संघर्षों से रंगा इतिहास का स्वर्णिम पन्ना

आओ देश के मज़दूर इतिहास को जानें – 9

भारत छोड़ो आन्दोलन की गति आगे बढ़ चुकी थी और अंग्रेजों की वापसी तय हो चुकी थी। आज़ादी की यह पूर्व बेला थी, देश के बंटवारे की पटकथा तैयार हो चुकी थी, पूरा देश दंगों की आग में झुलस रहा था। इन्हीं संकटों के बीच देश का मेहनतकश अपने संघर्षों की नई मिसालें कायम कर रहा था। औद्योगिक मज़दूरों के आन्दोलनों के साथ भारी दमन के बीच किसानों-मज़दूरों के तेभगा, पुनप्रा-वायलार, तेलंगाना के शानदार संघर्षों से इतिहास के पन्ने स्वर्णिम अक्षरों में अंकित हो रहे थे… श्रृंखला की अगली कड़ी…

धरावाहिक नौवीं किस्त

दंगों की महात्रासदी के बीच मज़दूर आन्दोलनों का दौर

1946-47 के समय में देश भयावह दंगों की आग में जल रहा था। अगस्त, 1946 के दंगों के पाँच महीनों बाद, 21 जनवरी 1947 को कलकत्ता के विद्यार्थी फिर से सड़कों पर निकल आये थे और ‘वियतनाम से दूर रहो’ वाले प्रदर्शन में फ्रांसीसी विमानों द्वारा दमदम हवाई अड्डे का उपयोग किये जाने का विरोध कर रहे थे। इसी दिन कम्युनिस्ट नेतृत्व में हुई अत्यन्त संगठित, और अन्त में विजयी, 85 दिन की ट्राम हड़ताल में लगता था कि समस्त साम्प्रदायिक भेदभाव भुला दिये गये हैं। इसके कुछ दिनों बाद बन्दरगाह के कर्मचारियों और हावड़ा के इंजीनियरिंग कामगारों ने भी हड़तालें कीं।

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दरअसल, जनवरी और फरवरी में तो हड़तालों की नयी लहर-सी आ गयी थी। कानपुर की कपड़ा मिलों में एक लाख लोग हड़ताल पर थे, कोयला रोक देने की धमकी दी गयी थी। कोयम्बटूर, कराची और अन्य स्थानों पर भी हड़तालें हुईं। मज़दूरों का संघर्ष लगातार आगे बढ़ रहा था।

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एटक की ‘बेसिक डिकांड डे’

अब तक एक ताक़त के रूप में मौजूद ऑल इण्डिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस (एटक) ने 1947 के सम्मेलन में जीवनयापन योग्य वेतन, सामाजिक सुरक्षा आदि मुद्दों पर ‘बेसिक डिमांड डे’ मनाने का आह्वान किया। साथ ही ‘एक समाजवादी राज्य की स्थापना जिसमें सत्ता उत्पादक वर्गाें के हाथ में होगी, उद्योगों का राष्ट्रीयकरण होगा, मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण नहीं होगा और उत्पादन जनता की आवश्यकता के अनुसार होगा’ संबंधी प्रस्ताव पुनर्संकल्पित हुआ।

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तेभागा, पुनप्रा-वायलार और तेलंगाना का किसान संघर्ष

जिस समय देश में विभाजन का कुचक्र तेज हो गया था, साम्प्रदायिक विनाशलीला उफान पर थी उस समय तेलंगाना, आन्ध्र, केरल, बंगाल, पंजाब, उत्तर प्रदेश और कई अन्य क्षेत्रों में कम्युनिस्ट नेतृत्व में भूमि-संघर्ष उफान पर थे। इनमें तेलंगाना, तेभागा और पुनप्रा-वायलार के किसान-संघर्ष बेहद अहम हैं।

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बंगाल का तेभागा आन्दोलन

बंगाल का तेभागा आन्दोलन असामी काश्तकारों और बटाईदारों (बरगादारों और अधियारों) का आन्दोलन था। उनकी माँग थी कि जोतदारों को दी जाने वाली लगान उपज का एक तिहाई होनी चाहिए। यह आन्दोलन सितम्बर 1946 से शुरू होकर जल्दी ही बंगाल के 11 जिलों में जंगल के आग की तरह फैल गया। कलकत्ता और नोआखाली के दंगों के बावजूद इसमें हिन्दू-मुसलमान बरगादारों-अधियारों ने एक साथ मिलकर हिस्सा लिया। किसानों ने छापामार संघर्ष की राह पकड़ी। इसमें भागीदार किसानों की संख्या 50 लाख तक जा पहुँची।

आन्दोलन के दबाव में तत्कालीन बंगाल की मुस्लिम लीग सरकार ने बरगादार विधेयक प्रस्तुत किया। सरकार ने फरवरी 1947 में जबरदस्त दमन-चक्र चलाया। 49 किसान शहीद हुए, हजारों घायल हुए और गाँवों में बर्बर पुलिस अत्याचार हुए। बावजूद इसके किसानों का जुझारू संघर्ष जारी रहा। इसी बीच 27 मार्च को कलकत्ता में नये सिरे से दंगे शुरू होने और 28 मार्च को हिन्दू महासभा द्वारा बंगाल विभाजन के लिए आन्दोलन शुरू किये जाने के बाद तेभागा आन्दोलन कमजोर पड़ गया।

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मज़दूरों-मछुआरों का पुनप्रा-वायलार आन्दोलन

पुनप्रा और वायलार उत्तरी-पश्चिमी त्रावणकोर के शेरतलाई-अलेप्पी-अम्बालपुझा क्षेत्र के दो गाँव हैं, जिन्हें शौर्यपूर्ण किसान संघर्षों के दौरान हुई शहादतों ने अमर बना दिया। इस क्षेत्र में 1946 में कम्युनिस्टों ने नारियल के रेशों का काम करने वाले कामगारों, मछुआरों और खेतिहर मज़दूरों को संगठित किया और मज़दूर-किसान संयुक्त मोर्चे का एक शानदार उदाहरण वहाँ तैयार हुआ था। मेहनतकशों ने एकता के बल पर कई उपलब्धियाँ हासिल कर ली थीं।

इस अंग्रेजी रियासत त्रावणकोर को अंग्रेजों के जाने के बाद दीवान रामास्वामी अय्यर ने अपने नियन्त्रण में में ले लिया था। उसके शोषण के विरुद्ध मेहनतकश जनता ने प्रचण्ड जनान्दोलन छेड़ दिया। रियासत की सरकार ने बर्बर दमन-चक्र चलाया। 22 अक्टूबर को अलेप्पी-शेरतलाई क्षेत्र में एक राजनीतिक आम हड़ताल की शुरुआत हुई। 25 अक्टूबर को मार्शल ला लागू होने के बाद आन्दोलनकारियों के मुख्यालय पर सेना ने हमला बोला। पुनप्रा-वायलार के संक्षिप्त ख़ूनी विद्रोह में करीब 800 लोग मारे गये।

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तेलंगाना का शानदार किसान आन्दोलन

हैदराबाद रियासत में तेलंगाना के किसानों ने आज़ादी के संघर्ष के नारे ‘जो जमीन को जोते बोये, वो जमीन का मालिक होवे’ को हक़ीक़त में बदलने के लिए आवाज बुलन्द की (1946-51)। लेकिन मिला भारी दमन का तोहफा। आज़ाद भारत की पहली सरकार ने भयानक जुल्म ढ़ाकर अंग्रेज हुक्मरानों का सच्चा वारिस घोषित कर दिया था।

हैदराबाद के आसफजाही निजामों के सामन्ती शासन के अन्तर्गत तेलंगाना के निम्न जातियों व आदिवासी समुदायों के किसान ‘डोरों’ (जमींदारों), देशमुखों और जागीरदारों के बर्बर शोषण-उत्पीड़न के शिकार थे। कम्युनिस्टों ने विश्व युध्द के दौरान ही राशन की दुर्व्यवस्था, बेगार (वेट्टी), लगान आदि विविध स्थानीय मसलों को ‘आन्ध्र महासभा’ के बैनर तले उठाते हुए गरीबों में व्यापक आधार बना लिया था।

जुलाई 1946 से अक्टूबर 1951 के बीच तेलंगाना में आधुनिक भारतीय इतिहास का सबसे बड़ा किसान छापामार संघर्ष हुआ। अपने चरम पर, इस सशस्त्र किसान संघर्ष ने कुल 3,000 गाँवों के 16,000 वर्गमील क्षेत्र को मुक्त करा लिया था, जिसकी आबादी करीब 30 लाख थी। लगभग डेढ़ वर्षों तक इस क्षेत्र की सारी शासन व्यवस्था किसानों की गाँव कमेटियों के हाथों में थी।

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अगस्त 1947 से सितम्बर 1948 के बीच का समय संघर्ष के चरमोत्कर्ष का काल था। छापामारों के नियन्त्रण के क्षेत्रों में इस दौरान भूमि पुनर्वितरण के अतिरिक्त सामाजिक-सांस्कृतिक बदलाव की दिशा में भी महत्त्वपूर्ण कोशिशें हुईं। संघर्ष अपने चरम पर था। इसी दौरान देश बर्तानवी गुलामी से आज़ाद हुआ और सत्त की बागडोर कांग्रेस के हाथों में आई। लेकिन अज़ादी का सपना धूल-धुसरित होने लगा। अंग्रेजों से विरासत में मिले दमन का सिलसिला नेहरू सरकार ने भी जारी रखा।

सितम्बर 1948 में भारतीय सेना ने हैदराबाद निज़ाम को भारत में मिलाने के बहाने आन्दोलनकारियों के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया। गाँवों में बर्बर अमानुषिक दमन का ताण्डव हुआ और छापामार आन्दोलनकारी दूरवर्ती जंगलों में बिखर गये। अंततः तेलंगाना संघर्ष को त्रासद पराजय और ख़ून के दलदल में धकेल दिया गया। पीछे हटने व बिखरने के बावजूद 1950-51 तक छापामार कार्रवाइयाँ जारी रहीं। छापामारों का अन्तिम मोर्चा गोदावरी का वन्य प्रदेश था।

सन् ’47 की आजादी और मेहनतकश आवाम

कौन आज़ाद हुआ
किसके माथे से गुलामी की सियाही छूटी
मेरे सीने में दर्द है महक़ू़मी का
मादरे हिन्द के चेहरे पर उदासी है वही…।

15 अगस्त 1947 को बंटवारे की त्रासदी के बीच देश बर्तानवी औपनिवेशिक गुलामी से मुक्त हुआ। नये दोनो देश – भारत और पाकिस्तान – साम्प्रदायिक दंगे की आग में झुलस रहे थे। फिर भी दो सौ वर्षों के अंग्रेजी राज के खात्मे से देश के तमाम तबकों के साथ पूरा मेहनतकश अवाम लम्बे समय से हो रहे जुल्म से मुक्ति का सपना साकार होने की उम्मीद में था। लेकिन देश की मेहनतकश जनता का यह सपना जल्द ही धूल-धुसरित होने लगा।

आजाद भारत की नीतियां और मज़दूर वर्ग के टूटते सपने

आज़ादी के बाद देश में कथित समाजवाद का नेहरू माॅडल लागू हुआ। दरअसल सरकारी व निजी भागेदारी की मिश्रित अर्थव्यवस्ता का यह वही माॅडल था, जिसे सन् 1944 में देश के शीर्ष पूँजीपतियों ने टाटा-बिड़ला के नेतृत्व में तैयार किया था, जिसे ‘बाम्बे प्लान’ भी कहते हैं। इस दो टांगों की नीति का सार रूप यह था कि वे क्षेत्र जिनमें भारी पूँजी की दरकार थी और आने वाले समय में जिसमें मुनाफे की कोई गुंजाइश नहीं थी उन्हें सार्वजनिक क्षेत्र में डाला जाय।

ये वे क्षेत्र थे जिनके बगैर बाकी उद्योग चल भी नहीं सकते थे, यानी अवरचनागत उद्योग। जैसे – सड़क, रेल परिवहन, संचार, डाक आदि। दूसरे वे सभी उद्योग जो तत्काल मुनाफा देते, यानी सूई बनाने से लेकर कपड़ा तक, टाटा, बिड़ला, बजाज, गोदरेज, जेके जैसे पूँजीपतियों के हवाले करना।

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परिणामस्वरूप एक तरफ देश की भारी मेहनतकश आबादी कंगाल होती गयी तो मुट्ठीभर पूँजीपति आकूत दौलत के स्वामी होते गये। इसी के साथ ही नौकरशाहों, नेताओं आदि बिचैलियों का भी एक तबका विकसित हुआ और वह भी सम्पत्तिशाली बना। धीरे-धीरे जनता के खून-पसीने से जब सार्वजनिक उद्योग खड़े हो गये और मुनाफा देने की हैसियत में आ गये तो इनपर मुनाफाखोरों की ललचाई निगाहें लग गईं और इन्हें आज औने-पौने दामों में देशी-बहुराष्ट्रीय निगमों के हवाले किया जाने लगा।

इधर देश की मेहनतकश जनता की आकांक्षाएं एक के बाद एक टूटती गयीं। हक़ के किसी भी आवाज़ को कुचलने के लिए देशी सत्ताधारी न केवल दमन बढ़ाते गये अपितु नये-नये काले कानूनों को बनाने में वे अंग्रेज हुक्मरानों को भी मात देने लगे। सो देश का मज़दूर काले अंग्रेजों के खिलाफ नये संघर्षों के लिए कमर कसने लगा।

इसे भी देखेंमासा रैली, 3 मार्च 2019

आगे पढ़ें- संघर्षों के साथ ही मिले क़ानूनी अधिकार

(क्रमशः जारी. . .)

मज़दूर इतिहास श्रृंखला की अन्य कड़ियाँ-

पहली क़िस्त– आओ देश के मज़दूर इतिहास को जानें!

दूसरी क़िस्त – जब अमानवीयता की हदें भी पार हुईं

तीसरी क़िस्त– मज़दूर इतिहास : मजदूरों ने ली शुरुआती अंगडाई

चौथी क़िस्त– इतिहास में यूँ विकसित हुईं यूनियनें

पाँचवीं क़िस्त– इतिहास: दमन के बीच संघर्षों का आगे बढ़ता दौर

छठीं क़िस्त– आओ जब मज़दूर आन्दोलन इंक़लाबी तेवर लेने लगा

सातवीं क़िस्त– मंदी व विश्वयुद्ध से जूझकर आगे बढ़ता मेहनतकश

आठवीं क़िस्त– आज़ादी की पूर्व बेला में आगे बढ़ता मज़दूर आन्दोलन

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