मंदी व विश्वयुद्ध से जूझकर आगे बढ़ता मेहनतकश

1933 में बॉम्बे में कपड़ा श्रमिकों को संबोधित करते हुए मणिबेन कारा

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आओ देश के मज़दूर इतिहास को जानें – 7

दुनिया का पूँजीवादी निजाम 1929-33 की महामन्दी के दुश्चक्र में फंसा तो उसने संकटों का बोझ मेहनतकशों पर थोप दिया। वेतन में कटौती और छँटनी का बोझ भारत के मज़दूरों पर भी पड़ा। . . .उधर जब साम्राज्यवादी लुटेरों ने दुनिया की आवाम को दूसरे विश्व युद्ध की विभीषिका में धकेला तो भी संकट मज़दूर वर्ग को ही झेलना पड़ा। युद्ध के नाम पर तमाम उद्योगों में काम के घंटे बेइंतहां बढ़ा दिए गये, छुट्टियां घटा दी गयीं, बाल श्रमिकों को प्रतिबंधित क्षेत्रों में भी झोंका गया। . . .इन विकट स्थितियो में भी मज़दूरों का संघर्ष आगे बढ़ता रहा. . .

धरावाहिक सातवीं किस्त

पहली क़िस्त– आओ देश के मज़दूर इतिहास को जानें!

दूसरी क़िस्त – जब अमानवीयता की हदें भी पार हुईं

तीसरी क़िस्त– मज़दूर इतिहास : मजदूरों ने ली शुरुआती अंगडाई

चौथी क़िस्त– इतिहास में यूँ विकसित हुईं यूनियनें

पाँचवीं क़िस्त– इतिहास: दमन के बीच संघर्षों का आगे बढ़ता दौर

छठीं क़िस्त– आओ जब मज़दूर आन्दोलन इंक़लाबी तेवर लेने लगा

वो शोला रौशन कर देगा अब तदबीरों से हर मंज़र

मेहनत से चूर हैं हम
आराम से कोसों दूर हैं हम
पर लड़ने को मजबूर हैं हम
मज़दूर हैं हम – मज़दूर हैं हम!

-मजाज

मंदी के दुष्चक्र में पूँजीवाद, संकट ठेला मज़दूरों पर

दुनिया भर के पूँजीवादी निजाम 1929-33 की महामन्दी के दुश्चक्र में फंस गये। यानी बाज़ार तो तरह-तरह के मालों से पट गया, लेकिन बिकना लगभग बन्द हो गया, क्योंकि लोगों के पाॅकेट में पैसा ही नहीं था। इसे टालने के लिए उद्योगों में काम ठप होने लगे, छँटनी बढ़ी, बेरोजगारी बढ़ने लगी तो मंदी का संकट और गहरा गया। यह पूँजीवाद का आम संकट है, जिसकी गिरफ्त में वह बार-बार फंसता है।

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यह इस बात का ही प्रमाण है कि जब विश्व पूँजीवाद महामंदी का संकट झेल रहा था, मज़दूर राज्य सोवियत संघ में उत्पादन में आठ-दस गुने की वृद्धि हो रही थी। क्योंकि वहाँ उत्पादन बाजार व मुनाफे के लिए नहीं, जनता की जरूरतों के लिए हो रहा था।
दुनिया के इस सबसे बड़ी मंदी के संकटों का बोझ पूँजीवाद ने दुनिया भर के मेहनतकशों पर थोप दिया। वेतन में कटौती और छँटनी का बोझ भारत के मज़दूरों पर भी पड़ा और उनकी स्थिति और दयनीय हो गयी।

दूसरे विश्व युद्ध के दौरान मुंबई की एक कपड़ा मिल में युवा महिला कर्मचारी

यंग वर्कर्स लीग का गठन

1931-34 के दौर में देश का मज़दूर आंदोलन सांगठनिक रूप से नीचे गया लेकिन एटक में टूट के बाद एकता के प्रयास भी आगे बढ़े। इस दौर में महत्वपूर्ण बात यह है कि मज़दूरों में राजनीतिक पहलक़दमी बढ़ाने तथा वर्गीय और क्रान्तिकारी चेतना भरने का काम तेज हुआ। महत्वपूर्ण बात यह है कि युवा मज़दूरों में जागरुकता बढ़ी और 1930 में ‘यंग वर्कर्स लीग’ नामक संगठन बना।

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यह रेलवे व अन्य उद्योगों में 25 वर्ष से कम उम्र के कार्यरत मजदूरों का संगठन था। जिसका घोषित उद्देश्य मजदूरों-किसानों का गणराज्य कायम करना, समाजवादी सिद्धांतों के आधार पर भारतीय संविधान की रचना के साथ ही मज़दूरों की आर्थिक माँगें हासिल करना था।

एटक के विभाजन के बाद गठित ‘रेड ट्रेड यूनियन कांग्रेस’ ने मजदूरों के आर्थिक संघर्षों के संचालन के साथ उनमें क्रान्तिकारी दर्शन के प्रचार-प्रसार में महती भूमिका निभाई। मज़दूरों का राजनीतिकरण हुआ। यंग वर्कर्स लीग की स्थापना इसी की कड़ी थी। जिसने 1934 में मुंबई मज़दूरों की आम हड़ताल में महती भूमिका अदा की।

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इस हड़ताल की असफलता के बाद लीग ने जारी पर्चे में कहा कि ‘यद्यपि मुंबई के मिल मज़दूरों की आम हड़ताल सामयिक तौर पर टूट गई है लेकिन मज़दूरों का संघर्ष समाप्त नहीं हुआ है…….मज़दूरों के लिए आवश्यक है कि वह उस बढ़ते जुल्म के खिलाफ संघर्ष करें यह अति आवश्यक है कि इस आम हड़ताल के मुकाबले और भी साहसपूर्ण कदम उठाए जाएं।’

संघर्षों ने फिर पकड़ी रफ्तार

1935-36 में मज़दूर संघर्षों में पुनः तेजी आयी। अध्यादेशों व कानूनों से हड़तालों को गैरकानूनी करार देने के बावजूद तमाम केंद्रों में ट्रेड यूनियन आंदोलन फैल गया। उस समय की प्रमुख आन्दोलनों में कोलकता के केशव राव काॅटन मिल, अहमदाबाद काॅटन मिल, कानपुर का कपड़ा मज़दूर आंदोलन, बंगाल के जूट मिल, मेवाड़ में अजमेर के बेवर जूट मिल हड़ताल प्रमुख हैं। लेकिन सबसे बड़ी हड़ताल बंगाल-नागपुर रेलवे के मज़दूरों की रही। जिसमें 26,500 मज़दूर शामिल थे।

इन आंदोलनों से मज़दूर वर्ग के राजनीतिक और आर्थिक भागीदारी बढ़ने के साथ जन संघर्षाें में आगे बढ़ने की जमीन तैयार हुई और वर्ग चेतना उन्नत हुई।

प्रांतीय चुनाव : मज़दूरों के साथ धोखा था

इसी दौर में गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट 1935 आया और 1937 में प्रांतीय चुनाव की घोषणा हुई जिसकी देश के अन्य तबकों के साथ मज़दूर वर्ग ने भी मुख़ालफ़त की। क्योंकि महज 13 फीसदी लोगों को ही हैसियत के अनुसार मत देने का अधिकार तक सीमित रखकर पूरी मेहनतकश आबादी को वंचित रखा गया था।

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हड़तालों की नई तरंगें

द्वितीय विश्व युद्ध के पूर्व काल में दुनिया भर के पूँजीवादी निजामों में युद्ध सामग्री निर्माण की वहसी दौड़ ने पूरी दुनिया के मज़दूरों में नये संघर्षों की लहर पैदा की। जिससे भारत के मज़दूरों में भी नयी चेतना पैदा हुई। 1937 में बंगाल के जूट मिल मज़दूरों की ऐतिहासिक हड़ताल हुई जो भारी दमन के बावजूद व्यापक एकता बनाने में कामयाब रही। इस हड़ताल मेें दो लाख पच्चीस हजार मज़दूर भागीदार बने। बंगाल के छात्र भी समर्थन में उतर आये और राहत कोष निर्मित किया।

इस हड़ताल की व्यापकता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि रविंद्रनाथ टैगोर तक ने संघर्षरत जूट मिल मज़दूरों को विपुल समर्थन देते हुए देश की आम जनता से हड़ताली मज़दूरों और उनके आश्रितों को भरपूर आर्थिक मदद की अपील की थी।

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देशी सरकारों ने भी बढ़ाए जुल्म

1937 में देश के विभिन्न प्रांतों में देशी सरकारें बनीं। मज़दूरों में अपनी बदहाली से मुक्ति, बेहतर स्थिति व हक मिलने की उम्मीद जगी। लेकिन जल्द ही वह धूल-धुसरित हो गई। चाहें बंगाल में गैर कांग्रेसी सरकार रही हो या अन्य राज्यों की कांग्रेसी सरकार, मज़दूर आंदोलन के दमन का वही सिलसिला आगे बढ़ा जो अंग्रेज हुक्मरानों द्वारा जारी थे। देश के संपत्तिवानों द्वारा चुनी काले अंग्रेजों की सरकारें संपत्तिहीन मेहनतकशों पर कहर ढाती रहीं।

उसी दौर में संयुक्त प्रांत (अब के उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड आदि) में पं. गोविंद बल्लभ पन्त के नेतृत्व में सरकार का गठन हुआ। उस वक्त कानपुर के औद्योगिक केंद्र में मज़दूरों का आंदोलन शुरू हुआ था। पन्त सरकार ने हड़तालें तोड़ने के लिए तथा धरना-प्रदर्शन और रैली पर रोक के लिए निषेधाज्ञा जारी कर दिया था। मज़दूर नेताओं को झूठे फौज़दारी मुकदमों में फंसाया गया। इसके बावजूद कानपुर महासभा द्वारा वेतन कटौती वापसी, वेतन वृद्धि, छँटनी आदि को लेकर अपने संघर्ष को जारी रखा गया। जिसमें 40,000 मज़दूर आम हड़ताल में शामिल हुए थे जो समझौता संपन्न होने के बाद ही समाप्त हुई।

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दूसरे विश्व युद्ध का दमनकारी दौर (1939-45)

3 सितंबर 1939 से बाज़ार और कच्चे माल के स्रोतों पर कब्जे के लिए साम्राज्यवादी लुटेरों ने दुनिया की मेहनतकश जनता को युद्ध की विभीषिका में झोंक दिया। इसमें एक तरफ जर्मनी, इटली, जापान की फासीवादी ताकतें थीं तो दूसरी ओर ब्रिटेन, फ्रांस अदि पुराने सरगना। बाद में साम्राज्यवाद का उभरता चैधरी अमेरिका भी उतर पड़ा। दूसरी ओर फासीवाद के खिलाफ लगातार संघर्षरत मज़दूर वर्ग के समाजवादी देश सोवियत संघ ने कमान संभाली और फासीवाद को अन्तिम शिकस्त दी।

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दूसरेविश्व युद्ध के दौरान फैक्ट्री में काम करता एक मज़दूर
(Photo by: Universal History Archive/UIG via Getty Images)

युद्ध काल में मज़दूर दमन हुआ और तेज

इस युद्धकाल ने भारत के मज़दूर वर्ग को भी संकटों के नये चक्र में धकेल दिया। युद्ध के नाम पर तमाम उद्योगों में काम के घंटे बेइंतहां बढ़ा दिए गये, छुट्टियां घटा दी गयीं, बाल श्रमिकों को प्रतिबंधित क्षेत्रों में भी झोंका गया। खदानों में भूमिगत कार्य महिलाओं से न कराने का प्रतिबंध समाप्त कर दिया गया। 17-18 से 50 वर्ष तक के लोगों से कभी भी काम लेना अनिवार्य कर दिया गया और उल्लंघन पर दंड व सजा का प्रावधान थोपा गया। कई तरह के काले कानून बने।

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1936 व 1938 में ट्रेड डिस्प्यूट एक्ट में संशोधन कर हड़तालों को गैरकानूनी घोषित करने का और हड़ताल के दौरान का वेतन जब्त करने का अधिकार मालिकों को मिल गया।

इन परिस्थितियों में कारखानों में न केवल दुर्घटनाएं बढ़ गयीं, अपितु वेतन में भी कमी आयी। परिस्थितियां विकट थीं और संघर्ष ही रास्ता था। सो औद्योगिक केंद्रों- मुंबई, कानपुर, कोलकाता, बंगलौर, जमशेदपुर, धनबाद, झरिया, नागपुर, चेन्नई, दिनवाय (असम) सहित पूरे देश में हड़तालों की बयार आ गयी।

यही नहीं 1942 के ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन में भी मज़दूरों ने भागीदारी निभाई।

फिर क्या था सरकारी दमन और तेज हो गया। हजारों की संख्या में ट्रेड यूनियन नेताओं, कम्युनिस्टों व उनके समर्थकों ही नहीं तमाम मज़दूरों और उनके सहयोगी के नाम पर छात्रों, यहाँ तक कि डाॅक्टरों तक को संगीन धाराओं में जेल के सींखचों में बंद कर दिया गया। लेकिन जज्बे भरे संघर्षों को रोका नहीं जा सका।

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आगे पढ़ें- आज़ादी की पूर्वबेला में मजदूरों के संघर्ष किस ओर थे. . .

(क्रमशः जारी. . .)

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