इतिहास : संघर्षों से छीना एक-एक क़ानूनी हक़

आओ देश के मज़दूर इतिहास को जानें – 10
आज जब मोदी सरकार द्वारा श्रम क़ानूनी अधिकारों को छीनने का दौर तेज हो गया है, 44 श्रम क़ानूनी अधिकारों को 4 श्रम संहिताओं में बाँध दिया गया है, तब यह जानना ज़रूरी है कि एक भी क़ानूनी अधिकार ख़ैरात में नहीं मिले हैं। एक-एक इंच जो अधिकार मिले हैं, वो लम्बे संघर्षों और बेमिशाल क़ुर्बानियों की देन हैं। . . .मज़दूर इतिहास पर जारी श्रृंखला की इस कड़ी में आइए जानें संघर्षों के दौरान कैसे हासिल हुए तमाम श्रम क़ानूनी अधिकार. . .
धरावाहिक दसवीं किस्त
हक़-अधिकार ख़ैरात में नहीं मिलते
अपना हक़ संगे दिल जमाने से,
छीन पाओ तो कोई बात बने…!
आज का दौर मज़दूर आबादी को मिले अधिकारों को छीनने का दौर है। विगत तीन दशक से केंद्र व राज्य सरकारें ट्रेड यूनियन कानूनों को मालिकां के पक्ष में बदलने पर आमादा हैं और बदलती रहीं हैं। इस कड़ी में केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार सबसे ज्यादा आक्रामक है।

इसे भी देखें– चिली: ग़ैर-बराबरी के ख़िलाफ दस लाख लोग सड़कों पर
इतिहास इस बात का गवाह है कि एक भी हक़ या क़ानून किसी की दया या ख़ैरात से नहीं मिला है। मेहनतकश मज़दूर जैसे-जैसे जागरूक और संगठित होते गये, पराजय और जीत के बीच संघर्ष को आगे बढ़ाते गये, उसी के बरअक्श हक भी हासिल करते गये। लेकिन जब-जब मज़दूर आंदोलन कमजोर पड़े हैं, मालिक वर्ग उन पर हावी हुआ, तब-तब देश के सत्ताधारियोंं ने – चाहे गोरे अंग्रेज रहे हों या फिर देशी भारतीय, मेहनतकशों के हक़ पर डकैती डालने से नहीं चूके।
संघर्षों से मिले क़ानून, संघर्षों को बांधने के लिए भी हैं
यहाँ यह देखने की बात है कि पूँजीवादी निजामों द्वारा बनने वाले ज्यादातर क़ानून – भले ही संघर्षों से मिले हों – आन्दोलनों को बांधने का ही प्रयास करते रहे हैं। देश के मज़दूर आन्दोलन में जहाँ संघर्षां को कानूनी लड़ाई तक सीमित रखने की प्रवृŸा मौजूद रही है, वहीं अपने क्रान्तिकारी संघर्षों को आगे बढ़ाने के लिए जिस हद तक संभव हुआ, इन क़ानूनों का इस्तेमाल करते हुए भी मुख्यतः भरोसा अपने आन्दोलनों को परिस्थितियों के अनुरूप आगे बढ़ाने की रही है, नये हक़ हासिल करने की रही है।
इसे भी देखें– सुप्रीम कोर्ट से भी एलजीबी यूनियन अध्यक्ष की जीत
संघर्ष बढ़ते रहे, क़ानूनी अधिकार मिलते रहे

दमन, शोषण संघर्षों को जन्म देते हैं। क़ानून कितना भी दमनकारी बन जाए, संघर्षों को बिलंवित भले ही कर दें, रोक नहीं सकते। सो, भयावह शोषण के बीच अनुभवहीन मज़दूरों ने अपने संघर्षां को आगे बढ़ाया। कारखानों के विकास से सामूहिक उत्पादन की प्रणाली आयी जिसने सामूहिकता पैदा की व साझे दर्द को साझे तौर पर उठाने की हिम्मत और जज्बा पैदा किया।
इसे भी पढ़ें– जहाँ से मज़दूर आंदोलन आगे जायेगा !
पहला फैक्ट्री एक्ट : 7 साल तक के बच्चों से काम पर रोक
देश का औद्योगिक मज़दूर जागा, संघर्ष करते हुए अपने क़ानूनी अधिकार भी हासिल करता गया। इस कड़ी में 1881 में देश का पहला फैक्ट्री क़ानून बना। इसकी मुख्य बात यह थी कि क़ानूनी रूप से सात साल से कम उम्र के बच्चों से काम लेना प्रतिबंधित घोषित हुआ। सात से 12 साल तक के बाल मज़दूरों से महज 9 घंटे काम लेने, सुरक्षा की दृष्टि से मशीनों को जाली से घेरने आदि का प्रावधान बना। लेकिन बिनौला निकालने, रूई दबाने जैसी मशीनों को मौसमी उद्योगों की श्रेणी में डालकर 1881 के इस क़ानून की परिधि से उस प्रकृति के कामों को बाहर रखा गया।
यह ग़ौरतलब है कि यह क़ानून भारतीय पूँजीपतियों के अधिनस्थ कारखानों के लिए ही थे, अंग्रेज पूँजीपतियों के कारखानों के लिए नहीं। फिर भी ये क़ानून भी वास्तव में कहीं लागू नहीं हुए।

इसे भी पढ़ें– मारुति संघर्ष का सबक : यह वर्ग संघर्ष है!
जब बना पहला श्रम आयोग
1880 का दशक मज़दूर संघर्षों के लगातार आगे बढ़ने का दौर था। इनमें 1884 में मुंबई कपड़ा मज़दूरों के आंदोलन प्रमुख हैं। परिणाम स्वरूप 1890 में पहला श्रम आयोग और 1891 में दूसरा फैक्ट्री एक्ट अस्तित्व में आया। इसमें बाल श्रमिकों की न्यूनतम आयु सीमा 9 साल और काम के घंटे 9, महिलाओं से रात्रि पाली काम पर प्रतिबंध के साथ उनके काम के घंटे 11 निर्धारित हुए। नारायण मेघाजी लोखंडे के नेतृत्व में 8 साल के लम्बे संघर्ष के बाद सन 1889 में रविवार अवकाश का अधिकार मिला। इसके अतिरिक्त सबके लिए आधा घंटा भोजन अवकाश का भी अधिकार मिला।
इसे भी पढ़ें– जुझारू तेवर के साथ कई प्रयोगों का गवाह कनोडिया जूट मिल आंदोलन
आन्दोलनों की नई उभार : फैक्ट्री एक्ट में संशोधन
19वीं शताब्दी का पहला दशक मज़दूर आंदोलनों के बड़े उभार का दौर था, जब मज़दूर न केवल आर्थिक माँगों के संघर्षां को आगे बढ़ा रहे थे अपितु लोकमान्य तिलक की गिरफ्तारी पर राजनीतिक हड़ताल करके अपने तेवर भी दिखा चुके थे। इन्हीं दबावों में आयोग और कमेटियां बनीं जिनके सुधार संबंधी कई सिफारिशें आयीं और 1911 में फैक्ट्री एक्ट में संशोधन हुआ। इसमें कपड़ा मिल के पुरुष मज़दूरों के लिए 12 घंटे व बाल मजदूरों के लिए 6 घंटे का कार्यदिवस घोषित हुआ।
व्यापक हुआ संघर्ष तो हसिल हुए कई क़ानूनी अधिकार
प्रथम विश्व युद्ध के बाद की नयी परिस्थितियों व सोवियत रूस में मज़दूर वर्ग की क्रान्तिकारी सत्ता कायम होने से पैदा उत्साह के नये माहौल में देश के मज़दूर संघर्षों और संगठन बनाने का शानदार दौर आगे बढ़ा। इस परिस्थिति में सत्ताधारियों को नया फैक्ट्री एक्ट बनाना पड़ा। इसका लाभ बिजली से चलने वाले कारखाना मज़दूरों को मिला, जहाँ काम के घण्टे दैनिक 11 और साप्ताहिक 60 घोषित होने के साथ ओवरटाइम सवा गुना निर्धारित हुआ। दूसरी तरफ कर्मचारी क्षतिपूर्ति अधिनियम 1923 द्वारा कार्य के दौरान दुर्घटनाओं के शिकार श्रमिकों के लिए मुआवजे आदि का अधिकार मिला। इसी प्रक्रिया में क्रमशः कई संशोधनों से गुजरते हुए देश का नया कारखाना अधिनियम, 1948 अस्तित्वमान हुआ जिसमें भी मोदी सरकार ने डकैती डाल दी है।
इसे भी देखें– शंकर गुहा नियोगी : जिसने खड़ा किया था मज़दूर आंदोलन का अभिनव प्रयोग
मिला ट्रेड यूनियन बनाने का क़ानूनी हक़

अगर दूसरे अधिकारों और कानूनों की चर्चा की जाए तो इनमें प्रमुख है ट्रेड यूनियन एक्ट 1926। इसका जहाँ एक पहलू यह है कि देश भर में एक के बाद एक ट्रेड यूनियन बनते जाने से नया दबाव पैदा हो गया था, वहीं सरकार पंजीकरण के बहाने उन्हें नियंत्रित करने की भी मंशा रखे हुए थी। संघर्षों के लगातार दबाव में देश में पहली बार 1928 में श्रम आयोग का गठन हुआ।
लगातार बढ़ते औद्योगिक विवादों के मद्देनज़र क़ानूनी कार्यप्रणाली विकसित करने के लिए सत्ताधारियों द्वारा श्रम विवाद 1929 बनाया गया। इस कड़ी में मुंबई में ‘बंबई समझौता अधिनियम 1934’ व ‘बंबई औद्योगिक विवाद अधिनियम 1939’ भी बना। इसी प्रक्रिया में संघर्ष आगे बढ़ने के साथ ‘औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947’ आया। इसी के साथ कुछ अन्य महत्वपूर्ण औद्द्योगिक केन्द्रों वाले राज्यों में भी औद्योगिक विवाद अधिनियम बने।
इसी दौर में ‘औद्योगिक नियोजन (स्थायी आदेश) अधिनियम 1946’ तथा राज्य बीमा अधिनियम 1948’ भी बना।

इसे भी देखें– वेतन श्रम संहिता में चालाकी क्या है?
दमनकारी कानूनों के खि़लाफ आवाज़ हुई बुलन्द
इन क़नूनी हक़ों को मिलने के दौरान अधिकारों को कुचलने के भी क़ानून बनते रहे। जिसमें प्रमुख हैं – ‘पब्लिक सेफ्टी बिल’ व ‘ट्रेड डिस्प्यूट एक्ट 1928’, जिसके विरोध में हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन की ओर से शहीदे-आज़म भगत सिंह व बटुकेश्वर दत्त ने असंबली में बम धमाका करके बहरे कानों को सुनाने का काम किया था और गिरफ्तारी दी थी।
इसी क़ानून के तहत विवादों के समाधान हेतु कथित तौर पर न्यायिक जाँच व समाधान समिति बनाने, जनोपयोगी संस्थाओं में हड़ताल के लिए चौदह दिन के नोटिस की अनिवार्यता और उल्लंघन पर आर्थिक दंड व कारावास, गैरकानूनी हड़ताल पर सजा व आर्थिक दंड देने तथा हड़ताल में भाग न लेने वाली यूनियनों को लालच के तौर पर मुआवजे जैसे प्रावधान रखे गये। इसके कई प्रावधान तो आजतक श्रम क़ानूनों में बरकरार हैं।
इसे भी पढ़ें– विकास का मतलब इन्सान नहीं गाय को बचाओ
असल में इन्हें ख़त्म करने की जगह ऐसी तमाम क़ानूनें बनीं, जिन्होंने इन प्रतिबन्धों को और बढ़ाया। देशी सरकारों के दौर में यह गति और तेज हुईं। इसकी झलक आज़ादी से पूर्व मुंबई की प्रांतीय कांग्रेस सरकार ने ‘इंडियन रिलेशन एक्ट 1946’ बनाकर दे दी थी, जिसमें हड़ताल बाधित करने और पंच निर्णय से बांधने का प्रावधान था।
इसी क्रम में ‘वेतन भुगतान अधिनियम 1936’ बना तो 1939 में मूल वेतन में वृद्धि की जगह एक अतिरिक्त गुणांक ‘महंगाई भत्ता’ (डीए) बना जो जीवन-यापन सूचकांक (लिविंग इंडैक्स) की कीमतों के आधार पर वेतन वृद्धि का पैमाना है। ओस्तविक स्थिति यह है कि एक तो थोक मूल्य पर आधारित होने के कारण वेतन में महँगाई के अनुरूप भी बृद्धि का लाभ नहीं मिलता, कई बार तो वेतन घटने का भी ख़तरा बना रहता है; दूसरे वेतन की वास्तविक बृद्धि करने से भी मालिक बच जाता है।
इसे भी देखें– यह ऐसा समय है
सरकारी क्षेत्र में क़ानूनी बंदिशें और हक़
दूसरी ओर सरकारी क्षेत्र के मज़दूरों को हक मिलने और उनपर प्रतिबंध लगाने का दौर चलता रहा। सरकारी क्षेत्र के मज़दूरों-कर्मचारियों के लिए कंडक्ट रूल (आचार संहिता) भी बने। 1904 में सरकारी कर्मचारी ‘आचार नियमावली’ बना जिसे 1905 में और सख़्त कर दिया गया ताकि उनके आंदोलनों को रोका जा सके। फिर भी संघर्ष रोके नहीं जा सके। 1906 में सरकारी क्षेत्र का पहला संगठन ‘द इंडियन टेलीग्राफ एसोसिएशन’ गठित हुआ। 1921 में सरकारी कर्मचारी संगठनों की सैद्धांतिक मान्यता व उत्पत्ति हुई।

इसे भी जानें– सिंगरेनी कोयला खदान की समस्याएं
लगातार जारी संघर्षों के बदौलत इंडियन शिपिंग मर्चेंट एक्ट 1923, रेलवे अधिनियम 1930, डाक लेबरर्स एक्ट 1934, द कोल माइन सेफ्टी एक्ट 1937, डाक वर्कर्स रेगुलेशन आफ इम्पलायमेंट ऐक्ट 1948 आदि के अलावा कुछ अधिसूचित उद्योगों में श्रमिकों के निष्कासन पर रोक लगाने हेतु आवश्यक सेवाएं (अनुरक्षण) अध्यादेश 1941 बना। लेकिन सरकारी कर्मचारियों के लिए समझौता वार्ता आदि के लिए ज्वाइंट कंसुलेटिव मशीनरी 1966 मेंं ही बन सका। जिसमें केंद्र सरकार के कर्मचारियों के लिए अधिकार मिला। हालांकि कई राज्यों के सरकारी कर्मचारियों के लिए यह सुविधा भी उपलब्ध नहीं हुईं।
आगे पढ़ें- आज़ाद देश : टूटती उम्मीदें. . .
(क्रमशः जारी. . .)
मज़दूर इतिहास श्रृंखला की पिछली नौ कड़ियाँ-
पहली क़िस्त– आओ देश के मज़दूर इतिहास को जानें!
दूसरी क़िस्त – जब अमानवीयता की हदें भी पार हुईं
तीसरी क़िस्त– मज़दूर इतिहास : मजदूरों ने ली शुरुआती अंगडाई
चौथी क़िस्त– इतिहास में यूँ विकसित हुईं यूनियनें
पाँचवीं क़िस्त– इतिहास: दमन के बीच संघर्षों का आगे बढ़ता दौर
छठीं क़िस्त– आओ जब मज़दूर आन्दोलन इंक़लाबी तेवर लेने लगा
सातवीं क़िस्त– मंदी व विश्वयुद्ध से जूझकर आगे बढ़ता मेहनतकश
आठवीं क़िस्त– आज़ादी की पूर्व बेला में आगे बढ़ता मज़दूर आन्दोलन
नौवीं क़िस्त– संघर्षों से रंगा इतिहास का स्वर्णिम पन्ना
3 thoughts on “इतिहास : संघर्षों से छीना एक-एक क़ानूनी हक़”
Comments are closed.