जिसने खड़ा किया था मज़दूर आंदोलन का अभिनव प्रयोग

शहीद मज़दूर नेता शंकर गुहा नियोगी के शहादत दिवस (28 सितंबर) पर विशेष

18 सितंबर, 1942 को जन्मे छत्तीसगढ़ के मशहूर मजदूर नेता शंकर गुहा नियोगी सिर्फ एक ट्रेड यूनियन नेता भर नहीं थे, बल्कि एक चिंतक और सामाजिक कार्यकर्ता भी थे। उनकी लड़ाई चौतरफा थी। और उनके द्वारा खड़ा किया गया मॉडल मज़दूर आंदोलन का एक अभिनव प्रयोग है।

महज 48 साल की उम्र में 28 सितंबर, 1991 को पूँजीपतियों ने दुर्ग स्थित अस्थायी निवास पर तड़के चार बजे उनकी गोली मारकर तब हत्या करवा दी थी, जब वे देर रात रायपुर से आकर सोए हुए थे।

यों विकसित हुआ नियोगी का आंदोलन

मूल रूप से पश्चिम बंगाल के जलपाइगुड़ी के रहनेवाले शंकर गुहा नियोगी का असली नाम धीरेश था। 1970 के दशक की शुरुआत में वे छत्तीसगढ आए और यहां भिलाई स्टील संयंत्र (बीएसपी) में बतौर कुशल श्रमिक काम करने लगे। अपने छात्र जीवन से मजदूरों के समर्थन में काम करने वाले धीरेश जल्दी ही बीएसपी में एक मजदूर नेता के तौर पर पहचाने जाने लगे।

यहाँ दबे कुचले मज़दूर बिखरे हुए थे। लेकिन नियोगी के आने से यहां स्थितियां बदल गईं। पहली बार मजदूरों ने अपनी काम करने की दशाओं में सुधार के लिए हड़ताल की और उनकी मांगों के आगे प्रबंधन को झुकना पड़ा। हालांकि इसके बाद प्रबंधन ने धीरेश को नौकरी से बर्खास्त कर दिया। यह घटना 1967 की है। इसके बाद लंबे अरसे तक वे छत्तीसगढ़ में घूम-घूमकर मजदूरों को अपने अधिकारों के लिए जागरूक करते रहे।

1970-71 में वे दोबारा भिलाई आ गए और उनका नाम बदलकर शंकर हो गया। अब वे भिलाई के दानी टोला की चूना पत्थर खदानों में मजदूर की हैसियत से काम करने लगे। अपने पहले के काम की वजह से शंकर गुहा नियोगी यहां भी मजदूरों के बीच लोकप्रिय हो गए। उस समय बीएसपी की दल्ली और राजहरा स्थित लौह अयस्क खदानों में ठेके पर काम करने वाले मजदूरों की बहुत बुरी दशा थी। 14-16 घंटे काम करने के बदले उन्हे महज दो रुपये मजदूरी मिलती थी। उनकी कोई ट्रेड यूनियन भी नहीं थी।

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संगठन बनाने व आन्दोलन खड़ा करने का दौर

नियोगी ने इन मजदूरों को साथ लेकर 1977 में छत्तीसगढ़ माइन्स श्रमिक संघ (सीएमएसएस) का गठन किया और इसके बैनर तले मजदूरों के कल्याण के लिए कई गतिविधियां शुरू कीं। यूनियन के गठन के दो महीने के भीतर ही इससे तकरीबन 10-12 हजार मजदूर जुड़ गए थे। यह शंकर गुहा नियोगी और उनके कुछ साथियों का नेतृत्व ही था कि इस यूनियन ने अपने कामों में शिक्षा व स्वास्थ्य और शराबबंदी जैसे कार्यक्रमों को पूरी प्रतिबद्धता से शामिल किया। उन्होंने औद्योगिक व खदान मज़दूरों और आदिवासी जन के संघर्षो को एक दूसरे से जोड़कर मेहनतकशों की व्यापक एकता बनाई, आंदोलन को नई धार दी। छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा खड़ा किया।

सीएमएसएस, सितंबर, 1977 में उस समय देशभर में चर्चा में आया जब दल्ली-राजहरा की खदानों में काम करने वाले हजारों मजदूरों ने नियोगी के नेतृत्व में अनिश्चितकालीन हड़ताल कर दी। यह ठेके पर काम करने वाले मजदूरों की देश में सबसे बड़ी हड़ताल थी। इसका असर इतना व्यापक था कि संयंत्र प्रबंधन को मजदूरों की तमाम मांगें माननी पड़ीं।

इस एक हड़ताल ने छत्तीसगढ़ में नियोगी को सबसे प्रभावशाली मजदूर नेता बना दिया। उनकी यूनियन का साल दर साल विस्तार होने लगा। भिलाई की कई निजी कंपनियों के मजदूर भी उसके सदस्य बनने लगे। इसी के साथ मज़दूरों के दम पर ही उन्होंने मज़दूर अस्पताल खोलने से लेकर तमाम कल्याणकारी योजनाएं शुरू कीं।

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मज़दूर बस्ती में ही रहने वाले एक मज़दूर नेता थे नियोगी

नियोगी का घर मज़दूर बस्ती में रहने वाले किसी और गरीब की मानिंद ही था। एक कमरा जिसके दोनों ओर वरांडाह था। मिट्टी की दीवारें जिनके ऊपर खपरे की छत थी। जहाँ सात सौ पच्चास रुपये के अपने मासिक भत्ते के बल-बूते पर, अपनी पत्नी, दो बेटियों और एक बेटे के छोटे से परिवार के साथ खुश थे।

कई अभिनव प्रयोगों के प्रतीक

उनका नारा था- ‘निर्माण के लिए ध्वंस करो , और ध्वंस करके निर्माण करो’। इसको ध्यान में रखते हुए ही अपने संगठन के माध्यम से उन्होंने नए समाज की परिकल्पना के साथ प्रयास किया- अस्पताल, छोटे-छोटे स्कूल, वर्कशॉप, सहकारी और सांस्कृतिक समितियों का निर्माण किया। साथ ही रचनात्मक प्रयोग के साथ आन्दोलनों को नयी धार देते हुए जो भी मौके मिले उनका अधिकतम लाभ उठाया। उन्होंने मज़दूर यूनियनों के संकीर्ण, अर्थवादी दृष्टिकोण के ख़िलाफ़ संघर्ष किया।

छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा उनके प्रयोग का दर्पण था फैक्ट्रियो-खदानों में काम करने वाले मज़दूरों से लेकर जंगलों में पिस रहे आदिवासिओं तक, सभी मेहनतकशों को वे एक झंडे के नीचे संगठित करने में वे सफल रहे

वे पूँजीपातियो की आंख की किरकिरी तो बने ही रहे, साथ ही राज्य दमन का भी लगातार शिकार बने आपातकाल के दौरान उन्होंने एक साल जेल में काटे, सरकार द्वारा उनपर हमेशा झूठे और बेबुनियाद मुक़दमे ठोंके गए ।

और पूँजीपतियों ने कर दी नियोगी की हत्या

यह 1990 दशक का शुरुआती दौर था। जब देश मे मज़दूर विरोधी नई आर्थिक नीतियाँ लागू हो रही थी। उधर उद्योगपतियों की ताकतवर लॉबी नियोगी के संगठन और शानदार प्रयोगों से आशंकित थी। नियोगी को जान से मारने की धमकियां मिलने लगीं। इस बीच मालिकों के इशारे पर प्रशासन ने उन्हें जिलाबदर भी कर दिया।

अंततः 28 सितंबर, 1991 को शंकर गुहा नियोगी महज 48 साल की उम्र में पूँजीपतियों की साजिश के शिकार बने। दुर्ग स्थित एक निवास पर, जहाँ वे सोए हुए थे, हत्या हो गई।

असल क़ातिल हो गए बरी!

नियोगी हत्याकांड में पल्टन मल्लाह के साथ ही हत्या रचने वाले उद्योगपतियों को आरोपी बनाया गया था। निचली अदालत में सुनवाई के दौरान मज़दूरों का भारी हुजूम जुटाता था, इसलिए मुख्य हत्यारे को फाँसी के साथ उद्योगपतियों को भी आजीवन कारावास हुआ। लेकिन बाद में ऊपरी अदालत में मज़दूरों का दबाव कम हो गया। फैसला पलट गया। मुख्य हत्यारे की फाँसी आजीवन कारावास में बदल गई और क़ातिल पूँजीपति बरी हो गए।

शहीद शंकर गुहा नियोगी का प्रयोग मज़दूर आंदोलन के लिए एक सबक और मील का पत्थर है।

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