मज़दूर इतिहास : मजदूरों ने ली शुरुआती अंगडाई

आओ देश के मज़दूर इतिहास को जानें – 3

आरम्भ से ही भारतीय मेहनतकश को प्रतिरोध और संघर्षों के लम्बे पीड़ादाई दौर से गुजरना पड़ा। संघर्षाें-आन्दोलनों-कुर्बानियों के अनन्त श्रृंखला भारतीय इतिहास के शानदार दौर की कहानी कहते हैं। यह वह दौर था, जब मेहनतकश जनता के पास अतीत का कोई ऐसा अनुभव नहीं था जिसपर वे चलकर आगे बढ़ते। हालात ने सिखाया कि संघर्ष के अलावा कोई रास्ता नहीं है। तमाम भूलों-गलतियों से सीखते हुए हमारे इन पुरखों ने राह बनाई। प्रतिरोध के नये-नये हथियार, नये-नये नारे गढ़े। दमन झेलकर भी संघर्ष किया। कुछ हासिल किया और बहुत कुछ हासिल करने के जज्बे के साथ आगे बढ़ते रहे…!

धरावाहिक तीसरी किस्त

पहली क़िस्त में पढ़ें– आओ देश के मज़दूर इतिहास को जानें!

दूसरी क़िस्त में पढ़ें– जब अमानवीयता की हदें भी पार हुईं

बिन हवा न पत्ता हिलता है, बिन लड़े न कुछ भी मिलता है!

दोनो पांव काट दो
फिर भी मैं चलूंगा अपनी राह पर।
दोनो हाथ काट दो
फिर भी मैं बजाऊंगा अपनी धुन।
दोनो आंखें निकाल लो
फिर भी मैं देखूंगा अपना सपना।

-विपुल चक्रवर्ती

शोषण के बीच संघर्षों का पहला दौर

अगर कुछ छुटपुट आन्दोलनों की बात करें तो उनमें सन् 1823 में कलकत्ता के पालकी ढ़ोने वाले हजारों श्रमिकों की एक माह से ज्यादा चली हड़ताल है। जिन पालकी ढ़ोने वालों की पीड़ा को भूपेन हजारिका के गाए गीत ‘डोला हे डोला…’ में हम पा सकते हैं। यह सिलसिला आगे बढ़ता रहा। सन् 1853 में नदी परिवहन के पल्लेदारों ने अपना काम बन्द करके प्रतिरोध जताया, तो 1862 में बैलगाड़ी चालकों ने हड़ताल की। उधर मुम्बई में 3,000 नाइयों (1863) व मुम्बई नगर पालिका में मांस बेंचने वालों ने हड़ताल की तो अहमदाबाद के ईंट भट्टा मज़दूरों ने (1866) तथा नागपुर में टाटा की एंप्रेस मिल के बुनकरों ने संघर्ष की राह पकड़ी।

इस सिलसिले में नील की खेती करने वाले रैय्यत किसानों के विद्रोह, संथालों की बगावत, महाराष्ट्र व मालाबार के समुद्र तट के किसानों की शानदार बगावत से इतिहास के पन्ने रंगे पड़े हैं। इसी कड़ी का एक हिस्सा है बागान मज़दूरों का संघर्ष।

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चाय बागान मज़दूरों का आन्दोलन

बेहद अमानवीय स्थितियों में काम करने वाले बंगाल के बंधुआ चाय बागान मज़दूरों ने 1884 में प्रतिरोध की पहली अंगड़ाई ली, जो असफल रही। लेकिन उनके संघर्षों का सिलसिला जारी रहा। बाद में यह एक प्रेरणादाई आन्दोलन बन गया। 1921 में बंगाल के चन्द्रपुर के बागान मज़दूरों ने बगावत की और अपने घरों की ओर पलायन करने लगे। फिर तो दमन का सिलसिला आगे बढ़ गया। बागान मालिकों के इशारे पर ट्रेनों से खींच-खींच कर उन पर कहर बरपा हुआ।

फिर क्या था, आम जनता उमड़ पड़ी समर्थन में, वह सड़कों पर थी। चन्द्रपुर की जनता ने हड़ताल की घोषणा कर दी, जो आस-पास के इलाकों में फैल गई। समर्थन में असम व बंगाल के रेलवे के मज़दूर कर्मचारी भी आगे आए और रेल का चक्का तक जाम कर दिया।

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उस वक्त आनन्द बाजार पत्रिका ने लिखा कि-
‘‘असम के चाय बगान कुलियों की हड़ताल, वास्तव में युगों से उन पर होने वाले शोषण और अत्याचार के खिलाफ विद्रोह है। वे वर्षों से इस अमानुषिकता और निर्दयता का शिकार थे। जबसे ये कुली, भरती करने वाले, इन धुर्त अकारथी के हाथों में पड़ते थे और जब तक कब्र में नहीं पहुँच जाते थे, उनका सम्पूर्ण जीवन दारुण दुखों की लम्बी कहानी है…। पुरुषों, महिलाओं, बच्चों सबकी एक ही दशा थी। ये असहाय कुली जिस समय चाय बगान में प्रवेश कर जाते यह मान लिया जाता था कि मनुष्यता और सभ्यता उनसे छीन ली गयी है। …लेकिन अन्त में उनकी मुक्ति किसी बाहरी ताकत से नहीं, बल्कि उनके अन्दर की शक्ति से आई। वे सदा-सदा के लिए अपनी बेड़ियां तोड़ डालने या फिर मर जाने के लिए संकल्पित हैं।’’

संघर्ष रंग लाया और उन्हें हक़ मिला। समय के साथ असम और बंगाल के चाय बगानों के उत्पीड़ित मज़दूर ट्रेड यूनियन में भी संगठित हो गये।

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प्रवासी मज़दूरों का संघर्ष

संघर्षों का सिलसिला उन प्रवासी मज़दूरों ने भी शुरू कर दिया था, जो लगातार 12 से 18 घण्टे गुलामों की तरह खट रहे थे। इस श्रृंखला की एक महत्वपूर्ण कड़ी है ब्रिटिस शासन के तहत गिना के भारतीय बगान मज़दूरों का। मज़दूरों ने संगठित होकर द्वीप की व्यवस्था करने वाले अंग्रेज के महल जार्जटाउन तक मार्च किया। जहाँ उनका बर्बर दमन हुआ। निहत्थे मेहनतकशों पर पुलिस गोलीबारी में 8 लोग मारे गये, नौ से ज्यादा घायल हुए और अनेक बन्दी बना लिए गये। लेकिन प्रवासी भारतियों के संघर्ष का सिलसिला रुका नहीं।

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आगे चलकर ‘गदर पार्टी’ व ‘भारत स्वाधीनता समिति’ जैसे संगठन खड़े हुए, जिसमें भूपेन्द्र दत्त, मंसूर अहमद, लाला हरदयाल, अजित सिंह, करतार सिंह साराभा आदि का नाम प्रमुखता से आता है।

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शुरुआती सांगठनिक पहल

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उठ गुलाम ज़िन्दगी के बन्धनों को तोड़ दे!

न हो कुछ
सिर्फ सपना हो तो भी
हो सकती है शुरुआत
और यह शुरुआत ही तो है
कि वहाँ एक सपना है!

-वेणु गोपाल

संकट गहरा था मगर बेहतरी का एक सपना था। तो हो गयी शुरुआत अपने मुक्ति की। शुरू हो गयी जंग जुल्म और शोषण के खिलाफ भारत के मज़दूर वर्ग की। …यह आज भी जारी है और तब-तक जारी रहेगी जब-तक एक शोषणविहीन समाज की स्थापना नहीं हो जाती।

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पहले दौर के संगठन और पाठशालाएँ

बर्तानवी हुक्मरानों और उनके देशी पिट्ठुओं के बेइन्तहां जुल्म के खिलाफ शुरुआती संघर्षों को खड़ा करने में जहाँ मज़दूरों की बगावतें थीं, वहीं ढ़ेरों ऐसे समाजिक व्यक्ति थे जिन्होंने इसमें शानदार भूमिकाएं अदा कीं।

सन् 1857 में हुए आजादी के शानदार संग्राम और दमन के बाद देश के औद्योगिक मज़दूरों को शिक्षित-प्रशिक्षित, जागरूक व संगठित करने में तमाम प्रयास हुए। 1870 में बंगाल के ब्रह्म समाज के शशिपाद बनर्जी ने मज़दूरों के लिये ‘वर्किंग मेंस क्लब’ की स्थापना की। अब तक की जानकारी के अनुसार देश में मज़दूरों का यह अपने किस्म का पहला क्लब था। यही नहीं, शशिपाद दा ने 1874 में कोलकता से ‘भारत श्रमजीवी’ नामक मासिक पत्रिका भी निकालनी शुरू की, जो मज़दूर हितों और उनकी समस्याओं पर केन्द्रित पहली पत्रिका थी।

ब्रह्म समाज ने ‘वर्किंग मेंस मिशन’ की शुरुआत की, जो मूलतः धार्मिक नैतिकता के लिए केन्द्रित था। 1872 में ब्रह्म समाज के ही पी. सी. मजुमदार ने मुंबई की मज़दूर बस्तियों में आठ रात्रि स्कूलों की स्थापना की, जबकि 1880 में ‘बारंगल इंस्टीच्यूट’ व 1889 में बारंगल के जूटमिल मज़दूरों के लिए शशिपद दा की सरपरस्ती में रात्रि स्कूल व बचत बैंक प्रारम्भ हुआ।

इसी दौर में महाराष्ट्र में भी कई उल्लेखनीय कदम उठे। सन् 1878 में सोराबजी सापुरजी बनर्जी ने मुंबई के सूती मिल मज़दूरों की स्थिति सुधारने के महत्वपूर्ण प्रयास किये। समाज सुधारक ज्योती बा फूले के सहयोगी मुबई के नारायण मेधाजी लोखण्डे ने मज़दूरों को संगठित करने और उनकी माँग उठाने में सक्रियतापूर्ण अहम भूमिका निभाई।

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रविवार अवकाश की माँग सहित पाँच सूत्रीय ज्ञापन

1884 में उन्होंने मज़दूरों की एक सभा बुलाई, जिसका मूल उद्देश्य मज़दूर समस्याओं को सुनना और एक ज्ञापन तैयार करना था। 23-24 सितम्बर 1884 की इस सभा ने पाँच सूत्रीय जो ज्ञापन तैयार किया था, उसमें सभी मिल मज़दूरों को प्रत्येक रविवार पूरे दिन का अवकाश, दोपहर में आधे घण्टे का अवकाश, कार्य दिवस प्रातः 6.30 से सूर्यास्त तक करने, वेतन भुगतान प्रत्येक माह की 15 तारिख से पहले मिलने तथा दुर्घटना पर सवेतन छुट्टी व जीवन भर की अपंगता पर उचित पेंशन की माँग उठाई गयी थी।

इस ज्ञापन पर पाँच हजार मज़दूरों ने हस्ताक्षर किये थे, जिसे बाम्बे सरकार द्वारा नियुक्त 1884 के आयोग को दिया गया।
एन. एम. लोखाण्डे के प्रयास से 24 अप्रैल 1890 को पुनः एक विशाल सभा हुई, जिसमें 10 हजार मज़दूरों ने भाग लिया था महत्वपूर्ण यह था कि इस सभा को दो महिला मज़दूरों ने भी सम्बोधित किया।

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और मिल गया रविवार अवकाश का हक़

सभा ने रविवार की छुट्टी के लिए ज्ञापन तैयार किया और मालिकों के संगठन ‘बांबे मिल ओनर्स एसोसिएशन’ के पास भेजा था। जिसे 10 जून 1890 की बैठक में सैद्धांतिक तौर पर स्वीकार कर लिया गया। मज़दूरों की यह एक महत्वपूर्ण जीत थी। यह भी एक अहम बात है कि 1890 में ही लोखाण्डे ने ‘बाम्बे मिल हैंड्स एसोसिएशन’ नामक संस्था का गठन किया, जिसके वे अध्यक्ष थे। उन्होंने 1898 में ‘दीनबंधु’ पत्रिका का प्रकाशन भी शुरू किया।

यूँ आगे बढ़ते गये संगठन के प्रयास

आरम्भिक प्रयासों की इसी कड़ी में कोलकाता में सन् 1895 में मज़दूरों की ‘मुहम्मिदान एसोसिएशन’ तथा ‘इण्डियन लेबर यूनियन’ का भी नाम है। 1897 में भारत व वर्मा के संयुक्त रेलवे कर्मचारियों ने एक संस्था बनाई और भारतीय कम्पनी ऐक्ट के तहत पंजीकृत भी कराया।

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कानपुर के मज़दूर थोड़ी देर से संगठित होना शुरू हुए। यहाँ आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी और उनकी पत्रिका ‘सरस्वती‘, गणेश शंकर विद्यार्थी व उनकी पत्रिका ‘प्रताप’ तथा रमा शंकर अवस्थी की पत्रिका ‘वर्तमान’ ने महती भूमिका निभाई। मज़दूरों का यहाँ पहला संगठन ‘कानपुर मज़दूर सभा’ 1918 में एलगिन मिल के मज़दूर पं. कामदत्त और लाला देवी दयाल के प्रयास का परिणाम था।

आचार्य द्विवेदी हड़तालके बारे में लिखते हैं कि ‘‘मज़दूरों को …अपना दुख सुनाने के लिए …अर्जियां देनी पड़ती हैं, अपनी तकलीफें दूर करने के वे भरसक सब कोशिशें करते हैं, इसपर भी उनकी दाद-फरियाद काम न करे तो वे हड़ताल न करें तो क्या करें?”

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संघर्षों और संगठित होने का यह सिलसिला आगे बढ़ता रहा…

(क्रमशः जारी. . .)

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