बंगलादेश गारमेंट मज़दूर आन्दोलन

विगत दिसंबर के मध्य से बंगलादेश के गारमेंट उद्योग के मजदूरों और मालिकों के बीच का संघर्ष फिर एक बार सड़कों पर उमड़ पड़ा है। जहां इस नवंबर ही सरकार द्वारा मज़दूरी में 50% इज़ाफ़ा किया गया था, मज़दूरों ने बढ़ोतरी को अपर्याप्त कह कर मानने से इंकार किया है। लगातार चल रही हड़ताल में अब तक एक मजदूर की मौत हो चुकी है और कई अन्य पुलिस के रबर बुलेट, पानी कमान और लाठियों से घायल हो चुके हैं। किंतु, मांगों को मानने के बजाए गारमेंट मालिकों के संघ, BGMEA (बंगलादेश गारमेंट मैन्यूफैकचरर्स एंड एक्सपोर्टर्सू एसोसिएशन) ने प्रेस के माध्यम से अनिश्चित काल के लिए फैक्ट्रियों को बंद करने की धमकी दी है। किंतु मज़दूरों ने अब तक पीछे हटने का कोई संकेत नहीं दिया है।

जनता की बेबसी – गारमेंट उद्योग का प्रमुख आधार

बंगलादेश के कुल निर्यात का 82% गारमेंट उद्योग के तहत होता है। 80 के दशक में देश की अर्थव्यवस्था को विकसित करने के उद्देश्य से बंगलादेश ने विश्व में गारमेंट निर्यात में अपनी जगह बनाने के लिए केंद्रीकृत पहल ली। खास ‘एक्सपोर्ट प्रोसेसिंग जोंस’ की स्थापना की गई व गारमेंट में इस्तेमाल किए जाने वाली मशीनों और कच्चे माल को पूरी तरह कर-मुक्त कर दिया गया। किंतु उस देश की व्यापक और गरीबी से बेहाल ग्रामीण आबादी, नवउदारवादी उत्पादन व्यवस्था में जगह पाने में बंगलादेश के मालिक वर्ग और सरकार की सबसे बड़ी ताकत बनी। इनमें भी धार्मिक और सामाजिक पाबंदियों के कारण अब तक औपचारिक अर्थव्यवस्था से बाहर और घरों तक सीमित रखी गयी महिलाओं में मालिकों को बेहद कम वेतन और अधिकारों के लिए काम करने को तैयार एक बड़ा श्रम बल मिला।

एक तरफ़ मालिकों की सभी गैर कानूनी गतिविधियों से सरकार ने मूंह मोड़ लिया, दूसरी ओर मज़दूरों पर नियंत्रण की कठोर व्यवस्था बनायी गयी। श्रम कानूनों को ऐसा सख़्त बनाया गया कि अवैध हड़ताल में शामिल होने पर मज़दूर को एक साल और किसी मज़दूर की एक से ज़्यादा यूनियन की सदस्यता होने पर उसे एक महीने की जेल हो सकती है। एक फैक्ट्री में हज़ारों मज़दूर होने वाले इस उद्योग में, यूनियन बनाने के लिए एक कंपनी के 30% मज़दूरों की भागीदारी का नियम यूनियन बनाने की प्रक्रिया को बेहद मुश्किल बनाता है।  दूसरी छोर पर गारमेंट उद्योग के नियंत्रण के लिए कोई सरकारी संस्थान मौजूद नहीं है, बल्कि मालिकों के संघ BGMEA को ही इस विषय में सारे नियम और निर्णय बनाने का अधिकार है। ‘औद्योगिक शांति’ के लिए बनाया गया पुलिस बल मालिकों और मज़दूरों के बीच उठे विवादों में भी राय देने की ताकत रखता है, किंतु इसके खर्च का एक हिस्सा सीधे मालिकों से मिलता है। यहां तक कि बंगलादेश की संसद के 61% सदस्य स्वयं कंपनियों के मालिक हैं। इनका एक बड़ा हिस्सा गारमेंट उद्योग में लगा हुआ है।

दुनिया के सबसे सस्ते मज़दूर या मेहनत की सबसे भयंकर लूट?

सरकार और मालिक वर्ग के बयानों को मानें तो लगेगा जैसे कि कृषि से गुज़ारा चलाने में नाकाम गरीब जनता को नए रोज़गार दे कर गारमेंट उद्योग की स्थापना से उन पर कोई परोपकार किया गया हो। किंतु और क़रीब से देखें तो इसमें बंगलादेश के पूंजीपति वर्ग और अमरीका-यूरोप स्थित अंतरराष्ट्रीय बड़ी पूंजी की साठ-गांठ ही एक मात्र लाभार्थी है। श्रम प्रधान उद्योग होने के नाते अंतरराषट्रीय गारमेंट उत्पादन सदा और भी सस्ते मज़दूरों की तलाश में रहता है। बंगलादेश, हिन्दुस्तान, थाईलैंड व चीन जैसे बड़ी आबादी वाले विकसित होते देश ऐसे सस्ते मज़दूरों के बल पर ही गारमेंट उद्योग के सहभागी बने हैं। यही कारण है कि अपर्याप्त वेतन, मज़दूर अधिकार और सुरक्षा प्रावधानों की निन्दा करते हुए भी अमरीका, यूरोप व विभिन्न देश इन विभिन्न देशों, और ख़ास कर बंगलादेश को गारमेंट निर्यात में प्राथमिकता देते हैं।

2013 में ढाका के पास स्थित औद्योगिक क्षेत्र में राणा प्लाज़ा नामक फैक्ट्री कंपाउंड के गिर जाने से 1130 से अधिक मज़दूरों की मौत होने के बाद अंतरराषट्रीय स्तर पर बंगलादेश के गारमेंट मज़दूरों के शोषण का सवाल सुर्खियों में आया। अपने मार्केट इमेज को बनाए रखने के दबाव में आकर विभिन्न अमरीकी और यूरोपी ब्रांडों ने बंगलादेश सरकार पर काम करने के माहौल और मज़दूरी को सुधारने के लिए दबाव बनाया। उस दौरान मज़दूरी में हुई बढ़ोतरी के बाद मज़दूरी में यह पहला इजाफ़ा किया गया था। किन्तु इस अंतराल में मात्र किराया ही 50% से बढ़ चूका है और कुल महंगाई भी तेज़ी से बढ़ी है।

राणा प्लाज़ा की घटना के बाद सुरक्षा के लिए स्थापित अंतरराष्ट्रीय समझौतों से भी बंगलादेश की सरकार पीछे हट रही हैं। आज बंगलादेश में चल रही हड़ताल की प्रतिक्रिया में फिर एक बार अंतरराष्ट्रीय मीडिया में हलचल मच रही है। उपभोगता से ले कर बड़े ब्रांड तक फिर से बंगलादेश सरकार के मज़दूर विरोधी नीतियों पर सवाल उठा रहे हैं। किन्तु बंगलादेश गारमेंट उद्योगपतियों का कहना है कि विश्व मंडी में बने बनाए गारमेंट के दाम गिरे हैं और मंदी आई है। ऐसे में बेह्तर काम के माहौल और मज़दूरी में बढ़ोतरी का बोझ उनके मत्थे क्यों मढ़ा जा रहा है। उनका मानना है कि अंतरराष्ट्रीय कंपनियां कुछ भी कहें, बंगलादेश से उत्पादन हटाना उनके लिए भी घाटे का सौदा है, इसलिए मज़दूरों की परिस्थिति चाहे जो भी हो, उत्पादन तो बरकरार रहेगा। अंतरराष्ट्रीय पूँजी के इस द्वन्द में बंगलादेश के मज़दूरों का संघर्ष श्रम और पूँजी के बने वर्तमान संतुलन को बदलने की एक साहसी पहल है।  

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