इस सप्ताह आदित्य कमल की कविताएं : देश सुरक्षित हाथों में है !

देश सुरक्षित हाथों में है ! / आदित्य कमल

शासक कहता है – घबराओ मत
देश सुरक्षित हाथों में है !
उधर लोग मदमत्त झूमने लगते हैं
इधर लोग काँपते रहते हैं
देखते रहते हैं अपने को
देखते रहते हैं – वह हाथ
ताकते रहते हैं टुकुर-टुकुर देश !!

क्या सुरक्षित है यहाँ?
करोड़ों लोगों की दो जून की रोटी
दिहाड़ी, काम-धाम
खेती-बाड़ी, नौकरी, रोजगार
बच्चे, बूढ़े, औरत, नौजवान
हमारी आत्मा, हमारी जान
शिक्षा-दीक्षा, स्वास्थ्य, सुकून
हमारी साँसें, हमारी आवाज
गली-रास्ता, मोहल्ला-समाज
क्या सुरक्षित है यहाँ?
कौन सुरक्षित है यहाँ?

हम बिल्कुल सुरक्षित नहीं हैं
तुम्हारे शासन में, लुटेरों !
यहाँ तो सुरक्षित है सिर्फ –
तुम्हारी लूट की बुनियाद
ज़हरीली नफ़रत और उन्माद
हवस का कीचड़-गाद।
ठगो मत हमें,
तुम्हारी पैदा की हुई हैं – असुरक्षाएँ
और उस पर फैलाते हो
असुरक्षा का और भी गहरा भय
फिर देते हो आश्वासन अभय का…
……… सुरक्षा का !

दरअसल तुम
अपने हाथ सुरक्षित करना चाहते हो, धूर्तो !
ताकि दबाए रख सको हमारी गर्दन
खींचते रहो धरती पर अपनी-अपनी लकीरें
गाड़े रहो अपने झंडे
गींजते रहो निजी संपत्ति की लिप्सा के लीद
और बचाए रख सको अपनी गद्दी !


हत्यारा / आदित्य कमल

इस हत्यारे समय में
होती रहती है हत्या, या फिर हत्याएँ
मौत तो आम है – कभी भी, कहीं भी।
और आमतौर पर
दे दिए जाते हैं जाँच के आदेश भी
कर दिया जाता है ऐलान कि
दोषियों को हरगिज़ बख्शा नहीं जाएगा इस बार।

लेकिन हत्याओं का सिलसिला
है कि थमता ही नहीं
अपराधों की बढ़ती ही जाती है कड़ी
मरते रहते हैं लोग….
यहाँ तक कि हो जाती है – हत्या
सबूत और गवाह तक की
यहाँ तक कि जांच करने वालों की भी
और फिर से शुरु होती है एक नई जांच
फिर सबूत, फिर गवाह
और फिर ……हत्या !
कोई साजिश है या यही है आम तरीका?

सब आम ही है आजकल –
हत्याओं का सिलसिला भी
जांच का सिलसिला भी
हत्यारे के ‘अब तक ना पकड़े जाने’
का सिलसिला भी ……..!
और बार-बार यह दुहराना भी कि
दोषियों को हरगिज़ बख्शा नहीं जाएगा इस बार।

क्या आपको पता है
कि इसकी कड़ी आखिर
कहाँ जाकर जुड़ती है?
नहीं पता तो, पता तो करना होगा
करनी ही होगी शिनाख्त – असल हत्यारे की।
ज़िंदगी कोई जासूसी फिल्म तो है नहीं,
कि अंत में पर्दा उठे और सामने आए – हत्यारा !
और तब हम भौंचक रह जाएँ — अरे !!!

अरे, वो तो इसबार भी ढिठाई से कह रहा है-
दोषियों को हरगिज़ बख्शा नहीं जाएगा इस बार !!


जलियानवाला बाग़ है /आदित्य कमल

कुछ सीने पे, कुछ रूह में; कहीं ज़ख्म है, कहीं दाग़ है
अब तो समूचा मुल्क ही, जलियानवाला बाग़ है।

पूंजी का है आखेट, और शिकारी कुत्ते भी वही
कहीं हादसों की चीख है; कहीं शोर, भागमभाग है।

कहीं क़त्ल है, कहीं लूट है, व्यभिचार है, उन्माद है
सड़कों पे कर्फ्यू है लगा, हर सितम ज़िंदाबाद है।

हैं बंद सारे रास्ते, बाड़े लगे हैं हर तरफ
उफ, अगजनी का खेल है; और बिखरी हर सू राख है।

हर ओर ख़ूनी जश्न है, अब घर से चौराहे तलक
कानून का वही ढोंग है और न्याय का खटराग है।

डायर अभी भी जिंदा है, आदेश आका का वही
वही ज़ुल्म है, वही धौंस है, वही हुक्म- गोली दाग़ है।

पर सुन सितमगर; ज़ुल्म है तो ज़ुल्म का प्रतिकार भी
नये उधम हैं, नया भगत है; नयी क्रांतिकारी आग है।



कवि : आदित्य कमल
जन्मतिथि : 25 दिसंबर 1959


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