गुजरात मॉडल और गुजरात मज़दूर आंदोलन

एक डायरेक्टर द्वारा एक चतुर्थ श्रेणी श्रमिक को लात मारने से शुरू आंदोलन कैसे एक नई धारा बनी…
गुजरात मॉडल इस रूप में प्रस्तुत हुआ कि यह मजदूरों के लिए स्वर्ग है। पूरे देश में एक लहर पैदा की गई और 2014 में केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार सत्तासीन हुई।
वरिष्ठ अधिवक्ता व जीएफटीयू नेता कॉ. अमरीश पटेल का
(बातचीत पर आधारित) लेख उस मिथकीय सच को उजागर करता है…
क्या है गुजरात मॉडल?
देश में 1990 के दशक में जो नई आर्थिक नीति लागू हुई, उसको गुजरात में पहले कांग्रेस की सरकार ने बाद में भाजपा की सरकार ने आगे बढ़ाया। 1995 में भाजपा सरकार ने टेक्सटाइल क्षेत्र में वीआरएस स्कीम लेकर टेक्सटाइल मिलों को बन्द करने की शुरुआत की। विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) कानून को पूरे जोर के साथ गुजरात में लागू किया गया। इससे श्रम कानूनों को लागू करने की बाध्यता खत्म कर दी गई। सेज कमिश्नर नियुक्त किया गया। आज लेबर कमिश्नर की जगह फैसीलेटर बनाने का जो प्रावधान आया है, दरअसल अधिकार विहीन सेज के कमिश्नर जैसा ही है।
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गुजरात दंगा और श्रम कानूनी अधिकारों पर हमले एक साथ
गुजरात में सेज के खिलाफ, विभिन्न क्षेत्रों में यूनियनों की मान्यता, बंद हो रही मिलों को चलाने और छँटनी के खिलाफ संघर्ष एक मुकाम पर था। वर्ष 2002 में गुजरात को सबसे बड़े दंगे की आग में झोंककर हिंदू मुस्लिम वैमनस्य का सबसे बड़ा खेल हुआ। यह मज़दूर आंदोलन को भी कुचलने का हथियार बना। 2002 की घटना और श्रम कानूनों में बदलाव की प्रक्रिया दोनों ही एक साथ आगे बढ़ी। फिक्स्ड टर्म और ठेका प्रथा को बढ़ावा मिला।
गुजरात में न्यूनतम वेतन काफी कम (केन्द्र द्वारा निर्धारित वेतन का आधा) है। यहाँ 95 फीसदी मज़दूर 10 हजार रुपये से कम वेतन पाते हैं। मज़दूर कानूनों में जो बदलाव हुआ उसके तहत मालिकों को महज 5 से 21 हजार रुपये का दंड देकर जेल जाने से राहत मिली। यहाँ यूनियन बनाने पर तरह-तरह से बाधाएं खड़ी की गईं। गुजरात-महाराष्ट्र में पहले से ही मौजूद कानून, जिसकी प्रक्रिया बेहद जटिल है, का लाभ उठाकर मान्यता को बाध्यकारी बनाया। तमाम संघर्षों के बावजूद संघर्षरत यूनियनें सारी औपचारिकताएं पूरी करने के बावजूद मान्यता नहीं पाती है। आज पूरे देश में श्रम कानूनों में बड़े बदलाव के साथ जो चार श्रम संहिताएं बन रही हैं, उसमें इसी मॉडल को लागू करने की कोशिशें में चल रही हैं।

ऐसे पैदा हुआ गुजरात में जुझारू आंदोलन
गुजरात में महत्वपूर्ण संघर्ष की शुरुआत 70 के दशक के अंत में कुछ घटनाओं के साथ हुई। एक तरफ फिजिकल रिसर्च लैबोरेट्री (पीआरएल) में एक डायरेक्टर द्वारा एक चतुर्थ श्रेणी श्रमिक को लात मारने से आंदोलन भड़क उठा। 1979-80 में वहाँ लॉकआउट घोषित हो गया। दूसरी तरफ नेशनल डेयरी डेवलपमेंट बोर्ड (एनडीडीबी) में महज 5 रुपये मज़दूरी के खिलाफ एक संघर्ष की शुरुआत हुई। जहाँ पीआरएल में संघर्षों की शुरुआत मुकुल सिन्हा ने की थी, वहीं एनडीडीबी में नरेंद्र एन पटेल ने नेतृत्व दिया था। 1981 में मुकुल सिन्हा बर्खास्त हुए और दूसरी तरफ नरेंद्र पटेल निलंबित हुए। दोनो धाराएं एक साथ हुईं और उसने संयुक्त संघर्ष को आगे बढ़ाया।
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1983 में हॉस्पिटल बिल आया, जिसके खिलाफ ज्वाइंट एक्शन काउंसिल बनी। 1984 में फेडरेशन आफ एम्पलाइज ऑफ रिसर्च, ट्रेनी, एजुकेशन एण्ड एलॉएड इंस्टीट्यूशन बना। 1980 में गुजरात महासभा और 1990 में गुजरात फेडरेशन ऑफ ट्रेड यूनियंस अस्तित्व में आया।
1995 में टैक्सटाइल्स मिलों की बंदी और वीआरएस के खिलाफ जेसीसी के नेतृत्व में संघर्ष आगे बढ़ा। जन संघर्ष मंच, गुजरात मजदूर सभा, गुजरात फेडरेशन ऑफ ट्रेड यूनियंस (जीएफटीयू) गुजरात दंगों के खिलाफ सक्रिय रहा, तो मज़दूर आंदोलनों को भी गति दी।
गुजरात मॉडल के खून से सना इतिहास
1998 में लूबी इलेक्ट्रिकल्स आंदोलन आगे बढ़ा। न्यूनतम वेतन के इस संघर्ष में राज्य की भाजपा सरकार की पुलिसिया दमन में एक राहगीर की मौत हुई और 20 मज़दूर घायल हुए। यह गुजरात मॉडल के खून से सने इतिहास का गवाह बना। खतरनाक पोटो कानून के खिलाफ संघर्ष चला। गुजरात दंगे की भयावह स्थिति में 1 मई 2002 को मई दिवस को पूरे हौसले के साथ मजदूरों ने मनाया और पूरे गुजरात में उस दिन रैली निकली। गुजरात में मजदूर अधिकारों पर हमलों और दमन के बीच संघर्ष लगातार आगे बढ़ता रहा है।
गुजरात मॉडल का कुल हस्र यह है कि मज़दूरों के अधिकार छिने हैं। तो दूसरी तरफ मज़दूरों का संघर्ष भी लगातार चलता रहा है। स्पष्ट है कि सन 2014 में केंद्र में मोदी के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बनने के बाद श्रम कानूनों में बड़े बदलाव की जो प्रक्रिया तेजी से आगे बढ़ी है, उस बदलाव की शुरुआत गुजरात से ही हुई थी। आज पूरे देश का मज़दूर जिस खतरे की ओर बढ़ रहा है, उसकी शुरुआती गुजरात में भाजपा की सरकारों ने की थी।
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गुजरात मॉडल की सच्चाई
गुजरात मॉडल रोजगारहीन विकास का एक दिलचस्प उदाहरण है। इससे बहुराष्ट्रीय कंपनियों को सस्ती जमीनें, सस्ता श्रमिक और तमाम करों से छूटें उपलब्ध हैं।
श्रमिकों के अधिकार प्रतिबंधित हुए, नौकरियां ज्यादा असुरक्षित हुईं, मजदूरी बढ़ाने के रास्ते मुश्किल हुए, आउटसोर्सिंग आसान बना, श्रम कानूनों को लागू करने के लिए उद्योगपतियों पर दबाव कम हुआ और विशेष आर्थिक क्षेत्रों (सेज) में काम कर रहे श्रमकों के सभी अधिकार ख़त्म हुए। श्रम कानूनों में परिवर्तन से मजदूरों का शोषण तेज़ करने का मार्ग प्रशस्त हुआ और उद्योगपतियों के लिए बिना किसी भय के अपने मुनाफे को अधिकतम करने का मौका मिला।
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गुजरात मॉडल का कुल निचोड़ यही है कि पूँजीपतियों के लिए अंधा मुनाफा और मजदूरों का शोषण। कॉर्पोरेट के मुनाफे में बढ़ोत्तरी और मजदूरों की मजदूरी में घटोत्तरी। असमानता बड़े पैमाने पर बढ़ी है और स्वास्थ्य और शिक्षा के मानकों में भी भारी गिरावट दर्ज हो रही है।
(‘संघर्षरत मेहनतकश’ पत्रिका, मार्च-अप्रैल, 2019 में प्रकाशित)