इस सप्ताह हूबनाथ की तीन कविताएं !

उसकी मर्ज़ी से/हूबनाथ
उसकी मर्ज़ी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता
क्योंकि उसकी हुक़ूमत पत्तों पर ही चलती है
उसकी मर्ज़ी से जनमते हैं लोग
मरते हैं या मारे जाते हैं
उसकी मर्जी से बनते हैं बम
और फूटते हैं इनसान गुब्बारों की तरह
उसकी मर्ज़ी से निकलता है बच्चा
साठ फुट गहरे गड्ढे से
और साठ सालों में मरते हैं साठ करोड़ बच्चे
भूख और कुपोषण से
उसकी मर्ज़ी से बंटती है खैरातें
बनती हैं शानदार इमारतें उसके लिए
उसने बख्शी हैं जिसे बे पनाह दौलत
वह उसी को दान करता है उसकी मर्ज़ी से
उसकी मर्ज़ी से
मौत के मुंह से बच जाते हैं गुनहगार
और मारे जाते हैं बेगुनाह
उसकी मर्ज़ी से मासूम बच्चे
हवस का शिकार होते हैं
भीख मांगते हैं
ड्रग्स लेते हैं
और मर जाते हैं जवान होने से पहले
उसकी मर्ज़ी से अस्सी के बाद भी
नौजवानों को मात करते हैं धनपशु
उसकी मर्ज़ी से वेश्याएं बेचती हैं जिस्म
पतिव्रताएँ सहती हैं लम्पट पति को
उसकी मर्ज़ी से उसीकी इमारत शहीद होती है
होते हैं अनगिन मासूम हलाक़
उसकी मर्ज़ी चलती है ज़मीन, आसमान, सितारों पर
नहीं चलती तो सिर्फ़ गुनहगारों पर
जो सदियों से
इनसान और इनसानियत को रौंद रहे हैं
रौंदता है सूअर जैसे पवित्र वस्तुओं को
उसकी बनाई दुनिया में जीना है
तो उसकी शान में सिर झुकाना होगा
नहीं करना होगा कोई सवाल
सवाल उसे नहीं भाते
चलती है सिर्फ उसकी मर्ज़ी
उसकी मर्ज़ी के खिलाफ
एक पत्ता भी नहीं हिल सकता
भले पूरा पेड़ उखड़ जाय

इस शहर में/हूबनाथ
अब
इस शहर में कोई
भूखा नहीं सोएगा
सबको मिलेगी
दो वक्त की रोटी
सिर पर छत
हाथों को रोजगार
ऑंखों को सपने
साफ-सुथरी सड़कों पर
हवा से बातें करेंगी गाड़ियॉं
फ्लाइओवर ब्रिज जोड़ेंगे
शहर के एक छोर को दूसरे से
धरती, आसमान, पानी पर दौड़ेंगी कारें
मिनटों में पहुॅंचेंगे
एक सिरे से दूसरे तक
अस्पताल होंगे सुसज्जित, सुविधा संपन्न
स्कूल गोलमटोल स्वस्थ बच्चों से भरेपूरे
बगीचे फूलों से खिलखिलाते
तालाब कमलों से गदराए
फुटपाथ भिखारियों से खाली
रेलवे स्टेशन चमचमाते
बस अड्डे जगमगाते
सुंदरियां बाज़ारों में इठलाती
बालाएं रैम्प पर बलखाती
गलियां कुत्तों-गायों से मुक्त
मंदिर-मस्जिद भक्तों से भरे
भक्त भक्तिभाव से भरे
बैंक धन से भरे
सेंसेक्स अंकों से भरे
कहीं भी
अभव, गंदगी, विपन्नता का
नामोनिशान नहीं
यह बीसवीं सदी का
सड़ा गला शहर नहीं
इक्कीवीं सदी का
ग्लोबलाइज़्ड शहर है
अब
इस शहर में
कोई भूखा
नहीं सोएगा
क्योंकि भुखों के लिए
इस शहर के बाहर
एक दूसरा शहर
बसाया जा रहा है
वैसे भी
भूखों को नींद कहॉं आती है

अर्थ/हूबनाथ
चुप रहनेवाला
कभी दुखी नहीं होता
कभी शिकायत नहीं करता
आलोचना नहीं करता
चुप रहने के
हज़ार फ़ायदे
चुप रहनेवाले से
कोई नहीं झगड़ता
किसी को कष्ट नहीं होता
चुप रहनेवाला
सबको अच्छा लगता है
सबको अच्छा लगने
निहायत ज़रूरी है
चुप रहना
दस हज़ार साल पहले
मनुष्य ने जब
बोलना सीखने की
शुरुआत की
तब उसे नहीं पता था
बोलने से कहीँ बेहतर है
चुप रहना
दस हज़ार साल बाद
ऋषियों की पावन भूमि पर
यह ज्ञान मिला
कि चुप रहनेवाला
सरकार गिराने के आरोप में
आधी रात को
गिरफ़्तार नहीं होता
डॉक्टर कहता है
जनम से बहरा व्यक्ति
जनम से गूंगा हो जाता है
गूंगा होने के लिए
बहरा होना अनिवार्य है
ज्ञानियों का मानना है
जीवन के किसी भी मोड़ पर
थोड़े से प्रयास से
बहरे हो जाओ
गूंगापन ख़ुद आ जाता है
बहरा होने का दूसरा फ़ायदा
कुछ हद तक
अंधापन आ जाता है
आप वही देख पाते हो
जो आंख के आगे है
और हर आंख की
एक सीमा तो होती ही है
और अगर बोलना हो जाए
बेहद ज़रूरी
और जेल भी न जाना हो
तो या तो वर्दी पैदा करो
या गर्दी पैदा करो
या कुर्सी पैदा करो
इनमें से कुछ भी पैदा न कर पाओ
तो बनकर शिखंडी
रक्षा करो
सत्ताधारी अर्जुन की
युद्धोपरांत
पद पुरस्कार प्रतिष्ठा
कुछ भी असंभव नहीं
अप्राप्य नहीं
अतः अनुभवियों की मानो
और चुप रहो
और बोलना ही पड़े
तो ऐसा बोलो
जिसका कोई अर्थ न हो
तकलीफ़ बोलने में नहीं
अर्थ से है
अर्थ चाहिए
तो अर्थ से बचो
चुप रहो
ख़ुश रहो!

कवि : हूबनाथ पांडेय
सम्प्रति: प्रोफ़ेसर, हिंदी विभाग, मुंबई विश्वविद्यालय, मुंबई