कश्मीर: भारत के सर का ताज, या सर्ताजों की आपाधापी में पिसती जनता का इतिहास?

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आज देश के सभी नेता और समाचार उद्घोषक ‘कश्मीर के मुद्दे’ पर अनगिनत बयान दे रहे हैं। चुनावी बहसों की तरह यह बहस भी पक्ष-विपक्ष के खेमों में बट गयी है। पर समाचार सुर्ख़ियों के पीछे, क्या है कश्मीर का सच? क्या टीवी प्रवक्ताओं और नेताओं से हट कर इस सवाल पर देश की आम मेहनतकश जनता के कहने-सोचने के लिए कोई ख़ास बात है?

आज़ाद देश में पाबंद जनता

शहीद भगत सिंह ने इस देश की आज़ादी के लिए शहादत देते हुए भी यह सवाल जिंदा रखा था कि क्या हमें मिल रही राजनीतिक स्वतंत्रता देश के मेहनतकश मज़दूर, किसान, नौजवान के लिए आर्थिक सामाजिक और राजनैतिक स्वतंत्रता लाएगी, या यह मात्र गोरे अंग्रेजों को तख़्त से हटाकर उस पर भूरे अंग्रेजों का राज कायम करेगी। जहां पूरे भारत में ही आज मज़दूर मेहनतकश जनता विभिन्न प्रकार के शोषण दमन का शिकार हैं, वहीं कश्मीर की विशेष परिस्थितियों में अंग्रेजों के जाने के बाद भी, वहां की जनता को सही मायने में राजनैतिक स्वतंत्रता भी नहीं हासिल हो सकी है। सालों से कश्मीर में चल रहे झगड़े का स्रोत राज सत्ता और जनता के बीच की बनी इसी दूरी की लंबी दास्तान है।

भारत की स्वतंत्रता और राष्ट्रीय निर्माण के समय कई अन्य प्रांतों की तरह कश्मीर भी एक रजवाड़े के शासन में था। कश्मीर को सीख राजाओं के हाथ से छीनने के बाद अंग्रेजी हुकूमत ने 75 लाख नानकशाही रुपयों, एक घोड़े, 12 बकरियों और 6 कश्मीरी शॉल की रकम में इस धरती और उसकी जनता को किसी निर्जीव वस्तु की तरह, डोगरा राजा को बेच दिया। अपनी लालच और अंग्रेजों की खिदमत में डोगरा राजा कश्मीरी किसान जनता से अन्यायपूर्ण लगान वसूलते रहे, कइयों को बंधुआ मज़दूर बनाया व सैकड़ों कश्मीरी नौजवानों को अंग्रेजों की सेना में लड़ने को मजबूर किया।

डोगरा राजाओं का ज़ुल्म उनके पहले आए मुग़ल, अफगान व सीख राजाओं और सम्राटों से बहुत अलग नहीं था। किंतु 19वीं शताब्दी के अंत से, पूरे भारतीय महाद्वीप में राजनैतिक चेतना की उभरती लहर के साथ कश्मीर में भी अब आम जनता, मज़दूर, किसानों के आंदोलन सर उठा रहे थे। 1865 में जब कश्मीरी बुनकरों ने बेहतर काम की शर्तों के लिए पहला आंदोलन छेड़ा तो सत्ता द्वारा किए गए दमन ने बुनकरों की संख्या 28,000 से गिरा कर मात्र 5000 तक सीमित कर दी। 1924 में श्रीनगर रेशम कारखाने के मज़दूरों ने जब वेतन बढ़ोतरी, काम की बेहतर शर्तों व प्रबंधन द्वारा सम्मानजनक बर्ताव के लिए अनिश्चितकालीन हड़ताल शुरू की तो उसका अंत कई मज़दूरों की गिरफ्तारी व पुलिसिया दमन में 10 मज़दूरों की मृत्यु से हुआ। राजा की शोषणकारी नीतियों के ख़िलाफ़ 1931 तक कश्मीर में बढ़ रहा व्यापक जन आक्रोश बगावत का रूप ले चुका था। भारत में यह सविनय अवज्ञा व भारत छोड़ो आंदोलन का दौर था। स्वतंत्रता की मांग पूरे देश की जनता के दिलों में घर कर चुकी थी। तभी कश्मीर का जन विद्रोह अपनी मांगों का कोई अर्थपूर्ण समाधान ना पाते हुए 1946 तक आकर कश्मीर ‘छोड़ो आंदोलन’ का रूप ले चुका था।

इस समय तक अंग्रेजों की भारतीय महाद्वीप से विदाई की तैयारियाँ शुरू हो चुकी थीं। और साथ ही भारत व पाकिस्तान के बँटवारे का माहौल भी बन चुका था। मुस्लिम बहुल क्षेत्र व पश्चिमी पाकिस्तान से भौगोलिक और आर्थिक रूप से करीब होने के कारण कश्मीर का पाकिस्तान में जाना एक शक्तिशाली संभावना के रूप में नजर आ रहा था। किंतु हिंदू राजा होने के कारण हिंदुस्तान के साथ कश्मीर की राजनैतिक संधि का मौका भी बना हुआ था। स्वयं राजा हरि सिंह अपने शाही अधिकारों को बनाए रखने की होड़ में दोनों भारत और पाकिस्तान की सरकारों के साथ बातचीत में थे, व आज़ाद हिंदू राष्ट्र बनाए रखने का रास्ता भी टटोल रहे थे। पाकिस्तान में अपने शाही अधिकारों की बेहतर सुरक्षा की उम्मीद में उन्होंने पाकिस्तान के साथ एक समझौता भी कर लिया था। इसी बीच जम्मू में द्वितीय विश्व युद्ध में अंग्रेजों की सेना में लड़कर लौटे नौजवानों ने, बेरोज़गारी और अंसतोष की आग में राजा के खिलाफ हथियारबंद विद्रोह शुरू कर दिया। इसके समर्थन में जब पश्चिमी पाकिस्तान के पश्तून लड़ाकू गुट व पाकिस्तान के कुछ फ़ौजी कश्मीर की और आगे बढ़ने लगे तब राजा ने अफरातफरी में भारत के साथ जाने का फैसला लेकर जन विद्रोह को दबाने के लिए भारतीय सेना का सहयोग लिया। इस विद्रोह को कुचलने के लिए 70,000 से अधिक युवकों का कत्ल किया गया, जिसका प्रभाव ऐसा भयावह था कि जम्मू की बड़ी मुसलमान आबादी ख़तम हो कर वहां यह समुदाय अल्पसंख्यकों में गिना जाने लगा। इसके बाद अंग्रेजी व अमेरिकी सरकारों व संयुक्त राष्ट्र की मध्यस्थता में कश्मीर के बीचों-बीच लाइन ऑफ कंट्रोल खींचकर एक हिस्से को भारत और दूसरे हिस्से को पाकिस्तान के हवाले कर दिया गया। साथ ही दोनों राष्ट्रों द्वारा क्षेत्र में स्थिरता आने के बाद जनमत संग्रह द्वारा कश्मीर के राजनीतिक भविष्य का फैसला कश्मीरी जनता के हाथों में छोड़ने का वादा किया गया जो कभी पूरा न हुआ। जनता के हितों की सुरक्षा करना तो दूर कश्मीर की जनता की आवाज़ तक सुनना किसी भी सरकार को गवारा न था, और कश्मीर की धरती व उसकी जनता चुप्पी की शर्त पर भारत के सत्ताधारी वर्ग के अधीन आ गए और आज तक हैं।

जनतांत्रिक अधिकारों के प्रति नए राज्य की सरकार का रवैया भी कुछ अच्छा ना था। राजनैतिक विपक्षियों को दबाना, पत्रकारिता पर प्रतिबंध, व किसी भी प्रकार के विरोध पर दमन कश्मीर में आम बात बनी रही। वहीं[1]  नेहरू की सरकार द्वारा 1954 तक आते आते अनुच्छेद 370 में कश्मीर को दिए गए स्वायत्तता को काफ़ी सीमित कर दिया गया था। स्थानीय नेताओं के साथ सांठगांठ व पुलिसिया दमन कश्मीर को भारत से जोड़े रखने का मुख्य आधार बन गया। यह कहना गलत नहीं होगा की आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी कश्मीर की जनता ने शायद कभी भी किसी स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव में भाग नहीं लिया है। 5 अगस्त 2019 को मोदी सरकार ने राज्य में पहले से मौजूद 7 लाख सैनिकों के ऊपर 75000 अन्य सैनिकों को तैनात कर के, पूरे राज्य में कर्फ्यू लगाकर और संपर्क के सभी रास्ते बंद करके अनुच्छेद 370 और 35(a) को हटा दिया। यह कश्मीर की जनता के साथ भारत के सत्ताधारियों द्वारा किए गए अन्याय के लंबे सिलसिले का एक नया और भयानक मोड़ है। और तो और, यह तानाशाही तरीका किसी राजे रजवाड़े ने नहीं बल्कि एक जनतांत्रिक देश की चुनी हुई सरकार द्वारा अपनाया गया है। इस तरह कश्मीर की समस्यायों के राजनीतिक समाधान के बदले, बंदूक के इशारे पर, मिलिटरी तरीके से उसकी सभी जनतांत्रिक महात्वाकांकषाओं को दबाने का रास्ता चुना गया है। हज़ारो कश्मीरी युवा और कई भारतीय सैनिकों की मौत के बाद इस नीति की असफल साफ़ है। इसका परिणाम मात्र कश्मीर में उग्रवादी हिंसा को बढ़ावा देना होगा, व कश्मीरी जनता में भारत विरोधी भावना और भारत सरकार के प्रति अविश्वास को और मज़बूत करेगा। 

जनता के संघर्ष, और सांप्रदायिकता के सियासी दांवपेंच

कश्मीर में हिंदू अल्पसमुदाय होने के बावजूद भी दरअसल सामाजिक और आर्थिक रूप से क्षेत्र में सबसे शक्तिशाली थे। डोगरा राज में इस छोटे हिंदू समुदाय के पास हजारों एकड़ की जमीनें थीं, स्थाई रेशम कारोबार में भी इनका वर्चस्व था व सरकारी नौकरियों और पदों पर भी इस छोटे हिस्से का ही एकाधिकार था। आम जनता का ज्यादातर हिस्सा मुसलमानों का था। ऐसे में मेहनतकश जनता द्वारा सत्ताधारी वर्ग के खिलाफ संघर्ष अक्सर देखने में दो धार्मिक समुदायों के बीच का संघर्ष नजर आता था। लोगों की भावना में भी मूलभूत मुद्दों से उठने वाले संघर्ष टकराव की गर्मी में अक्सर कुछ सांप्रदायिक रंग ले लेते थे। भारत में हिंदू राष्ट्रवादीयों के बढ़ते प्रभाव ने भी कश्मीरी जनता के बीच मुसलमान होने के कारण असुरक्षा के भाव को और तीखा किया। किंतु आंदोलन में कई धर्मनिरपेक्ष आवाज़ें भी अलग अलग समय काफी महत्वपूर्ण रहीं हैं। किंतु सोचने की बात है की इस्लामी संगठनों का हवाला देते हुए भी सालों से भारतीय सरकार का सबसे बड़ा हमला आंदोलन के धर्मनिरपेक्ष आवाजों पर ही रहा है, जिन्हें खत्म करने में उनकी पाकिस्तान के साथ एकता तक बन जाती है। साथ ही भाजपा जैसी ताक़तें भी कश्मीर की जनता को इस तरह दबाकर अपनी ‘हिंदू राष्ट्र’ की कल्पना में उनके द्वारा मुसलमानों के लिए तय किए गए दोयम दर्जे की नागरिकता का एक उदाहरण पेश करने की कोशिश कर रहीं हैं। कश्मीर की महिलाओं से शादी कर पाने की बातों के पीछे संघ की ‘बेटी बचाओ, बहु लाओ’ मानसिकता काम कर रही है। सरकार के तानाशाही रवैया के साथ जुड़कर इस तरह की राजनीति कश्मीर की जनता में राजनीतिक और सांस्कृतिक गुलामी के एहसास को बढ़ा रही है। कश्मीर के नव युवकों के पास अपनी बात कहने का कोई और मौका ना छोड़ कर सरकार सोची समझी रणनीति के तहत उन्हें बंदूक के और करीब ढकेल रही है और स्थिति को और भी विस्फोटक बना रही है।

दरअसल कौन खरीदेगा कश्मीर में जमीन?

अनुच्छेद 35 (a) हटाकर दावा है की अब कश्मीर के बाहर के लोग भी वहां जमीन खरीद सकेंगे। किंतु जिस देश की आबादी का 70% गरीबी रेखा के नीचे रहता है वहां कौन खरीदेगा कश्मीर में ज़मीन? यह वही बड़े पूंजीपति होंगे जो बाकी देश के संसाधनों पर भी कब्जा कर के बैठे हैं। कश्मीर में कर्फ्यू हटा तक नहीं पर अंबानी जम्मू व कश्मीर में निवेश करने के लिए एक खास टीम का गठन कर चुके हैं। पंजाबी पूंजीपति लद्दाख में कारखाने खोलने पहुंच चुके हैं। इसे विकास का नाम देने के पहले यह जानना जरूरी है कि ऐसे निवेश से अब तक अछूते कश्मीर में दरअसल जनता की आर्थिक स्थिति भारत के अन्य विकसित क्षेत्रों के मुकाबले कई बेहतर है। उदाहरण के तौर पर कश्मीर की मात्र 12% आबादी गरीबी रेखा के नीचे है जबकि ‘विकास की मूरत’ गुजरात में यह आबादी 22% है।

देश की बाकी जनता का कश्मीर के मुद्दे से क्या रिश्ता है?

अपने रोज़मर्रा के जीवन में हम अक्सर खुद को बिहारी, बंगाली, छत्तीसगढ़, असमी, मराठी के रूप में देखते हैं। हिंदुस्तानी होने की भावना सबसे प्रभावशाली तभी होती है जब सामने कोई दुश्मन खड़ा हो। तब सब भूल कर हम दुश्मन के खिलाफ एक हिंदुस्तानी आवाम बन जाते हैं। राजनेताओं द्वारा दशकों से भारत के साथ कश्मीर का रिश्ता ऐसे बनाया गया है कि वह ‘अपना’ भी है और पाकिस्तान से जुड़कर एक ‘दुश्मन’ भी जिस पर विजय करना हमारे देश प्रेम का महत्वपूर्ण आधार है। नेताओं की बयानबाजी और व्यवहार में ज़्यादातर अपनापन का भाव कम और विजय करने का भाव ज्यादा हावी रहता है। और तनाव थोड़ा भी बढ़ने से बाकी देश की जनता फिर सब भूलकर युद्ध की तैयारियों में जुट जाती है। इस बार भी सरकार ने कश्मीर का कुछ ऐसा ही इस्तेमाल किया है। देश के मज़दूरों की बड़ी आबादी पर असर डालने वाले श्रम कानून सुधारों की कोई जानकारी आज मज़दूरों तक नहीं पहुंच रही है। और देश की जनता को इसकी खबर लेने की सुध भी कहां है? आखिरकार हम जंग की तैयारियों में व्यस्त जो हैं! राष्ट्रीय सुरक्षा के बहाने सरकार ने देश के आम नागरिक व राज्य सरकारों के अधिकारों में काफी परिवर्तन कर दिया है। आज सरकार किसी एक निहत्थे व्यक्ति को भी ‘टेररिस्ट्स’ घोषित कर सकती है। पर हम चिंतित नहीं हैं क्योंकि इस कानून का इस्तेमाल हमें आज कश्मीर के ‘जिहादियों’ पर ही होता नजर आ रहा है। किंतु क्या कल को यह कानून ट्रेड यूनियनों के नेताओं के खिलाफ नहीं इस्तेमाल किया जा सकता? मगर इस सवाल पर सोचने का हमें वक्त कहां है? आखिरकार, हम जंग की तैयारियों में व्यस्त जो हैं! देश प्रेम के नाम पर कश्मीर का इस्तेमाल करके जनता के मन में पैदा की जा रही यह जंगी भावना दरअसल कश्मीर की जनता को बाकी भारत की जनता के खिलाफ खड़ा कर, दोनों पर भारत के बड़े पूँजीपतियों और उनके हितैषी नेताओं द्वारा शासन और शोषण का हथियार बन रही है। ऐसे में भारत के हर मेहनतकश को, कश्मीर में चल रहे ढकोसले के पीछे भारत की जनता और कश्मीरी अवाम के बीच असल भाईचारे के रिश्ते को समझने की जरूरत है। हमें कश्मीरी जनता के जनतांत्रिक मांगों के जनतांत्रिक समाधान की मांग उठाते हुए कश्मीर के मुद्दे के उग्र राष्ट्रवादियों द्वारा सांप्रदायिकरण के खिलाफ़ संघर्ष करने की जरूरत है।  व मिलकर उस आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक क्रांति को बनाने की जरूरत है जो हमें वह आजादी दे सके जिसके लिए भगत सिंह और हमारे सैकड़ों अन्य गुमनाम पूर्वजों ने शहादतें दीं हैं।


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