मज़दूरी का पैमाना क्या हो?

न्यूनतम मज़दूरी 25000 रुपए क्यों?

कई मज़दूरों के सवाल आते हैं कि वेतन बढ़ाने की माँग भर करने से नौकरी खतरे में पड़ जाती है, 8-10 हजार रुपये मासिक वेतन भी मुश्किल से मिलता है। तो फिर 25000 रुपये की पगार की बात कैसे होगी?

यह देखने में आता है कि जब कोई मजदूर अपने वेतन वृद्धि की बात उठाता है, तो अक्सर दो बातें होती हैं – कंपनी दमन-उत्पीड़न शुरू कर देती है और श्रम विभाग यह पूछ कर पल्ला झाड़ लेता है कि न्यूनतम मजदूरी मिल रही है या नहीं?

यह सच है कि जो न्यूनतम मजदूरी समुचित सरकार द्वारा तय होती है, जो मालिकों के हित में होने से काफी कम होती है और कई बार वह भी नहीं मिलती। ऐसे में सबसे पहले मज़दूरी के सवाल पर स्पष्ट होना जरूरी है।

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देश के सर्वोच्च न्यायालय ने 1992 में यह स्पष्ट किया था कि मज़दूरी का प्रश्न अब नियोजक और कर्मकार के बीच संविदा का प्रश्न नहीं है, बल्कि यह दोनों के मध्य सामूहिक सौदेबाजी से उत्पन्न एक समझौता है। मजदूरी का निर्धरण आज सामाजिक न्याय से जुड़ा हुआ प्रश्न है। अतः मजदूरी निर्धारण के समय कर्मकार के बच्चों की शिक्षा, चिकित्सकीय सहायता, न्यूनतम मनोरंजन एवं वृद्धावस्था तथा शादी इत्यादि के लिए न्यूनतम मजदूरी की कुल राशि का 25 फीसदी और जोड़ा जाना चाहिए। उच्चतम न्यायालय ने यह भी कहा था कि जो नियोजक न्यूनतम मजदूरी भी अदा नहीं कर सकता, उसे उद्योग को चलाने व मजदूरों को नियोजित करने का अधिकार नहीं है।

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वास्तविक मजदूरी की पूर्व निर्धारित श्रेणियाँ

आजादी के बाद भारत में केंद्रीय परामर्श मंडल ने अपने पहले सत्र (नवंबर 1948) में न्यायपूर्ण वेतन पर एक त्रिपक्षीय समिति का गठन किया था, इसमें कंपनियों के प्रतिनिधि, मजदूर प्रतिनिधि और सरकार के प्रतिनिधि थे, ने मिलकर मजदूरी की श्रेणियां निर्धरित की।

न्यूनतम मज़दूरी :

यह मज़दूरी का वह स्तर है जिसके नीचे की मज़दूरी किसी श्रमिक को नहीं दी जा सकती। यह काम के लिए श्रमिक की कुशलता को बनाए रखने के लिए है। इसमें जीवन की मूल आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ शिक्षा, चिकित्सा आदि जरूरतों एवं सुविधाओं की पूर्ति निर्धरित हुआ।

न्यायपूर्ण मज़दूरी :

उक्त वेतन समिति (1949) के मतानुसार यह मजदूरी वास्तविक मजदूरी से पहले की स्थिति है। यह श्रम की उत्पादकता, प्रचलित मजदूरी दरें एवं उद्योग की वर्तमान आर्थिक स्थिति पर निर्भर हो।

जीवन निर्वाह मज़दूरी :

वास्तव में यही मजदूरी का वास्तविक पैमाना होना चाहिए, ताकि मजदूर एक सभ्य नागरिक की भांति अपना जीवन यापन कर सके। वस्तुतः यही एक श्रमिक के लिए उचित मजदूरी है। किसी श्रमिक को अपने परिवार को न केवल भोजन, वस्त्र और आवास की मात्र आवश्यकताओं वरन जरूरी सुविधाओं – जैसे बच्चों की शिक्षा, बीमारी से सुरक्षा, मौलिक सामाजिक आवश्यकताएं और वृद्धावस्था एवं अन्य विपदाओं से सुरक्षा योग्य बनाने वाली होनी चाहिए।

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आवश्यकता आधारित मज़दूरी :

15वें भारतीय श्रम सम्मेलन (1957) में तथा अन्य विभिन्न समितियों ने यह स्पष्ट किया कि आवश्यकता आधरित मजदूरी का देना अत्यंत आवश्यक हो गया है। यदि कोई उद्योग इतनी मजदूरी नहीं देता, तो उसके लिए नियोजक अपनी देय क्षमता सिद्ध करें। यदि किसी जगह श्रमिक को उचित मजदूरी नहीं मिल पा रही है, तो उस स्थिति में न्यूनतम से ऊपर आवश्यकता आधारित मजदूरी दिया जाना चाहिए।

महत्वपूर्ण बात यह है कि आज़ादी के सात दशक बाद भी देश मे न्यूनतम मजदूरी भी ठीक से लागू नहीं हो सकी। स्थापित नेतृत्व की सुविधापरस्ती व पतनशीलता तथा देश के मज़दूर आंदोलन के नीचे जाने से न्यायपूर्ण मज़दूरी की बात ही दब गई। 1991 के बाद पूँजीपतियों और उनकी हितसेवक सरकारों की मज़दूर विरोधी आक्रामक नीतियों ने वास्तविक मज़दूरी का सवाल पीछे धकेल दिया।

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मोदी सरकार ने इस गति को और तेज कर दिया। लम्बे संघर्षों के दौरान हासिल श्रम क़ानूनी अधिकारों को छीन कर बन रहे चार संहिताओं में से वेतन संहिता पारित भी कर दिया, जो कि मज़दूरों के साथ एक बड़ा धोखा है।

वास्तव में 15वें भारतीय श्रम सम्मेलन में निर्धरित मानकों व सर्वोच्च न्यायालय ने 1992 के दिशा निर्देशों के अनुसार सबसे पहले न्यूनतम मज़दूरी तय होनी चाहिए। अभी सातवें वेतन आयोग ने भी जो मानक बनाया है, उसके तहत न्यूनतम मज़दूरी कम से कम 25000 रुपये मासिक होना ज़रूरी है।

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