#MeToo आंदोलन ने दिखाया समाज में यौन हिंसा को आइना

…पर कैसे बदलेगी यह तस्वीर?

हमारे समाज में यौन हिंसा की घटनाएँ मुख्यतः या तो ख़ामोश गुमनामी में जीतीं हैं, या कानों में खुसपुसाई जाती अफ़वाहों में उड़ती मिलती हैं। इन दोनों ही सूरतों में यौन उत्पीड़न की भुक्तभोगी महिलाओं की आवाज़ समाज की मुख्यधारा तक नहीं पहुँच पाती है। औरतों की लैंगिकता पर नियंत्रण हमारी सामाजिक संरचना के केंद्रीय आधारों में से एक है। एक ओर कहने को महिलाओं पर निरंतर यौन हिंसा का ख़तरा मंडराता रहता है — बाल विवाह से शुरू होकर, महिलाओं की शिक्षा और काम करने पर पाबंदी व उनके सार्वजनिक जीवन पर परिवारों द्वारा लगायी गयी सीमाएं इत्यादि महिलाओं को इस हिंसा से बचाने के हवाले  से मान्यता प्राप्त करती हैं। वहीँ दूसरी ओर इस प्रकार की हिंसा को सीधे तौर से संबोधित करना भी असंगत माना जाता है। पाबंदियों का यह ताना बाना ना केवल जाने पहचाने जगहों पर होने वाली यौन हिंसा पर चादर डालने का काम करता है बल्कि सार्वजनिक क्षेत्र में कामकाजी औरत के साथ बतौर श्रमिक होने वाली यौन हिंसा पर खुल के बात करने को और कठिन बनाता है। ऐसे में रोज़मर्रा के जीवन की सतह के नीचे यह उबलता सैलाब एक दरार पा कर #metoo अभियान के माध्यम से पूंजीवादी व्यवस्था के उन्नत क्षेत्रों में महिलाओं को मिलने वाली कथित ‘बराबरी और उन्निती’ का पर्दाफाश करता उमड़ उठा है।

#MeToo की उत्पत्ति और विस्तार

दुनिया के बड़े बड़े पूंजीवादी देशों में सुर्खियाँ बनाता #metoo अभियान अपने मौजूदा रूप में एक साल पहले शुरू हुआ था जब अभिनेत्री अलिस्सा मिलानो ने हार्वी वाइनस्टीन नामक बेहद प्रभावशाली हॉलीवुड निर्माता द्वारा उनके साथ हुए उत्पीड़न की घटना की ‘ट्विटर’ के माध्यम से घोषणा की। उनहोंने औरों से भी #metoo का इस्तेमाल करते हुए अपने साथ हुए उत्पीड़न की घटनाओं को साझा करने का आहवान किया। एक ही दिन में ट्विटर पर 4.7 करोड़ लोगों ने अपने साथ हुई हिंसा की व्याख्या करने के लिए #metoo का इस्तेमाल किया। सोशल मीडिया और सामान्य मीडिया द्वारा यह चलन अलग अलग देशों में फैलता गया। मुख्यतः फिल्म जगत के खुलासों पर केन्द्रित होने के बावजूद अन्य कार्यक्षेत्रों में भी इसका विस्तार हुआ है, जिसमें वित्तीय संसथान, मीडिया, शिक्षा संसथान व राजनीति सबसे ज्यादा ख़बरों में आयीं हैं। विकसित देशों की राजसत्ता द्वारा मिली प्रतिक्रिया भी इस मुहीम को मात्र ‘सोशल मीडिया’ में उठते कोलाहल से आगे ले जाती नज़र आ रही है। अमरीकी कांग्रेस में METOO कांग्रेस अधिनियम प्रस्तावित किया गया है जो सरकारी कर्मचारियों के लिए सांसदों के सम्बन्ध में शिकायतों को दर्ज कराना सहज करेगा। वहीँ फ़्रांस में 3 दिनों में 1 लाख महिलाओं ने राष्ट्रपति को यौन उत्पीड़न के निपटारे के लिए कानून बनाने की याचिका जमा की जिसके सन्दर्भ में वहां की संसद भी ऐसे बर्ताव के रोकथाम के लिए कानूनी कदम निरधारित करने की कोशिश कर रही है। भारत में भी अभियान के प्रभाव में कुछ बड़े मंत्री, अभिनेता और पत्रकारों के खिलाफ शिकायतें उठी हैं जिसकी प्रतिक्रिया में इन क्षेत्रों और राजनीतिक दुनिया में यह विवाद और तीखा हुआ है।

कार्यस्थल में यौन उत्पीड़न

कार्यस्थल में यौन उत्पीड़न के मुद्दे पर महिलाओं की मुहीम का हमारे देश और दुनिया में एक महत्वपूर्ण इतिहास रहा है। भंवरी देवी नामक दलित सरकारी कर्मचारी के साथ उच्च जाति के दबंगों द्वारा किये गए बलात्कार की घटना के बाद यह समस्या भारत में कानूनी और सामाजिक चर्चा में शामिल हुई। इस विषय पर कई सर्वोच्च न्यायलय के फैसलों और एक केंद्रीय कानून की मौजूदगी के बावजूद, हमारे देश में कामकाजी औरतों के यौन उत्पीड़न से राहत के लिए कोई संतोषजनक संस्थागत उपाय नहीं है। भारत जैसे विकसित होते देश में महिलाओं का एक बड़ा हिस्सा कृषि और असंगठित क्षेत्रों में कार्यरत है, जो ऐसी व्यवस्थाओं की स्थापना को तुलना में कठिन बनाता है। किन्तु, #metoo से सामने आई एक गौर तलब बात यह है कि अमरीका, फ़्रांस और कनाडा जैसे विकसित पूंजीवादी देशों में भी, जहाँ विभिन्न स्तरों के कार्यों में महिलाओं की भागीदारी का अनुपात कमोबेश पुरुषों के बराबर है, वहां भी कार्यस्थल में यौन उत्पीड़न की समस्या बेहद व्यापक है और इसके रोकथाम के प्रबंध बेहद सीमित हैं। सरकारी प्रणाली में भी इनके खिलाफ कार्यवाही बेहद कमज़ोर है। तथ्य बताते हैं कि फ़्रांस में 93% यौन हिंसा के केसों की कानूनी छानबीन नहीं होती है। वहीं, चीन में 80% कामगार महिलाएं यौन उत्पीड़न का सामना कर चुकी हैं जिनमें से ज़्यादातर इसकी कोई संस्थागत निवारण की उम्मीद नहीं रखती हैं।  

ऐसे में जहाँ एक तरफ सोशल मीडिया पर #metoo जैसे आन्दोलनों की उत्पत्ति, या मीडिया द्वारा इसका प्रसार इस माध्यम से अपनी बात दुनिया तक पहुंचा पाने में समर्थ महिलाओं के एक हिस्से की अगवाई में चल रही है, वहीँ दूसरी ओर महिलाओं के कई अन्य हिस्से भी इस मौके का इस्तेमाल कर रोज़गार और सार्वजनिक जीवन में उत्पीड़न के सवालों को उठा रहे हैं। अभियान के केंद्रबिंदु अमरीका में मैकडोनल्ड व सेवा क्षेत्रों में ठेके पर काम करने वाली ‘वीमेन ऑफ़ कलर’ श्रमजीवी महिलाओं के सबसे असुरक्षित हिस्से ने देश भर में #metoo का इस्तेमाल करते हुए विरोध प्रदर्शन किए जिसमें काम के स्थायीकरण और न्यूनतम मज़दूरी में वृद्धि जैसी मांगे भी उठाई गयीं। वहीं, अमरीकी सर्वोच्च न्यायालय के जज की नियुक्ति की प्रक्रिया में उनके खिलाफ़ गंभीर यौन हिंसा के इलज़ाम के नकारे जाने पर पुरे देश में विभिन्न महिला संगठनों के साझा आह्वान पर कामकाजी महिलाओं ने अपने अपने कार्यक्षेत्र से ‘वाकआउट’ (काम से बाहर आने) के कार्यक्रम को सफल बनाया। अन्य कई देशों में भी पिछले कुछ सालों में महिलाओं की बढ़ती राजनैतिक सक्रियता और इसमें विकसित होती चेतना के सन्दर्भ में #metoo जैसे अभियान की उत्पत्ति एक दूर तक पूंजीवादी विकास में सुधार का मौका बन रही है और दूसरी ओर महिला कामगारों की ज़मीन से इस विकास की सीमाओं और इसमें निहित असमानता और शोषण का पुनः ख़ुलासा कर रही है।

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