मजदूरों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने की योजना से पीछे हटी मोदी सरकार

बीजेपी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) सरकार ने धीमी आर्थिक विकास दर को ध्यान में रखते हुए देश के सभी श्रमिकों को सार्वभौमिक सामाजिक सुरक्षा कवरेज प्रदान करने के अपने प्रस्ताव को वापस लेने का निर्णय किया है।
सामाजिक सुरक्षा विधेयक, 2019 पर संहिता के नवीनतम मसौदे में, सरकार ने उद्योग द्वारा श्रमिकों को सामाजिक सुरक्षा लाभ प्रदान करने के लिए वर्तमान सीमा को जारी रखने का निर्णय लिया है।
सामाजिक सुरक्षा विधेयक पर संहिता का तीसरा मसौदे पर ट्रेड यूनियनों और उद्योगों की राय मांगी गई है।

प्रस्तावित विधेयक के अनुसार, कम से कम 20 श्रमिकों वाली कंपनियों को कर्मचारी भविष्य निधि योजनाओं के तहत लाभ के लिए श्रमिकों के वेतन से योगदान की कटौती करनी होगी और कम से कम 10 श्रमिकों वाली कंपनियों को कर्मचारी राज्य बीमा योजना के तहत योगदान की कटौती करना ज़रूरी है। वर्तमान में देश में यही व्यवस्था लागू है। एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी ने पहचान छुपाने का अनुरोध करते हुए कहा कि आर्थिक मंदी के इस दौर में सरकार के लिए सभी श्रमिकों को सामाजिक सुरक्षा कवरेज प्रदान करना संभव नहीं है। इससे छोटे उद्योगों के लिए परेशानी खड़ी होगी।

2019-20 की पहली तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि छह साल के निचले स्तर 5 प्रतिशत पर आ गई। एक सार्वभौमिक सामाजिक सुरक्षा योजना ने उन छोटी कंपनियों के वित्तीय बोझ को बढ़ा दिया होता जो किसी भी सामाजिक सुरक्षा कानून के दायरे में नहीं आती हैं।

पहला ड्राफ्ट, जिसे अप्रैल 2017 में जारी किया गया था, में सभी श्रमिकों – संगठित या असंगठित, औपचारिक या अनौपचारिक, दिहाड़ी मजदूर या स्वरोजगार करने वाले के लिए -स्व-योगदान या नियोक्ताओं या सरकार द्वारा आंशिक योगदान के ज़रिए- एक सार्वभौमिक सामाजिक सुरक्षा कवर प्रदान करने का प्रस्ताव था ।
यूनियनों ने इस पहले मसौदे का विरोध किया क्योंकि यह एक विकेन्द्रीकृत सामाजिक सुरक्षा प्रणाली लागू करने की योजना थी, जिसमें वर्तमान कर्मचारी भविष्य निधि संगठन (EPFO) और कर्मचारी राज्य बीमा निगम (ESIC) को एकीकृत करना भी शामिल था।

हालाँकि, कई दौरों के परामर्श के बाद, मार्च 2018 में सार्वभौमिक सुरक्षा कवर के दूसरे मसौदे को सार्वजनिक किया गया, जिसने ग्राहकों के बीमा खाते और भविष्य निधि (पीएफ) के प्रबंधन के लिए सार्वजनिक-निजी भागीदारी (पीपीपी) मॉडल के साथ चरणबद्ध तरीके से प्रस्तावित कानून के कार्यान्वयन का प्रस्ताव दिया था। दूसरे मसौदे में प्रस्तावित सामाजिक सुरक्षा कानून के दायरे में स्व-रोजगार में लगे श्रमिकों को शामिल नहीं किया गया था और ईपीएफओ और ईएसआईसी को अलग-अलग संस्था बनाए रखने का निर्णय था। यूनियनों ने श्रमिकों के पीएफ और बीमा खातों के प्रबंधन के लिए पीपीपी मॉडल का भी विरोध किया था और इसलिए, इस प्रस्ताव को भी वापस ले लिया गया था।

वर्तमान सामाजिक सुरक्षा कानूनों के दायरे में मुख्य रूप से असंगठित क्षेत्र में कार्यरत लगभग 90 प्रतिशत कार्यबल शामिल नहीं हैं। प्रस्तावित कानून के पहले मसौदे के जरिए देश में 450 मिलियन से अधिक ( मौजूदा 45 मिलियन के मुक़ाबले) कार्यबल को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने का प्रस्ताव था।
आर्थिक मंदी के नाम पर एक तरफ जहां कॉरपोरेट और पूंजीपतियों के लिए विभिन्न प्रकार की आर्थिक राहतें, टैक्स में कटौती की घोषणा, व्यापार की सुगमता के नाम पर श्रम कानूनों से छूट प्रदान की जा रही है समुख सामाजिक दायित्व दायित्व से छूट प्रदान की जा रही है वहीं दूसरी तरफ रोज कमाने खाने वाली मेहनतकश आबादी के न्यूनतम अधिकारों को भी छीन कर उसे हाशिए पर ढकेलने का सरकारी प्रयास जारी है। कश्मीर, भारत पाकिस्तान, भीड़ तंत्र द्वारा हत्या, धार्मिक उन्माद जैसे मुद्दों में उलझ कर जनता अपनी मूलभूत अधिकारों एवं अपने रोजमर्रा की जरूरतों के बारे में भी सोचना भूल चुकी है जबकि आर्थिक मंदी और सामाजिक समरसता बिगड़ने का दंश उसे ही झेलना है। राष्ट्र की प्रगति और राष्ट्र निर्माण के नाम पर पूंजीपतियों के मुनाफे का बोझ मजदूर वर्ग को ही तो उठाना है।

बिजनेस स्टैंडर्ड से सोमेश झा के लेख से इनपुट के साथ

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