मोदी के खास मित्र ट्रंप ने किया शरणार्थियों के अधिकारों पर नया हमला

विदेशी पूंजी को देश में आमंत्रित करने वाले मज़दूरों को देश बाहर करने को क्यों हैं आमादा?
बढ़ते आर्थिक संकट, बेरोज़गारी, पर्यावरण में बदलाव व गृह युद्ध के साथ साथ पिछले एक दशक में दुनिया भर में शरणार्थियों की संख्या में विस्फोटक बढ़ोतरी हुई है। हालांकि शरणार्थियों का संकट हमेशा से पूंजीवादी विकास के साए में पनपा है, आज ऐसे नागरिकता-विहीन लोगों की संख्या बढ़ कर 7 करोड़ तक पहुंच गई है।
ऐसे में जहां एक तरफ़ ट्रंप मोदी के साथ मिल कर अमरीका में रहने वाले लाखों भारतीय मूल के नागरिकों का दिल (और वोट) जीतने की होड़ में है, वहीं कल, 26 सितंबर को उन्होंने घोषणा की है कि सन 2020 में मात्र 18,000 शरणार्थियों के पुनर्वास किया जाएगा। यह संख्या अमरीका के इतिहास में सबसे कम बताई जा रही है। अन्य दक्षिणपंथी नेताओं की तरह ट्रंप के लिए भी शरणार्थियों की और कड़ी कार्रवाई एक महत्वपूर्ण नीतिगत विषय रहा है। ट्रंप सरकार के पहले साल में ही उन्होंने शरणार्थियों के पुनर्वास के दायरे को 50% सीमित कर दिया था, और तब से हर साल इस संख्या में कटौती जारी रही है। हमारे देश में भी एनआरसी और अब ‘नेशनल पॉपुलेशन रजिस्टर’ के जरिए शरणार्थियों को बाहर निकालने की योजना चल रही है, जिसके तहत असम में अब तक 19 लाख लोग के लिए नागरिकता नकारी जा चुकी है।

वैश्विक अर्थव्यवस्था में आज जहां पूँजी के लिए एक देश से दूसरे देश पलायन करना नित दिन और आसान बनता जा रहा है वहीं मेहनतकश जनता के लिए विभिन्न कारणों से अपने, देश, ज़मीन और संसाधनों से विस्थापित होने के बाद किसी और देश में शरण पाना और भी मुश्किल। वहीं यह जनता नागरिकता के मूलभूत अधिकार को खो कर, अपने हर मानव अधिकार से वंचित है, और इनके पास अक्सर किसी प्रकार की सुनवाई का भी साधन नहीं होता है। अमरीका की पूरी सफ़ेद आबादी दरअसल 17 वीं से किंतु 19 वीं शताब्दी के मध्य से अमरीका ने अपनी आर्थिक ज़रूरतों के आधार पर कभी आप्रवासियों के प्रवेश को प्रोत्साहन दिया है और कभी उसपर रोक लगाई है।