प्रेमचंद की पुण्यतिथि (8 अक्टूबर) पर उनकी पांच लघुकथाएं !

राष्ट्र का सेवक

राष्ट्र के सेवक ने कहा- देश की मुक्ति का एक ही उपाय है और वह है नीचों के साथ भाईचारे का सलूक, पतितों के साथ बराबरी का बर्ताव. दुनिया में सभी भाई हैं, कोई नीच नहीं, कोई ऊंच नहीं.

दुनिया ने जय-जयकार की- कितनी विशाल दृष्टि है, कितना भावुक हृदय!

उसकी सुन्दर लड़की इन्दिरा ने सुना और चिन्ता के सागर में डूब गई.

राष्ट्र के सेवक ने नीची जाति के नौजवान को गले लगाया.

दुनिया ने कहा- यह फरिश्ता है, पैगम्बर है, राष्ट्र की नैया का खेवैया है.

इन्दिरा ने देखा और उसका चेहरा चमकने लगा.

राष्ट्र का सेवक नीची जाति के नौजवान को मन्दिर में ले गया, देवता के दर्शन कराए और कहा- हमारा देवता गरीबी में है, ज़िल्लत में है, पस्ती में है.

दुनिया ने कहा- कैसे शुद्ध अन्त:करण का आदमी है! कैसा ज्ञानी!

इन्दिरा ने देखा और मुस्कराई.

इन्दिरा राष्ट्र के सेवक के पास जाकर बोली- श्रद्धेय पिताजी, मैं मोहन से ब्याह करना चाहती हूं.

राष्ट्र के सेवक ने प्यार की नज़रों से देखकर पूछ- मोहन कौन है?

इन्दिरा ने उत्साह भरे स्वर में कहा- मोहन वही नौजवान है, जिसे आपने गले लगाया, जिसे आप मन्दिर में ले गए, जो सच्चा, बहादुर और नेक है.

राष्ट्र के सेवक ने प्रलय की आंखों से उसकी ओर देखा और मुंह फेर लिया.


बाबाजी का भोग

रामधन अहीर के द्वार एक साधू आकर बोला- बच्चा तेरा कल्याण हो, कुछ साधू पर श्रद्धा कर. रामधन ने जाकर स्त्री से कहा- साधू द्वार पर आए हैं, उन्हें कुछ दे दे.

स्त्री बरतन मांज रही थी और इस घोर चिंता में मग्न थी कि आज भोजन क्या बनेगा, घर में अनाज का एक दाना भी न था. चैत का महीना था, किन्तु यहां दोपहर ही को अंधकार छा गया था. उपज सारी की सारी खलिहान से उठ गई. आधी महाजन ने ले ली, आधी ज़मींदार के प्यादों ने वसूल की, भूसा बेचा तो व्यापारी से गला छूटा, बस थोड़ी-सी गांठ अपने हिस्से में आई. उसी को पीट-पीटकर एक मन भर दाना निकला था. किसी तरह चैत का महीना पार हुआ. अब आगे क्या होगा. क्या बैल खाएंगे, क्या घर के प्राणी खाएंगे, यह ईश्वर ही जाने. पर द्वार पर साधू आ गया है, उसे निराश कैसे लौटाएं, अपने दिल में क्या कहेगा.

स्त्री ने कहा- क्या दे दूं, कुछ तो रहा नहीं. रामधन- जा, देख तो मटके में, कुछ आटा-वाटा मिल जाए तो ले आ.

स्त्री ने कहा- मटके झाड़ पोंछकर तो कल ही चूल्हा जला था, क्या उसमें बरकत होगी?

रामधन- तो मुझसे तो यह न कहा जाएगा कि बाबा घर में कुछ नहीं है किसी और के घर से मांग ला.

स्त्री – जिससे लिया उसे देने की नौबत नहीं आई, अब और किस मुंह से मांगू?

रामधन- देवताओं के लिए कुछ अगोवा निकाला है न वही ला, दे आऊं.

स्त्री- देवताओं की पूजा कहां से होगी?

रामधन- देवता मांगने तो नहीं आते? समाई होगी करना, न समाई हो न करना.

स्त्री- अरे तो कुछ अंगोवा भी पंसरी दो पंसरी है? बहुत होगा तो आध सेर. इसके बाद क्या फिर कोई साधू न आएगा. उसे तो जवाब देना ही पड़ेगा.

रामधन- यह बला तो टलेगी फिर देखी जाएगी. स्त्री झुंझला कर उठी और एक छोटी-सी हांडी उठा लाई, जिसमें मुश्किल से आध सेर आटा था. वह गेहूं का आटा बड़े यत्न से देवताओं के लिए रखा हुआ था. रामधन कुछ देर खड़ा सोचता रहा, तब आटा एक कटोरे में रखकर बाहर आया और साधू की झोली में डाल दिया.

महात्मा ने आटा लेकर कहा- बच्चा, अब तो साधू आज यहीं रमेंगे. कुछ थोड़ी-सी दाल दे तो साधू का भोग लग जाए.

रामधन ने फिर आकर स्त्री से कहा. संयोग से दाल घर में थी. रामधन ने दाल, नमक, उपले जुटा दिए. फिर कुएं से पानी खींच लाया. साधू ने बड़ी विधि से बाटियां बनाईं, दाल पकाई और आलू झोली में से निकालकर भुरता बनाया. जब सब सामग्री तैयार हो गई तो रामधन से बोले बच्चा, भगवान के भोग के लिए कौड़ी भर घी चाहिए. रसोई पवित्र न होगी तो भोग कैसे लगेगा?

रामधन- बाबाजी घी तो घर में न होगा.

साधू- बच्चा भगवान का दिया तेरे पास बहुत है. ऐसी बातें न कह.

रामधन- महाराज, मेरे गाय-भैंस कुछ भी नहीं है.

‘जाकर मालकिन से कहो तो?’ रामधन ने जाकर स्त्री से कहा- घी मांगते हैं, मांगने को भीख, पर घी बिना कौर नहीं धंसता.

स्त्री- तो इसी दाल में से थोड़ी लेकर बनिए के यहां से ला दो. जब सब किया है तो इतने के लिए उन्हें नाराज़ करते हो.

घी आ गया. साधूजी ने ठाकुरजी की पिंडी निकाली, घंटी बजाई और भोग लगाने बैठे. खूब तनकर खाया, फिर पेट पर हाथ फेरते हुए द्वार पर लेट गए. थाली, बटली और कलछुली रामधन घर में मांजने के लिए उठा ले गया. उस दिन रामधन के घर चूल्हा नहीं जला. खाली दाल पकाकर ही पी ली.

रामधन लेटा, तो सोच रहा था- मुझसे तो यही अच्छे!


कश्मीरी सेब

कल शाम को चौक में दो-चार ज़रूरी चीज़ें खरीदने गया था. पंजाबी मेवाफरोशों की दूकानें रास्ते ही में पड़ती हैं. एक दूकान पर बहुत अच्छे रंगदार, गुलाबी सेब सजे हुए नजर आये. जी ललचा उठा. आजकल शिक्षित समाज में विटामिन और प्रोटीन के शब्दों में विचार करने की प्रवृत्ति हो गई है. टमाटो को पहले कोई सेंत में भी न पूछता था. अब टमाटो भोजन का आवश्यक अंग बन गया है. गाजर भी पहले ग़रीबों के पेट भरने की चीज़ थी. अमीर लोग तो उसका हलवा ही खाते थे; मगर अब पता चला है कि गाजर में भी बहुत विटामिन हैं, इसलिए गाजर को भी मेजों पर स्थान मिलने लगा है. और सेब के विषय में तो यह कहा जाने लगा है कि एक सेब रोज़ खाइए तो आपको डाक्टरों की ज़रूरत न रहेगी. डाक्टर से बचने के लिए हम निमकौड़ी तक खाने को तैयार हो सकते हैं. सेब तो रस और स्वाद में अगर आम से बढक़र नहीं है तो घटकर भी नहीं. हां, बनारस के लंगड़े और लखनऊ के दसहरी और बम्बई के अल्फांसो की बात दूसरी है. उनके टक्कर का फल तो संसार में दूसरा नहीं है मगर; मगर उनमें विटामिन और प्रोटीन है या नहीं, है तो काफ़ी है या नहीं, इन विषयों पर अभी किसी पश्चिमी डाक्टर की व्यवस्था देखने में नहीं आयी. सेब को यह व्यवस्था मिल चुकी है. अब वह केवल स्वाद की चीज़ नहीं है, उसमें गुण भी है. हमने दुकानदार से मोल-भाव किया और आध सेर सेब मांगे.

दुकानदार ने कहा-बाबूजी बड़े मज़ेदार सेब आये हैं, खास कश्मीर के. आप ले जाएं, खाकर तबीयत खुश हो जाएगी.

मैंने रूमाल निकालकर उसे देते हुए कहा-चुन-चुनकर रखना.

दुकानदार ने तराज़ू उठाई और अपने नौकर से बोला-लौंडे आध सेर कश्मीरी सेब निकाल ला. चुनकर लाना.

लौंडा चार सेब लाया. दुकानदार ने तौला, एक लिफाफे में उन्हें रखा और रूमाल में बांधकर मुझे दे दिया. मैंने चार आने उसके हाथ में रखे.

घर आकर लिफ़ाफा ज्यों-का-त्यों रख दिया. रात को सेब या कोई दूसरा फल खाने का कायदा नहीं है. फल खाने का समय तो प्रात:काल है. आज सुबह मुंह-हाथ धोकर जो नाश्ता करने के लिए एक सेब निकाला, तो सड़ा हुआ था.

एक रुपये के आकार का छिलका गल गया था. समझा, रात को दुकानदार ने देखा न होगा. दूसरा निकाला. मगर यह आधा सड़ा हुआ था. अब सन्देह हुआ, दुकानदार ने मुझे धोखा तो नहीं दिया है. तीसरा सेब निकाला. यह सड़ा तो न था; मगर एक तरफ दबकर बिल्कुल पिचक गया. चौथा देखा. वह यों तो बेदाग था; मगर उसमें एक काला सुराख था जैसा अक्सर बेरों में होता है. काटा तो भीतर वैसे ही धब्बे, जैसे किड़हे बेर में होते हैं. एक सेब भी खाने लायक नहीं. चार आने पैसों का इतना गम न हुआ जितना समाज के इस चारित्रिक पतन का. दुकानदार ने जान-बूझकर मेरे साथ धोखेबाजी का व्यवहार किया. एक सेब सड़ा हुआ होता, तो मैं उसको क्षमा के योग्य समझता. सोचता, उसकी निगाह न पड़ी होगी. मगर चार-के-चारों खराब निकल जाएं, यह तो साफ धोखा है. मगर इस धोखे में मेरा भी सहयोग था. मेरा उसके हाथ में रूमाल रख देना मानो उसे धोखा देने की प्रेरणा थी. उसने भांप लिया कि महाशय अपनी आंखों से काम लेने वाले जीव नहीं हैं और न इतने चौकस हैं कि घर से लौटाने आएं. आदमी बेइमानी तभी करता जब उसे अवसर मिलता है. बेइमानी का अवसर देना, चाहे वह अपने ढीलेपन से हो या सहज विश्वास से, बेइमानी में सहयोग देना है. पढ़े-लिखे बाबुओं और कर्मचारियों पर तो अब कोई विश्वास नहीं करता. किसी थाने या कचहरी या म्यूनिसिपिलटी में चले जाइए, आपकी ऐसी दुर्गति होगी कि आप बड़ी-से-बड़ी हानि उठाकर भी उधर न जाएंगे. व्यापारियों की साख अभी तक बनी हुई थी. यों तौल में चाहे छटांक-आध-छटांक कस लें; लेकिन आप उन्हें पांच की जगह भूल से दस के नोट दे आते थे तो आपको घबड़ाने की कोई ज़रूरत न थी. आपके रुपये सुरक्षित थे. मुझे याद है, एक बार मैंने मुहर्रम के मेले में एक खोंचे वाले से एक पैसे की रेवडिय़ां ली थीं और पैसे की जगह अठन्नी दे आया था. घर आकर जब अपनी भूल मालूम हुई तो खोंचे वाले के पास दौड़ा गये. आशा नहीं थी कि वह अठन्नी लौटाएगा, लेकिन उसने प्रसन्नचित्त से अठन्नी लौटा दी और उलटे मुझसे क्षमा मांगी. और यहां कश्मीरी सेब के नाम से सड़े हुए सेब बेचे जाते हैं? मुझे आशा है, पाठक बाज़ार में जाकर मेरी तरह आंखे न बन्द कर लिया करेंगे. नहीं उन्हें भी कश्मीरी सेब ही मिलेंगे ?


देवी

रात भीग चुकी थी. मैं बरामदे में खड़ा था. सामने अमीनुद्दौला पार्क नींद में डूबा खड़ा था. सिर्फ़ एक औरत एक तकियादार बेंच पर बैठी हुई थी. पार्क के बाहर सड़क के किनारे एक फ़कीर खड़ा राहगीरों को दुआयें दे रहा था- खुदा और रसूल का वास्ता… राम और भगवान का वास्ता- इस अन्धे पर रहम करो.

सड़क पर मोटरों और सवारियों का तांता बन्द हो चुका था. इक्के-दुक्के आदमी नज़र आ जाते थे. फ़कीर की आवाज जो पहले नक्कारखाने में तूती की आवाज थी, अब खुले मैदानों की बुलन्द पुकार हो रही थी. एकाएक वह औरत उठी और इधर-उधर चौकन्नी आंखों से देखकर फ़कीर के हाथ में कुछ रख दिया और फिर बहुत धीमे से कुछ कहकर एक तरफ़ चली गई. फ़कीर के हाथ में कागज़ का एक टुकड़ा नज़र आया जिसे वह बार-बार मल रहा था. क्या उस औरत ने यह कागज़ दिया है?

यह क्या रहस्य है? उसको जानने के कुतूहल से अधीर होकर मैं नीचे आया और फ़कीर के पास जाकर खड़ा हो गया.

मेरी आहट आते ही फ़कीर ने उस कागज़ के पुर्ज़े को उंगलियों से दबाकर मुझे दिखाया और पूछा- बाबा, देखो यह क्या चीज़ है ?

मैंने देखा-दस रुपये का नोट था. बोला- दस रुपये का नोट है, कहां पाया?

मैंने और कुछ न कहा. उस औरत की तरफ़ दौड़ा जो अब अन्धेरे में बस एक सपना बनकर रह गई थी. वह कई गलियों में होती हुई एक टूटे-फूटे मकान के दरवाज़े पर रुकी, ताला खोला और अन्दर चली गई.

रात को कुछ पूछना ठीक न समझकर मैं लौट आया.

रात भर जी उसी तरफ़ लगा रहा. एकदम तड़के फ़िर मैं उस गली में जा पहुंचा. मालूम हुआ, वह एक अनाथ विधवा है. मैंने दरवाज़े पर जाकर पुकारा- देवी, मैं तुम्हारे दर्शन करने आया हूं.

औरत बाहर निकल आई- गरीबी और बेकसी की ज़िन्दा तस्वीर.

मैंने हिचकते हुए कहा- रात आपने फ़कीर…

देवी ने बात काटते हुए कहा- “अजी, वह क्या बात थी, मुझे वह नोट पड़ा मिल गया था, मेरे किस काम का था.

मैंने उस देवी के कदमों पर सिर झुका दिया.


बन्द दरवाजा

सूरज क्षितिज की गोद से निकला, बच्चा पालने से. वही स्निग्धता, वही लाली, वही ख़ुमार, वही रौशनी.

मैं बरामदे में बैठा था. बच्चे ने दरवाजे से झांका. मैंने मुस्कुराकर पुकारा. वह मेरी गोद में आकर बैठ गया.

उसकी शरारतें शुरू हो गईं. कभी कलम पर हाथ बढ़ाया, कभी कागज़ पर. मैंने गोद से उतार दिया. वह मेज़ का पाया पकड़े खड़ा रहा. घर में न गया. दरवाजा खुला हुआ था.

एक चिड़िया फुदकती हुई आई और सामने के सहन में बैठ गई. बच्चे के लिए मनोरंजन का यह नया सामान था. वह उसकी तरफ लपका. चिड़िया ज़रा भी न डरी. बच्चे ने समझा अब यह परदार खिलौना हाथ आ गया. बैठकर दोनों हाथों से चिड़िया को बुलाने लगा. चिड़िया उड़ गई, निराश बच्चा रोने लगा. मगर अंदर के दरवाज़े की तरफ़ ताका भी नहीं. दरवाज़ा खुला हुआ था.

गरम हलवे की मीठी पुकार आई. बच्चे का चेहरा चाव से खिल उठा. खोंचेवाला सामने से गुज़रा. बच्चे ने मेरी तरफ याचना की आंखों से देखा. ज्यों-ज्यों खोंचेवाला दूर होता गया, याचना की आंखें रोष में परिवर्तित होती गईं. यहां तक कि जब मोड़ आ गया और खोंचेवाला आंख से ओझल हो गया तो रोष ने पुरज़ोर फ़रियाद की सूरत अख़्तियार की. मगर मैं बाज़ार की चीज़ें बच्चों को नहीं खाने देता. बच्चे की फ़रियाद ने मुझ पर कोई असर न किया. मैं आगे की बात सोचकर और भी तन गया. कह नहीं सकता बच्चे ने अपनी मां की अदालत में अपील करने की ज़रूरत समझी या नहीं. आमतौर पर बच्चे ऐसे हालातों में मां से अपील करते हैं. शायद उसने कुछ देर के लिए अपील मुल्तवी कर दी हो. उसने दरवाज़े की तरफ़ रुख न किया. दरवाज़ा खुला हुआ था.

मैंने आंसू पोंछने के ख़्याल से अपना फाउंटेन पेन उसके हाथ में रख दिया. बच्चे को जैसे सारे ज़माने की दौलत मिल गई. उसकी सारी इंद्रियां इस नई समस्या को हल करने में लग गईं. एकाएक दरवाज़ा हवा से खुद-ब-खुद बंद हो गया. पट की आवाज़ बच्चे के कानों में आई. उसने दरवाज़े की तरफ देखा. उसकी वह व्यस्तता तत्क्षण लुप्त हो गई. उसने फाउंटेन पेन को फेंक दिया और रोता हुआ दरवाज़े की तरफ चला क्योंकि दरवाजा बंद हो गया था.


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