प्रचंड बहुमत नहीं, मिली जुली सरकारें ही हैं देश की हकीकत

हरियाणा व महाराष्ट की विधानसभा की चुनाव समीक्षा दिलीप मंडल द्वारा

2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में देश में पूर्ण बहुमत की सरकार बनी. इसके पहले 1977 के बाद से केंद्र में लगातार मिली जुली सरकारें बन रही थीं. 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुआ चुनाव इसका एकमात्र अपवाद रहा. लेकिन इस चलन में बदलाव आया है. पिछले दो लोकसभा चुनाव और कई राज्यों में पूर्ण बहुमत की सरकारों के बनने के बाद ये कहा जाने लगा था कि अब देश की जनता अपनी स्पष्ट राय बनाती है और वह जिसे देती है, उसे छप्पर फाड़कर देती है.

हालांकि इस बीच कई राज्यों में मिली जुली सरकारें भी बनती रहीं. एनडीए-1 की सरकार भी अपने आखिरी दौर में बीजेपी के पूर्ण बहुमत की सरकार नहीं रही. बिहार से लेकर महाराष्ट्र, और जम्मू कश्मीर से लेकर केरल में इस बीच कई दलों की साझा सरकारें बनती रहीं. इस मायने में भारत कभी भी पूरी तरह एकदलीय सरकारों के दौर में नहीं रहा. कम से कम आजादी के बाद का वह दौर कभी लौटकर नहीं आया, जब केंद्र और लगभग सभी राज्यों में कांग्रेस की सरकारें बनती थी.

अब हरियाणा और महाराष्ट्र में जिस तरह के चुनाव नतीजे आए हैं, उसमें किसी एक दल को पूर्ण बहुमत नहीं मिला. वर्तमान समय में बिहार, गोवा, झारखंड, केरल, मध्य प्रदेश, राजस्थान जैसे राज्यों में मिली जुली सरकार है. कर्नाटक में बेशक बीजेपी की सरकार है. लेकिन चुनाव में वहां किसी दल को बहुमत नहीं मिला था. कई विधायकों के सदन से इस्तीफे के कारण वहां बीजेपी की सरकार बन पाई है.

इसके बावजूद, अगर उत्तर प्रदेश समेत देश के कई और राज्यों में पूर्ण बहुमत की सरकारें हैं तो इसका मतलब है कि 1967 के बाद से देशभर में मिली जुली सरकारों का जो दौर आया, वह प्रक्रिया कुछ समय के लिए उल्टी दिशा में चली गई. ऐसा माना जा सकता है कि इस समय का प्रभावी विचार एकदलीय सरकारों का है. बेशक वह इस समय का एकमात्र विचार नहीं है.

आजादी के बाद लगभग 20 साल तक तो कांग्रेस का हर तरफ जलवा था. लेकिन धीरे-धीरे क्षेत्रीय शक्तियां प्रभावी होती चली गईं और साथ में समाजवादियों, कम्युनिस्टों और जनसंघ की शक्ल में विपक्ष ने भी अपनी ताकत दिखाई. इस विरोध की परिणति 1977 में जनता पार्टी की केंद्र में सरकार बनने के रूप में हुई. इस पार्टी के अंदर कई पार्टियां समाहित थीं. इसके साथ ही मान लिया गया कि भारत मिली जुली सरकारों के दौर में पहुंच गया है.

दरअसल भारत एक बहुभाषी, बहुधार्मिक, बहुजातीय राष्ट्र है और किसी एक दल के लिए इन विविधताओं को एक साथ समेट पाना आसान नहीं है. ये अस्मिताएं एक दूसरे से अलग हैं और इन विविधताओं को समेटकर ही राष्ट्र का निर्माण हुआ है. इसलिए भारत में राजनीतिक दलों की इतनी बड़ी तादात है. ऐसा में अब शायद कभी संभव नहीं है जब एक ही पार्टी केंद्र में और सभी राज्यों में एक साथ शासन करे.

जब कोई एक विचार या घटना बाकी विविधताओं पर हावी हो जाती है, तब केंद्र में किसी दल का बहुमत आ जाता है. इंदिरा गांधी की हत्या या नरेंद्र मोदी का उभार, या हिंदुत्व की लहर वैसी ही बड़ी घटनाएं हैं. लेकिन इन घटनाओं का उफान भी अक्सर थोड़े समय में उतर जाता है और समाज की हकीकत फिर से हावी हो जाती है और देश मिली जुली सरकारों के दौर में पहुंच जाता है.

हालांकि दो राज्यों का विधानसभा चुनाव और उसके नतीजे इस निष्कर्ष तक पहुंचने के लिए काफी नहीं है कि देश में 2014 से बीजेपी के प्रभावी होने का जो दौर आया है, वह ढलान पर है. लेकिन इसके साथ देश के 17 राज्यों में 51 सीटों पर हुए उपचुनाव के नतीजों को एक बड़ा सैंपल साइज माना जा सकता है, जिसके आधार पर देश के मिजाज के बारे में कोई बात कही जा सकती है. इन उपचुनावों में जिस तरह के विपक्षी दलों ने प्रदर्शन दिखाया है, उसका संकेत है कि विपक्ष पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है और भारत एक पार्टी के दबदबे के दौर में लंबे समय तक शायद नहीं रहेगा.

दिलीप मंडल ( द प्रिंट से साभार )

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