इस सप्ताह आदित्य कमल की तीन कविताएं !

हमें सीखना चाहिए / आदित्य कमल
हमें नफ़रत करनी चाहिए
इस घुटन भरी जिंदगी से
मोटी हो रही चमड़ी से
इस सीलन भरी कोठरी से
फैल रही तंगनज़री से
इस कचरे से, इस गंदगी से
झुक-झुक कर की जा रही
रीढविहीन सलाम-बंदगी से।
हमें नफ़रत करना सीखना चाहिए
एकांगीपन की नीरसता से
अपनी बेड़ियों से, विवशता से
आत्महीनता से.. अंधता से
गुलामी की दीनता से
नशे में डाल दी गई ज़िंदगी से
नफ़े के लिए बेतरह खंगाल ली गई ज़िंदगी से।
हम बैल नहीं हैं जो खटा-खटा कर
बाँध दिए जाएँ बस नाद पर
या फिर खदेड़ दिए जाएँ
आवारा पशुओं की तरह
ज़िंदगी की तलछटों की गाद पर
हमें बार-बार सर झटकना चाहिए
और जुए को पटकना चाहिए।
हम मनुष्य हैं तो
हमारे ह्रदय में उगनी ही चाहिए
आकांक्षाओं की नयी-नयी पौध
मुक्ति की चाह !
पनपना चाहिए विद्रूपताओं के प्रति क्रोध
होनी चाहिए ज्ञान की प्यास, विज्ञान का बोध
हमें देखने चाहिए सपने, करना चाहिए प्यार !
हमें तेज़ करते रहना चाहिए
अपने लड़ने के हथियार !
और करना चाहिए वार… बार-बार !!
हमें लगातार सीखते रहना चाहिए
अपनी लड़ाइयों के गुर
कभी नहीं छोड़ना चाहिए साहस
चाहे समय कितना भी विपरीत हो
हम भूलें नहीं –
अपने होठों पर जरूर
संघर्ष का कोई प्यारा सा गीत हो।

वह कल भी हारा था / आदित्य कमल
वह कल भी हारा था
कल भी हारेगा
माना कि उसके हाथ बहुत लंबे हैं
माना, उसकी चालें बड़ी शातिर हैं
माना, वह सारी दुनिया पर काबिज़ है
माना कि उसके पास सिपाही-सेना
जनरलों, मार्शलों, सचिवों का दल-बल है
दिग्गज, माहिर, चालाक योजनाकर्ता
अमलों-जमलों की टीम सशक्त सबल है
है भजनमंडली मुद्रा के गीतों का
साहित्यकार जैकारा करते उसके
अखबारों में है उसका बड़ा घराना
है कब्ज़े में सब न्यूज़-व्यूज के चैनल
सिद्धांतकार सिद्धांत बनाते बैठे
विद्यालय उसके और महाविद्यालय
हैं शोध-संस्थाएँ भारी-भरकम भी
एकाधिकार है, सबपर उसका कब्ज़ा
फिर किन आशंकाओं में वह डूबा है?
माना दौलत की ताक़त से वह फूला
वह रौंद रहा है दुनिया का हर कोना
वह आज़ादी का भोग भोगता खुलकर
हत्याएँ करता, आज़ादी से हँसता
बेरोक-टोक वह लूट-पाट में शामिल
दुनिया की शीर्ष संस्थाओं का मालिक
आकंठ लिप्त घोटालों-षड्यंत्रों में
क़ानून उसी का, दाँव-पेंच सब उसके
मैदान उसीका और हथियार उसी के
है युद्ध उसी का और बाजार उसी के
पंडित, मुल्ले, ग्रंथी और पादरी उसके
आचार्य, महा-आचार्य, पोप-सब उसके
हैं मध्य वर्ग के हिस्से पोसे-पाले
जुआ-सट्टा उसका सर्वप्रिय व्यसन है
सब लोट-पोट, नंगई, वासनामय है
वह कहता है, अब उसकी विश्वविजय है
फिर किन आशंकाओं में वह डूबा है?
दिन-रात एक ही सोच में वह डूबा है
कि चाहे जो भी करना पड़े उपाय
मज़दूर वर्ग बस एक न होने पाए
वह काँप रहा है एकमात्र इस भय से
वह घिरा हुआ आशंकाओं में हर पल
सब सज-धज के भीतर झाँको, तो देखो
वह दिखता है जर्जर, वृद्ध और दुर्बल
वह कल भी हारा था
कल भी हारेगा…!

उठो ! आवाज़ लगाओ / आदित्य कमल
‘कठिन समय है भाई’ से अंश
आज की रात जगो, रात के बारे में लिखो
कठिन समय, बुरे हालात के बारे में लिखो
दुःखों के गीत रचो, मन की वेदनाएं कहो
अपने होंठों पे दबी सदियों की व्यथाएं कहो
वक़्त की कौल सुनो, समय की पुकार सुनो
अपने संघर्षों के आओ नए हथियार चुनो
अब भी जो खंडहर मिस्मार अगर कर न सके
एक लड़ाई है आर-पार, अगर लड़ न सके
ढहती दीवारों में दब जाओगे,घुट जाओगे
चीख की कौन कहे, बोल भी न पाओगे
मुक्ति की बात चलाओ– मिलों से, खेतों से
उठो ! आवाज़ लगाओ– मिलों से, खेतों से !!

कवि : आदित्य कमल
जन्मतिथि : 25 दिसंबर 1959