क्यों देशव्यापी हड़ताल पर हैं सुदान के मज़दूर?

सुदान में चल रहे जन विद्रोह की एक झलक
विगत 28-29 मई को पूर्वोत्तर अफ्रीका में स्थित सुदान में देशव्यापी हड़ताल का आयोजन हुआ। हड़ताल को कमोबेश 100% सफलता प्राप्त हुई। मज़दूरों ने बयान दिए, “आज हम हड़ताल पर हैं। आज हम देश के लिए काम करेंगे!” सफल हड़ताल की कठिनाई हर मजदूर जानता है। तो ऐसा क्या हुआ की सुदान के मज़दूर यूँ संघर्ष में उतर पड़े?
सुदान की आबादी कुल 3.9 करोड़ है। भारत की तरह ही, यह भी एक समय अंग्रेजी शासन की बेड़ियों में बंधा देश था। सन 1956 में काफी संघर्षों के बाद इसे स्वंत्रता हासिल हुई। किन्तु स्वंत्रता के बाद भी यहाँ की सरकार में सेना की तानाशाही का बड़ा प्रभाव रहा, और समाज में विभिन्न समुदायों में तनाव, व कुछ ख़ास समुदायों के खिलाफ सरकारी दमन चलता रहा। इन मुतभेड़ो के कारण सुदान के कई लोग अपने घर छोड़ कर रिफ्यूजी बनने को मजबूर हुए। 80 के दशक से पश्चिम सुदान के दरफुर में चल रहे सरकारी दमन और बगावत में 3 लाख से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है। 2011 में देश का दक्षिणी हिस्सा जनमत-संग्रह से अलग हो गया। सुदान की अर्थव्यवस्था का मुख्य स्तम्भ – वहां के तेल के संसाधन दक्षिण सुदान के हिस्से पड़ने के बाद से देश की अर्थव्यवस्था गहरे संकट में पड़ गयी। ऐसे में बढ़ती महँगाई, बेरोज़गारी, मज़दूरों के गिरते वेतन, सरकारी दमन और भ्रष्टाचार ने सुदान के तानाशाह अल बशीर के 30 साल के शासन को जनता में बेहद अलोकप्रिय बना दिया था। इसके ऊपर, जब सरकार ने गेहूं और बिजली की सब्सिडी हटा दी और लोगों को रोटी के लाले पड़ गए तो जनता के धैर्य का बाँध टूट गया।
30 साल की तानाशाही का अंत…पर जनवाद अभी भी दूर है!
दिसंबर 2018 से शुरू हो कर सुदान पिछले 6 महीनों से निरंतर जनविद्रोह की शिकस्त में है। महँगाई के ख़िलाफ़ उठा प्रतिरोध जल्द ही शासन के तख्तापलट की भावना में बदल गया। देश के अलग अलग शहरों में विरोध प्रदर्शन शुरू हुए और कुछ दिन बाद राजधानी खारर्तूम में भी प्रदर्शनकारियों की बड़ी भीड़ इकठ्ठा होने लगी। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक़ 40 से अधिक प्रदर्शनकारी शहीद हुए। लगातार चल रहे शांतिपूर्ण प्रदर्शनों के बाद अप्रैल में सेना ने अल बशीर की सरकार पर कब्ज़ा कर लिया और एक परिवर्ती मिलिट्री काउंसिल सत्ता में आई, लेकिन शासन प्रणाली और बाकी के सरकारी तंत्र में कोई ख़ास परिवर्तन नहीं हुआ। किन्तु,जनता ने इतनी कुर्बानियां पुराने तानाशाह को बदल कर उसी कुर्सी पर नए तानाशाहों को बैठाने के लिए नहीं दी थीं। सत्ता में आने के 24 घंटे के अन्दर पहले सेना अधिकारी को काउंसिल के नेतृत्व से इस्तीफ़ा देना पड़ा। किन्तु, उसकी जगह फिर एक और सेना अधिकारी ने ही ले ली। जनविद्रोह के साथ हो रही इस धोखाधड़ी के विरोध में प्रदर्शनकारी राजधानी में रक्षा मंत्रालय के आगे अपने धरने स्थल पर बने रहे। 6 अप्रैल से चल रहे इस धरने में सुदान के अलग अलग तबके के, अलग अलग क्षेत्रों से आये, 100 से अधिक विभिन्न समुदायों के हज़ारों लोग साथ रहते, राजनैतिक बहस उठाते, कला, गाने और सांस्कृतिक प्रस्तुतियां बनाते; एक जनतांत्रिक सुदान का सपना देखते, उसकी तैयारियां करते। किन्तु, सत्ता में आए सेना अधिकारी एक जनतांत्रिक नेत्रत्व के हाँथ में सत्ता सौंपने के इच्छुक नहीं नज़र आ रहे। उनका मानना है कि प्रदर्शनकारी तानाशाह को हटाने से आगे बढ़ कर, अब सरकारे की विभिन्न आधारभूत संस्थाओं – जैसे अर्धसैनिक बल और अफसरशाहों — को हटाना चाहते हैं। किन्तु सच तो यह है की यही संस्थाएं ही तो तानाशाह के रीढ़ की हड्डी थी। और दरअसल, इनको बचा कर, यह सेना काउंसिल, तानाशाही के मूल तत्व को बनाये रखना चाहती है| इस मुद्दे पे सेना और प्रदर्शनकारियों के नेतृत्व विफ़ल हुए, और सेना ने अपना असली रंग दिखा कर 3 जून को रक्षा मंत्रालय के आगे चल रहे धरने पर गोलीबारी शुरू कर दी| एकाएक 100 से अधिक लोग मारे गए। करीब 500 घायल हुए। नील नदी से कई दिनों तक लाशें बरामद होती रही। कई महिलाओं के साथ सेना द्वारा बलात्कार के प्रमाण भी सामने आए। इसके बाद हमला करते अर्ध सैनिक आसपास के इलाकों में भी जाकर लोगों को गोलियां मारते रहे व तीन अस्पतालों पर छापा मारा और वहां भर्ती घायल प्रदर्शनकारियों को हमला किया।
सैनिक बल बनाम जन-असहयोग और आम हड़ताल!
इस कत्लेआम के विरोध में प्रदर्शनों को नेतृत्व दे रही ‘सुदानी पेशेवर संघ’ ने अनिश्चित कालीन बंध का ऐलान किया। जिसकी दो दिवसीय सफलता, व सरकारी जनसंहार से बने अंतर्राष्ट्रीय दबाव से सेना फिर एक बार वार्ता करने पहुंची। अभी वार्ता चल ही रही है और सुदान का भविष्य अब भी अनिश्चित ही है। किन्तु जनता को विश्वास है की जीत उनकी होगी। यह इसलिए क्योंकि ना केवल इस जनुभार ने सत्ताधारियों को कमज़ोर किया है, बल्कि जनता में बने विभिन्न विभाजनों को भी तोड़ते हुए उनमें एकता भी बुलंद की है। साथ ही, चल रहा विद्रोह, राजधानी खारर्तूम के कुछ बुद्धिजीवियों के असंतोष का प्रतीक नहीं है, बल्कि इसकी शुरुआत सुदान के आंचलिक छोटे शहरों से हुई, जिसमे देश की मेहनतकश, गरीब, बेरोजगार ने ही प्रमुख भूमिका नाभाई। पूरे विद्रोह के दौरान सत्ता पर दबाव बनाए रखने के लिए देश भर में कई बार हड़तालों और प्रदर्शनों का आयोजन हुआ। आम हड़ताल इस पूरे आंदोलन का एक महत्वपूर्ण हथियार रही। बंदरगाह, खदान, विद्युत, अस्पताल, लोडिंग-अनलोडिंग, ट्रांसपोर्ट, पेट्रोलियम, हवाईअड्डा व ऑटोमोबाइल, हर क्षेत्र के मज़दूर आन्दोलन के हर पडाव पर राजनैतिक हडतालों के माध्यम से सरकार पर दबाव बनाने के मुख्य साधन रहे। जगह जगह पर हड़ताल समितियों और मोहल्ला समितियांआन्दोलन की दिशा पर आम जनता के हस्तक्षेप का साधन बन रहे हैं। राजधानी खारर्तूम में अध्यापक, वकील, डॉक्टर जैसे मध्यम वर्गीय पेशेवर व छात्र, व बाकी देश भर में चल रहे ग्रामीण और मज़दूरों के बीच तालमेल बनाने का काम ‘सुदानी पेशेवर संघ’ द्वारा किया जा रहा है, जिसके नेतृत्व में डॉक्टरों और अध्यापकों का काफ़ी प्रभाव होने के बावजूद यह एक ट्रेड यूनियनों का मंच है जिसमें कई सारे ट्रेड यूनियन शामिल हैं, और जिसे विभिन्न मज़दूर यूनियनों का भी समर्थन प्राप्त है। इसके अतिरिक्त देश की कम्युनिस्ट पार्टी व अन्य विपक्षी दल भी विद्रोह में शामिल रहे हैं। इस पूरे बल को मिला कर विद्रोह में उतरी आबादी काफ़ी व्यापक है। अपनी बर्बरता, और मिश्र, युएई और सऊदी जैसे देशों से मिल रहे पैसों के बावजूद सेना के लिए देश की व्यापक जनता के पूरे बल को कुचल देना कठिन होगा। बशर्ते की वर्तमान में बनी एकता कायम रहे।
बस तख्तापलट नहीं, सामजिक परिवर्तन
जन विद्रोह ने अल बहीर के 30 साल के राज का अंत तो किया ही, लेकिन साथ में सुदानी समाज के अन्य कई विभाजनों को भी चुनौती दी। प्रदर्शनों में महिलाओं की भागीदारी महत्वपूर्ण रही जहां, सड़कों पर उतरी तादाद का बड़ा हिस्सा महिलाओं का था। आंदोलन में महिलाएं तानाशाही सरकार के खिलाफ लड़ने के साथ ही समाज में महिलाओं के साथ होने वाले शोषण व समाज में उनकी भूमिका पर भी सवाल खड़े करती आयीं हैं। अब तक सुदान में महिलाओं पर उनके आने-जाने,पहनावे, और गैर पुरुषों के साथ सार्वजनिक स्थल में उपथिति के लिए भी जुर्माना लग सकता है। इन पाबंदियों का अंत भी जन विद्रोह का एक पहलु है। वहीँ, सूदान के दरफुर क्षेत्र के लोगों के साथ सालों से चले आ रहे नस्ली भेदभाव क भी आन्दोलन ने कड़ी चुनौती दी और गाँव से शहर तक यह नारा अपनाया, “हम सब दरफुर हैं”। सुदान जैसे, विभिन्न समुदायों, कबीलों और धर्मों में बटे देश के लिए यह एक बड़ा कदम है, और समाज में जनतंत्र की नीव को मज़बूत कर रहा है।
आखरी शहादत तक चलेगा संघर्ष…
सुदान की जनता के सामने चट्टानी चुनौतियाँ खड़ी हैं। पूर्वोतर अफ्रीका – पश्चिम एशिया के देश दशकों से आतंरिक मुतभेड़ों, देशी तानाशाहों और साम्राज्यवादी दमन के शिकार रहे हैं। 2010-2011 में यहाँ के कई देशों में हुए जन उभारों के बाद भी दमन और तानाशाही का चक्र अटूट रहा है। इसका सबसे बेहतरीन उदाहरण है मिश्र जहाँ जनविद्रोह के बाद पहले एक इस्लामी सत्ता आई और फिर एक सेना की तानाशाही कायम हुई। ऐसे में, सुदान आज एक महत्वपूर्ण पड़ाव पर खड़ा है, जहां भूख, बेरोज़गारी, बेबसी की दहलीज़ पार कर के जनता सही मायने में अपनी सत्ता के लिए संघर्ष कर रही है। इतनी बर्बरता के बाद भी लोग सड़कों पर लौट कर सेना के खिलाफ़ नाकेबंदी के बैरिकेड लगा रहे हैं। सरकार द्वारा हड़ताल करने पर नौकरी से निकाल दिए जाने की धमकी के बावजूद 100% मज़दूर एक आवाज़ पर हड़ताल के लिए तैयार हैं। 3 जून को तहसनहस पड़े धरना स्थल पर एक प्रतिरोधी के शब्दों में “आखरी शहीद ना गिर जाने तक संघर्ष जारी रखेंगे…अब इतनी दूर आ कर पीछे मुड़ना संभव नहीं है”।
आज जिधर देखो बढ़ती बेरोज़गारी, महँगाई और सामाजिक असमानता दिखाई देती हैं। किंतु इनके खिलाफ जनता का प्रतिरोध उतनी आसानी से नज़र नहीं आता। ऐसे में सुदान के संघर्षरत जनता की बहादुरी दुनिया भर के दमित, शोषित जनता के लिए आज़ादी और देशप्रेम के नए मिसाल कायम कर रही है।