सर्वाधिक वंचित हैं महिला श्रमिक

समाजिक गैरबराबरी का शिकार है आधी आबादी

कामगार के रूप में महिलाओं की पहचान हमेशा संकट के घेरे में रही है और आज भी है। कुछ चमकदार पेशे को अलग कर दिया जाए तो दर्जनों ऐसे पेशे हैं जिनमें उनकी उपस्थिति नगण्य है। और दर्जनों ऐसे पेशे भी हैं जिसमें उन्हें महिला होने की वजह से अवसर ही नहीं दिया जाता। भारत की जिस तरक्की का खाता-पीता मध्यवर्ग दीवाना हो रहा है, उसके पीछे महिला-मज़दूरों के अकूत शोषण की अहम भूमिका है।

असंगठित क्षेत्र में महिलाएं

सबसे कम वेतन पर, सबसे कठिन परिस्थितियों में सबसे उबाऊ, थकाऊ और बारीक़ काम भारत जैसे पिछड़े पूँजीवादी देशों में असंगठित महिला मज़दूरों द्वारा कराये जाते हैं।

‘नेशनल काउंसिल ऑफ अप्लाइड इकोनॉमी रिसर्च’ के अनुसार भारत में 97 प्रतिशत महिला मज़दूर असंगठित या अनौपचारिक क्षेत्र में काम करती हैं। इन महिलाओं के लिए ट्रेड यूनियन एक्ट (1926), न्यूनतम मज़दूरी क़ानून (1948), मातृत्व लाभ क़ानून (1961) और बहुतेरे ऐसे क़ानून हैं, जो कहीं भी लागू नहीं होते। ज्यादा मालिक महिला मज़दूरों को अपना मुलाज़िम होने का कोई सबूत ही नहीं देते। ज्यादातर महिलाएँ कारख़ानों में भी पीस रेट पर ही काम करती हैं। काम का एक बहुत बड़ा हिस्सा स्त्रियाँ घरों पर लाकर पीस रेट पर करती हैं।

भारत में 35 करोड़ घरेलू महिलाओं के श्रम की कीमत 613 अरब डॉलर है। लेकिन इस कीमत के बावजूद घरेलू महिलाओं के श्रम का कोई महत्त्व नहीं है। उन्हें अनुत्पादक श्रेणी में रखा गया है। आम महिला कामगार आज भी सामाजिक सुरक्षा, समान पारिश्रमिक, अवकाश, मातृत्व सुविधा लाभ, विधवा गुजारा भत्ता और कानूनी सहायता आदि से वंचित हैं। घरेलू कामगारों से सबंधित शिकायतों को संबोधित करने का कोई तंत्र नहीं है। हाल ही में दिल्ली पुलिस ने घरेलू कामगारों के लिए सत्यापन अनिवार्य कर दिया है। इसका एक पहलू यह भी है कि जिस प्रकार सत्यापन की प्रक्रिया होती है, वह अपने आप में अपमानजनक है।

महिला श्रमिक को श्रमिक का दर्जा नहीं

असंगठित श्रमिक सामाजिक सुरक्षा विधेयक 2007 में महिला श्रमिकों को श्रमिक ही नहीं माना गया है, जबकि असंगठित क्षेत्र में महिला कामगारों की संख्या पुरुषों की तुलना में ज्यादा है। जब एक परिवार पलायन करके गांव से शहर आता है तो मात्र पुरुष की मजदूरी से घर का काम नहीं चलता है। इसलिए महिलाओं को भी काम पर जाना पड़ता है, जिनका पहले से उन्हें कोई प्रशिक्षण नहीं होता है। जितने भी झुक कर करने वाले काम हैं उनमें पुरुषों की तुलना में महिलाएं ज्यादा हैं।

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यौन व घरेलू हिंसा की शिकार

घरेलू कामगार महिलाएं यौन उत्पीड़न का शिकार भी होती हैं। कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न से बचाव के लिए बना कानून इन महिलाओं को किसी तरह की राहत नहीं पहुँचाता है। कानून में असंगठित क्षेत्र की महिला श्रमिकों के लिए कुछ व्यवस्था है लेकिन सुरक्षा का तंत्र गायब है। अक्सर महिलाएं नियोक्ताओं की गलत हरकतों पर नौकरी जाने की डर से खामोश रहती हैं। वे कई बार घरेलू हिंसा की भी शिकार होती हैं।

कार्यस्थल में शौचालय बड़ी समस्या

इनके लिए शौचालय की कमी बहुत बड़ी समस्या है। वर्ग और जाति का मामला इस कदर समाज में गुंथा हुआ है कि जिस घर में महिलाएं सफाई करती हैं उसी घर के शौचालय का इस्तेमाल नहीं कर सकती। जो महिलाएं कारखानों, निर्माण कार्य, रेहड़ी पटरी आदि क्षेत्र में हैं, उन्हें भी इस समस्या का सामना करना पड़ता है। ज्यादातर जगह उनके लिए न तो अलग से शौचालय की व्यवस्था होती है और न ही बच्चों को सुलाने या दूध पिलाने की जगह होती है।

संगठित क्षेत्र में महिला श्रमिक और उनके हालात

आज के समय में जिसे संगठित क्षेत्र कहा जाता है, वहाँ भी असंगठित क्षेत्र जैसी परिस्थितियां पैदा कर दी गई हैं। अस्थाई ठेका और संविदा प्रणाली ने नौकरी की सुरक्षा को एकदम खत्म कर दिया है। इस क्षेत्र में महिला कामगारों को मजदूरी में गैरबराबरी तो झेलनी ही पड़ती है, साथ ही इनकी सुरक्षा, विशेष जरूरतें और आवश्यक सुविधाओं पर भी ध्यान नहीं दिया जाता है।

खेती के बाद दूसरे नम्बर पर सबसे अधिक महिलाएँ टेक्सटाइल और सिले-सिलाये कपड़ों के उद्योग में लगी हैं। करीब साढ़े चार करोड़ लोगों को इस क्षेत्र में कार्यरत हैं, जिनमें लगभग तीन-चौथाई स्त्रियाँ हैं। वस्त्र उद्योग में महिलाओं को जबरिया ओवर टाइम करना पड़ता है और जरूरत में भी छुट्ट्टी नहीं मिलती। पूँजी के लिए महिलाएं आसानी से उपलब्ध होने वाली एक सस्ते श्रमिक का स्रोत भर हैं और अवसर की बराबरी के नाम पर संगठित क्षेत्र में उत्पादन में महिलाओं का नियोजन मुनाफा आधारित उत्पादन व्यवस्था का एक षडयंत्र है।

मातृत्व लाभ कानून की हकीक़त

नए मातृत्व लाभ कानून के तहत संगठित क्षेत्र की महिलाओं को छह महीने का मातृत्व अवकाश और पिता को सात दिन की छुट्ट्टी की सुविधा का प्रावधान है। ये सुविधाएं असंगठित क्षेत्र की महिलाओं को नहीं हैं।खाद्य सुरक्षा कानून कहता है कि गर्भवती और स्तनपान कराने वाली महिलाओं को उचित पोषण के लिए छह हजार रुपए तक की सरकारी सहायता मिलेगी। लेकिन ये सुविधाएं कई तरह की शर्तों से बंधी हुई है। एक तरफ हम इस बात से खुश हैं कि मातृत्व लाभ कानून महिलाओं को इतनी सुविधाएं दे रहा है, वहीं दूसरी तरफ समाज के खास तबके को इस लाभ से वंचित रख रहा है।

आंकड़े बताते हैं कि हर वर्ष लगभग तीन करोड़ महिलाएं गर्भवती होती हैं लेकिन इस कानून का लाभ केवल एक लाख महिलाओं को मिलता है। यानी तीस में से एक गर्भवती महिला को इस कानून का लाभ मिलता है।

अनौपचारिक क्षेत्र में महिलाओं की दशा

अनौपचारिक क्षेत्र में एक समय में महिलाएं अलग-अलग तरह का काम करती है। एक महिला घर में मोमबत्ती बनाने, लिफाफे बनाने का काम करती है तो फसल कटाई के समय में वह गँंव लौट कर अपने परिवार को खेत के काम में मदद करती है। ये दोनों ही काम औपचारिक काम के दायरे में नहीं आते हैं। यहाँ तक की रोजगार ब्योरों में भी यह दर्ज नहीं होते हैं।

लेकिन असंगठित क्षेत्र की ज्यादातर कामगार महिलाओं के लिए कोई सरकारी नीति नहीं है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की सुनीथा एल्यूरी के अनुसार असंगठित क्षेत्र के लिए बनाई जाने वाली नीतियों में सबसे बड़ी कमी यह रहती है कि इसमें विभिन्न क्षेत्रों में काम करने वाली महिलाओं की संख्या से संबधित जानकारी एकत्र नहीं की जाती है। हर एक क्षेत्र के लिए अलग-अलग नीति बनाई जानी चाहिए, जैसे मज़दूरी दर, काम के घंटे, नियम आदि सभी को इसमें शामिल किया जाना चाहिए।

समान काम समान वेतन का सवाल

स्त्री पुरुष के बीच मजदूरी में अंतर पूरे विश्व में है, लेकिन हमारे देश में यह गैरबराबरी कुछ ज्यादा ही है। एक सर्वेक्षण के अनुसार श्रम बाजार में महिलाओं को पुरुषों की अपेक्षा कम वेतन मिलता है। महिलाओं के पारिश्रमिक की दरें पुरुष श्रमिकों के मुकाबले तकरीबन आधी कर दी जाती है। श्रम क्षेत्र के लिए बनाई जाने वाली नीतियों के लिए न्यूनतम वेतन को आधार बनाया जाता है। सामाजिक सुरक्षा, मज़दूरी, वेतन, योजनाएं सबके निर्धारण का आधार न्यूनतम वेतन ही होता है। नीति निर्धारकों के लिए महिला का वेतन अतिरिक्त आय होती है जो समाज के लिए महत्त्वपूर्ण नहीं है।

योजनाओं से महिलाएं गायब क्यों

समझा जा सकता है कि क्यों महिलाएं इन नीतियों और योजनाओं से गायब हैं? कानून आधारित गैरबराबरी के कारण महिलाएं काम के कई अवसर खो देती हैं मसलन, भारी मशीनों वाले काम आदि। महिलाएं भी इन कामों को करने हेतु उतनी ही योग्य हैं जितने पुरुष। इन सब कामों में एक सोच बना ली गई है कि यह काम महिलाओं का है ही नहीं।

अगर स्त्री-पुरुष दोनों मज़दूरी करते हैं तब भी घरेलू कामों और बाल-बच्चों को सम्भालने की सारी ज़िम्मेदारी स्त्री के मत्थे होती है। बहुत पुरुष मज़दूर ख़ुद ही चाहते हैं कि कारख़ानों में काम करने बाहर निकलने के बजाये ”उनकी औरतें” घर-बार सम्भालते हुए घर पर ही पीस रेट पर काम करके कुछ ”अतिरिक्त कमाई” कर लिया करें। वे ख़ुद ही स्त्रियों की श्रम-शक्ति का कोई मोल नहीं समझते।

सरकार का मानना है कि महिला कामगारों की संख्या में लगातार कमी आ रही है। दरअसल, वे क्षेत्र जहाँ महिला कामगारों की संख्या सबसे अधिक है, वह गणना में शामिल ही नहीं किया जाता है। महिलाओं और पुरुष के कार्य विकल्पों में अंतर है। साथ ही जमीनी हकीकत और संकलित आंकड़ों में बहुत अंतर है। कानून, बजट और नीतियां असंगठित क्षेत्र में काम करने वाली इन कामगार महिलाओं को मान्यता नहीं देती हैं। लेकिन हकीकत यह है कि ये कामगार महिलाएं अर्थव्यवस्था में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से योगदान दे रही हैं।

इन कठिन परिस्थितियों में भारत की महिला कामगारों की सोयी हुई, बिखरी हुयी विराट महाशक्ति को जगाने के लिए कई मोर्चों पर लम्बा और कठिन संघर्ष चलाना होगा।

‘संघर्षरत मेहनतकश’ पत्रिका, मार्च-अप्रैल,2019 से, कुछ संशोधन के साथ

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