महिला श्रमिक और कानून

मज़दूर के तौर पर पहचान और अधिकार के लिए महिला श्रमिक की लड़ाई
कामगार के रूप में महिलाओं की पहचान हमेशा संकट के घेरे में रही है और आज भी है। कुछ चमकदार पेशे को अलग कर दिया जाए तो दर्जनों ऐसे पेशे हैं जिनमें उनकी उपस्थिति नगण्य है। और दर्जनों ऐसे पेशे भी हैं जिसमें उन्हें महिला होने की वजह से अवसर ही नहीं दिया जाता।
भारत में श्रमजीवी महिलाओं के संघर्ष में आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं का संघर्ष सबसे महत्वपूर्ण है। 1400000 आंगनबाड़ी कार्यकर्ता जिन्हें सरकार की इंटीग्रेटेड चाइल्ड डेवलपमेंट स्कीम के तहत नियोजित किया गया है, कई सालों से मजदूर के तौर पर अपनी पहचान, न्यूनतम वेतन की मांग और अन्य सामाजिक सुरक्षा की मांग के साथ संघर्षरत है।
आधी आबादी- असंगठित क्षेत्र में महिलाएं
भारत में 35 करोड़ घरेलू महिलाओं के श्रम की कीमत 613 अरब डॉलर है लेकिन इस कीमत के बावजूद घरेलू महिलाओं के श्रम का कोई महत्त्व नहीं है। उन्हें अनुत्पादक श्रेणी में रखा गया है। आम महिला कामगार आज भी सामाजिक सुरक्षा, समान पारिश्रमिक, अवकाश, मातृत्व सुविधा लाभ, विधवा गुजारा भत्ता और कानूनी सहायता आदि से वंचित हैं। घरेलू कामगारों से सबंधित शिकायतों को संबोधित करने का कोई तंत्र नहीं है। हाल ही में दिल्ली पुलिस ने घरेलू कामगारों के लिए सत्यापन अनिवार्य कर दिया है, लेकिन इसका एक पहलू यह भी है कि जिस प्रकार सत्यापन की यह पूरी प्रक्रिया होती है, वह अपने आप में अपमानजनक है।
असंगठित श्रमिक सामाजिक सुरक्षा विधेयक 2007 में महिला श्रमिकों को श्रमिक ही नहीं माना गया है, जबकि असंगठित क्षेत्र में महिला कामगारों की संख्या पुरुषों की तुलना में ज्यादा है।
जब एक परिवार पलायन करके गांव से शहर आता है तो मात्र पुरुष की मजदूरी से घर का काम नहीं चलता है इसलिए महिलाओं को भी काम पर जाना पड़ता है, जिनका पहले से उन्हें कोई प्रशिक्षण नहीं होता है। जितने भी झुक कर करने वाले काम हैं उनमें पुरुषों की तुलना में महिलाएं ज्यादा हैं। घरेलू कामगार महिलाएं यौन उत्पीड़न का शिकार भी होती हैं। कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न से बचाव के लिए बना कानून असंगठित क्षेत्र की इन महिलाओं को किसी तरह की राहत नहीं पहुंचाता है। इस कानून में असंगठित क्षेत्र की महिला कामगारों के लिए भी कुछ व्यवस्था की गई है लेकिन सुरक्षा का तंत्र गायब है।अक्सर महिलाएं नियोक्ताओं की गलत हरकतों पर नौकरी जाने की डर से प्रतिक्रिया ही नहीं देती हैं।
ये महिलाएं ज्यादातर घरेलू हिंसा की भी शिकार होती हैं। इन महिलाओं के लिए शौचालय की कमी बहुत बड़ी समस्या है। वर्ग और जाति का मामला इस कदर समाज में गुंथा हुआ है कि जिस घर में महिलाएं सफाई करती हैं उसी घर के शौचालय का इस्तेमाल करने की इजाजत उन्हें नहीं होती। असंगठित क्षेत्र में जो महिलाएं कारखानों, निर्माण कार्य, रेहड़ी पटरी आदि क्षेत्र में हैं उन्हें भी इस समस्या का सामना करना पड़ता है। उनके लिए न तो अलग से शौचालय की व्यवस्था होती है और न ही उनके बच्चों को सुलाने या दूध पिलाने की जगह होती है।
संगठित क्षेत्र में महिला श्रमिक और उनके हालात
आज के समय में जिसे संगठित क्षेत्र कहा जाता है, वहां भी असंगठित क्षेत्र जैसी परिस्थितियां पैदा कर दी गई हैं। अस्थाई ठेका और संविदा प्रणाली ने नौकरी की सुरक्षा को एकदम खत्म कर दिया है। इन क्षेत्रों में महिला कामगारों को मजदूरी में गैरबराबरी तो झेलनी ही पड़ती है, साथ ही इनकी सुरक्षा, विशेष जरूरतें और आवश्यक सुविधाओं पर भी ध्यान नहीं दिया जाता है।वस्त्र उद्योग में महिलाओं को कंपलसरी (जबरदस्ती) ओवर टाइम करना पड़ता है और जरूरत में भी छुट्टी नहीं मिलती। पूंजी के लिए महिलाएं आसानी से उपलब्ध होने वाली एक सस्ते श्रमिक का स्त्रोत भर हैं और अवसर की बराबरी के नाम पर संगठित क्षेत्र में उत्पादन में महिलाओं का नियोजन मुनाफा आधारित उत्पादन व्यवस्था का एक षड्यंत्र है।
मातृत्व लाभ कानून की हकीक़त
नए मातृत्व लाभ कानून के तहत संगठित क्षेत्र की महिलाओं को छह महीने का मातृत्व अवकाश और पिता को सात दिन की छुट्टी की सुविधा का प्रावधान है। ये सुविधाएं असंगठित क्षेत्र की महिलाओं को नहीं हैं क्योंकि उनका कोई करार नहीं होता। खाद्य सुरक्षा कानून कहता है कि गर्भवती और स्तनपान कराने वाली महिलाओं को उचित पोषण के लिए छह हजार रुपए तक की सरकारी सहायता मिलेगी। लेकिन ये सुविधाएं कई तरह की शर्तों से बंधी हुई है।
एक तरफ हम इस बात से खुश हैं कि मातृत्व लाभ कानून महिलाओं को इतनी सुविधाएं दे रहा है वहीं दूसरी तरफ समाज के खास तबके को इस लाभ से वंचित रख रहा है। आंकड़े बताते हैं कि हर वर्ष लगभग तीन करोड़ महिलाएं गर्भवती होती हैं लेकिन इस कानून का लाभ केवल एक लाख महिलाओं को मिलता है यानी दस में से एक गर्भवती महिला को इस कानून का लाभ मिलता है। अनौपचारिक क्षेत्र में एक समय में महिलाएं अलग अलग तरह का काम करती है। एक महिला घर में मोमबत्ती बनाना, लिफाफे बनाना का काम करती है तो फसल कटाई के समय में वह गांव लौट कर अपने परिवार को खेत के काम में मदद करती है। ये दोनों ही काम औपचारिक काम के दायरे में नहीं आते हैं। यहां तक की रोजगार ब्योरों में भी यह दर्ज नहीं होते हैं।

लेकिन असंगठित क्षेत्र की ज्यादातर कामगार महिलाओं के लिए कोई सरकारी नीति नहीं है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की सुनीथा एल्यूरी के अनुसार असंगठित क्षेत्र के लिए बनाई जाने वाली नीतियों में सबसे बड़ी कमी यह रहती है कि इसमें विभिन्न क्षेत्रों में काम करने वाली महिलाओं की संख्याओं से संबधित जानकारी एकत्र नहीं की जाती है। हर एक क्षेत्र के लिए अलग अलग नीति बनाई जानी चाहि, जैसे मजदूरी दर, काम के घंटे,नियम आदि सभी को इसमें शामिल किया जाना चाहिए।
समान काम समान वेतन का सवाल
स्त्री पुरुष के बीच मजदूरी में अंतर पूरे विश्व में है लेकिन हमारे देश में यह गैरबराबरी कुछ ज्यादा ही है। एक सर्वेक्षण के अनुसार श्रम बाजार में महिलाओं को पुरुषों की अपेक्षा कम वेतन मिलता है। यह अंतर कामगारों की मजदूरी में भी है। इसी मानसिकता के चलते ही महिलाओं के पारिश्रमिक की दरें पुरुष श्रमिकों के मुकाबले तकरीबन आधी कर दी जाती है। पुरुषों के लिए रोजगार प्राप्त करना महिलाओं की अपेक्षा ज्यादा आसान होता है। श्रम क्षेत्र के लिए बनाई जाने वाली नीतियों के लिए न्यूनतम वेतन को आधार बनाया जाता है। और यह न्यूनतम वेतन पुरुष का वेतन होता है जिससे उसका और उसके घर परिवार का पेट पलता है। सामाजिक सुरक्षा, मजदूरी, वेतन, योजनाएं सभी कुछ के निर्धारण का आधार न्यूनतम वेतन ही होता है। नीति निर्धारकों के लिए महिला का वेतन अतिरिक्त आय होती है जो समाज या देश किसी के लिए महत्त्वपूर्ण नहीं है।
समझा जा सकता है कि क्यों महिलाएं इन नीतियों और योजनाओं से गायब हैं ? कानून आधारित गैरबराबरी के कारण महिलाएं काम के कई अवसर खो देती हैं मसलन, रात की शिफ्ट वाली नौकरी, भारी मशीनों वाले काम आदि। महिलाएं भी इन कामों को करने के लिए उतनी ही योग्य हैं जितने पुरुष। इन सब कामों में एक सोच बना ली गई है कि यह काम महिलाओं का है ही नहीं। सरकार का मानना है कि महिला कामगारों की संख्या में लगातार कमी आ रही है। वे क्षेत्र जहां महिला कामगारों की संख्या सबसे अधिक है वह गणना में शामिल ही नहीं किया जाता है। महिलाओं और पुरुष के कार्य विकल्पों में अंतर है। साथ ही जमीनी हकीकत और संकलित आंकड़ों में बहुत अंतर है। कानून, बजट और नीतियां असंगठित क्षेत्र में काम करने वाली इन कामगार महिलाओं को मान्यता नहीं देती हैं। लेकिन हकीकत यह है कि ये कामगार महिलाएं अर्थव्यवस्था में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से योगदान दे रही हैं।