएं / फ़ैज अहमद फ़ैज

चलो फिर से मुस्कुराएं
चलो फिर से दिल जलाएं

जो गुज़र गयी हैं रातें
उन्हें फिर जगा के लाएं
जो बिसर गयी हैं बातें
उन्हें याद में बुलायें
चलो फिर से दिल लगायें
चलो फिर से मुस्कुराएं

किसी शह-नशीं पे झलकी
वो धनक किसी क़बा की
किसी रग में कसमसाई
वो कसक किसी अदा की
कोई हर्फे-बे-मुरव्वत
किसी कुंजे-लब से फूटा
वो छनक के शीशा-ए-दिल
तहे-बाम फिर से टूटा

ये मिलन की, नामिलन की
ये लगन की और जलन की
जो सही हैं वारदातें
जो गुज़र गयी हैं रातें
जो बिसर गयी हैं बातें
कोई इनकी धुन बनाएं
कोई इनका गीत गाएं
चलो फिर से मुस्कुराएं
चलो फिर से दिल लगाएं


हम देखेंगे / फ़ैज अहमद फ़ैज

हम देखेंगे
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिसका वादा है
जो लोह-ए-अज़ल[1] में लिखा है
जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गरां [2]
रुई की तरह उड़ जाएँगे
हम महकूमों[3] के पाँव तले
ये धरती धड़-धड़ धड़केगी
और अहल-ए-हकम[4] के सर ऊपर
जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी
जब अर्ज-ए-ख़ुदा के काबे से
सब बुत[5] उठवाए जाएँगे
हम अहल-ए-सफ़ा[6], मरदूद-ए-हरम[7]
मसनद पे बिठाए जाएँगे
सब ताज उछाले जाएँगे
सब तख़्त गिराए जाएँगे

बस नाम रहेगा अल्लाह[8] का
जो ग़ायब भी है हाज़िर भी
जो मंज़र[9] भी है नाज़िर[10] भी
उट्ठेगा अन-अल-हक़[11] का नारा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
और राज़ करेगी खुल्क-ए-ख़ुदा[12]
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो

  1. विधि के विधान
  2. घने पहाड़
  3. रियाया या शासित
  4. सताधीश
  5. सत्ताधारियों के प्रतीक पुतले
  6. साफ़ सुथरे लोग
  7. धर्मस्थल में प्रवेश से वंचित लोग
  8. ईश्वर
  9. दृश्य
  10. देखने वाला
  11. मैं ही सत्य हूँ या अहम् ब्रह्मास्मि
  12. आम जनता

नसीब आज़माने के दिन आ रहे हैं / फ़ैज अहमद फ़ैज

नसीब आज़माने के दिन आ रहे हैं
क़रीब उनके आने के दिन आ रहे हैं
जो दिल से कहा है जो दिल से सुना है
सब उनको सुनाने के दिन आ रहे हैं
अभी से दिल-ओ-जाँ सरे-राह रख दो
के लुटने लुटाने के दिन आ रहे हैं
टपकने लगी उन निगाहों से मस्ती
निगाहें चुराने के दिन आ रहे हैं
सबा फिर हमें पूछती फिर रही है
चमन को सजाने के दिन आ रहे हैं
चलो ‘फ़ैज़’ फिर से कहीं दिल लगाएँ
सुना है ठिकाने के दिन आ रहे हैं


क़र्ज़े-निगाहे-यार अदा कर चुके हैं हम / फ़ैज अहमद फ़ैज

क़र्जे-निगाहे-यार अदा कर चुके हैं हम
सब कुछ निसारे-राहे वफ़ा कर चुके हैं हम
कुछ इम्तहाने-दस्ते-जफ़ा कर चुके हैं हम
कुछ उनकी दस्तरस का पता कर चुके हैं हम
अब अहतियात की कोई सूरत नहीं रही
क़ातिल से रस्म-ओ-राह सिवा कर चुके हैं हम
देखें, है कौन-कौन, ज़रूरत नहीं रही
कू-ए-सितम में सब को ख़फ़ा कर चुके हैं हम
अब अपना अख़्तियार है, चाहे जहाँ चलें
रहबर से अपनी राह जुदा कर चुके हैं हम
उनकी नज़र में, क्या करें, फीका है अब भी रंग
जितना लहू था, सर्फ़े-क़बा कर चुके हैं हम
कुछ अपने दिल की ख़ू का भी शुक्राना चाहिए
सौ बार उनकी ख़ू का गिला कर चुके हैं हम


सवाल उठाना वाज़िब है / फ़ैज अहमद फ़ैज

जिस देस से माओं बहनों को
अग़यार* उठाकर ले जाऐं.
जिस देस के क़ातिल ग़ुंडों को
अशराफ़* छुड़ाकर ले जाऐं.
जिस देस की कोर्ट कचहरी में
इंसाफ़ टकों में बिकता हो.
जिस देस का मुंशी,क़ाज़ी भी
मुजरिम से पूछ के लिखता हो.
जिस देस के चप्पे चप्पे पर
पुलिस के नाके होते हों.
जिस देस के मंदिर मस्जिद में
हर रोज़ धमाके होते हों.
जिस देस में जान के रखवाले
ख़ुद जानें लें मासूमों की.
जिस देस में हाकिम ज़ालिम हों
सिस्की ना सुनें मजबूरों की.
जिस देस के आदिल* बहरे हों
आहें ना सुनें मासूमों की.
जिस देस के गलियों कूचों में
हर सिम्त फ़हाशी* फैली हो.
जिस देस में बिन्ते हव्वा* की
चादर भी दाग़ से मैली हो.
जिस देस में आटा चीनी का
बोहरान* फ़लक तक जा पहुंचे.
जिस देस में बिजली पानी का
फ़ुक़दान* हलक़ तक जा पहुंचे.
जिस देस में हर चौराहे पर
दो चार भिकारी फिरते हों.
जिस देस में रोज़ जहाज़ों से
इमदादी थैले गिरते हों.
जिस देस में ग़ुरबत माओं से
बच्चे नीलाम कराती हो.
जिस देस में दौलत शुरफ़ा* से
नाजायज़ काम कराती हो.
जिस देस में औहदे दारों से
औहदे ना संभाले जाते हों.
जिस देस में सादालोह* इंसान
वादों पे ही टाले जाते हों.
उस देस के हर इक लीडर पर
सवाल उठाना वाजिब है.
उस देस के हर इक हाकिम को
सूली पर चढ़ाना वाजिब है.!!


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